हिन्दू मुस्लिम समस्या को नकारना पड़ा मंहगा… देश बंटा, पर क्या समस्या सुलझी?
बी.पी. श्रीवास्तव।
लाहौर में मीनार-ए-पाकिस्तान पर एक शिलालेख है जिससे मीनार देखने आने वाले हर व्यक्ति का आमना सामना होता है। शिलालेख कहता है कि- पाकिस्तान की नींव उसी दिन पड़ गयी थी जिस दिन पहला हिन्दू मुसलमान बना था। मैं यह तो नहीं कह सकता कि इस शिलालेख का किसी अन्य भारतीय पर क्या प्रभाव पड़ता होगा। पर यह अपने आप से झूठ बोलना होगा अगर यह ना मानूं कि उसे पढ़ कर मैं क्षण भर के लिए अपना मानसिक संतुलन खो बैठा था। सोचने वाली बात यह है कि मानसिक संतुलन खोया था उस व्यक्ति का- जिसने अभी आधा घंटा पहले ही शाही मस्जिद के ऊपर वाले पटल को खुलवाने की ज़िद की थी- और पाकिस्तान के प्रति सौहार्द जताने के उद्देश्य से ऊपर तक गया भी था। मैं उस समय भारतीय विशेषज्ञ के तौर पर चीन से लेकर ईरान तक एशिया के इस भाग के ब्रॉडकास्ट इंजीनियर्स के दल की अगुवाई कर रहा था। मुझे इस्लामाबाद में उनके लिए शार्ट वेव रेडियो प्रसारण पर 15 दिन का एक अंतरराष्ट्रीय कोर्स संचालित करना था, जिसका संयोजन अंतरराष्ट्रीय टेलीकम्यूनिकेशन यूनियन की एशिया पैसिफिक एजेंसी ने किया था। यानी उस समय यह लेखक पाकिस्तान में एक भारतीय दूत की तरह भी था।
यह शिलालेख भारतीय उपमहाद्वीप में सालों से चली आ रही हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिक समस्या की सच्चाई को दर्शाता है। यह उन सब भारतीय नेताओं को एक सबक़ है जो हर दम इस समस्या के अस्तित्व को नकारते रहे हैं। इससे देश को बहुत नुकसान हुआ और देश का बंटवारा भी हो गया है। सोचने की बात यह है कि बंटवारे से समस्या सुलझ पाई- या नहीं। कितना अच्छा होता कि इस समस्या को नकारा ना गया होता। हिन्दू और मुसलमानों को आमने सामने दिल खोल कर बात करने दी जाती, ना कि उसे केवल एक राजनीति का विषय बना कर छोड़ दिया गया होता, जहाँ कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों पार्टियां मुसमानों के नेतृत्व का दम भर रही थीं। देश के विभाजन का प्रस्ताव पास करने से एक दिन पहले 22 मार्च 1940 को जिन्ना की वह बात याद आती है जो उन्होंने गांधीजी से एक चुनौती के रूप में कही थी। जिन्ना ने कहा था: “क्यों ना आप एक हिन्दू नेता की हैसियत से गर्व से अपने लोगों का नेतृत्व करते हुए आइये और मैं आपसे मुसलामानों का नेतृत्व करते हुए गर्व से मिलूं।” हालांकि जिन्ना की यह चुनौती खोखली थी और वह केवल एक राजनीतिक गोल करना चाहते थे। खैर जो होना था वह हो गया। हम यहां हिन्दू मुस्लिम समस्या को नकारने के संबंध में ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित चर्चा करेंगे। हमारा विषय यह नहीं है कि देश का विभाजन सही था या ग़लत था…. या उसकी प्रक्रिया कैसी थी और कैसी होनी चाहिए थी।
हिन्दू मुस्लिम रिश्तों में मिठास और खटास
हिन्दू और मुसलमानों के रिश्तों में आपसी भाईचारा और रूखेपन की कहानी भारत के 1200 वर्ष पुराने इतिहास का मिलाजुला हिस्सा रहा है। बाद में यह केवल राजनीतिक उपायों और निजी महत्वाकांक्षाओं तक सीमित होकर रह गयी थी जिसका बस एक ही उद्देश्य रह गया था- गद्दी पाना। भारत में हिन्दू और मुसलामान काफी संख्या में एक दूसरे के संपर्क में सन 711 में आये थे जब अरबों ने सिन्ध पर आक्रमण कर अपना राज्य स्थापित किया था। वह राज्य सन 828 तक फैला और चला। उसके बाद महमूद ग़ज़नी ने बार बार आक्रमण करके भारत के मंदिरों को लूटा। मुसलमानों के साथ तीसरा संपर्क सन 1206 में बना जब तुर्की अफगानी अवतरण वाले क़ुतुब-उद्दीन-ऐबक ने भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना की और मुसलमान भारतवर्ष में बस गए। उस समय के बाद से मुसलमान भारत के काफी भाग के राजा रहे जब तक उनको ब्रिटिश साम्राज्य ने 19वीं सदी में गद्दी से हटा नहीं दिया।
इस्लामिक उत्साह… और गंगा जमुनी तहज़ीब
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मुस्लिम शासकों ने अपने नये नये मूर्ति पूजा विरोधी इस्लामिक उत्साह में बहुत सी मूर्तिओं को खंडित किया था और बहुत से मंदिरों को मस्जिदों में बदल दिया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने समय समय पर अपनी हिन्दू प्रजा पर एक टैक्स लगाया था जिसको जज़िया के नाम से जाना जाता है। यह सब हिन्दुओं के लिए बड़ी लज्जाजनक बात थी। ऐसा लगता हे कि अधिकतर हिन्दुओं ने अपनी इस स्थिति को स्वीकार कर लिया था। इस का अंदाज़ा हम मुस्लिम सभ्यता की उस गहरी छाप से लगा सकते हैं जो मुस्लिम शासकों ने देश पर, विशेष तौर पर उत्तरी भाग पर छोड़ी थी। उसी सभ्यता को आज हम गंगा-जमुनी तहज़ीब के नाम से जानते हैं। देश का एक विशिष्ट वर्ग आज भी उसे बहुत ऊँची नज़र से देखता है जिसमें हिन्दू और मुसलमान घुल मिल कर रहते थे। यह विचारधारा या तो उनकी राजनितिक सोच का हिस्सा है- या फिर उन्हें ऐसा शायद हिन्दू और मुसलमानों के उस ऊपरी व्यवहार से लगता है जिसमें दोनों धर्मों के लोग अपने राजनीतिक और धार्मिक मतभेदों को अलग रखते हुए, एक दूसरे के निजी त्योहारों, शादी समारोहों व सुख-दुःख में सम्मिलित होते थे। हिन्द मुस्लिम रिश्तों की चर्चा के बारे में यह ध्यान देने वाली बात है कि जहाँ पाकिस्तानी लेखकों ने इन मतभेदों पर पर्दा डालने की कोई कोशिश नहीं की, वहीँ भारतीय लेखक इनके बारे में चर्चा करने से कतराते रहे हैं।
रिश्तों का छुपा चेहरा
हिन्दू मुस्लिम रिश्तों का छिपा चेहरा पाकिस्तानी लेखकों के लेखन में सामने आता है। मिसाल के तौर पर पाकिस्तानी लेखक, हफ़ीज़ मलिक, को ‘मेकिंग ऑफ़ पाकिस्तान’ नामक पुस्तक में यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि: “जज़िया हिन्दुओं के नीचे दर्जे को दर्शाता है”। वह इसी पुस्तक में निष्कर्ष निकालते हैं कि: “मुस्लिम शासन के शुरू के दिनों से दोनों धर्मों के बीच टकराव ही हिंदू मुसलमानों के रिश्तों का प्रतिरूप रहा है”। उसी पुस्तक, ‘मेकिंग ऑफ़ पाकिस्तान’ में दूसरे पाकिस्तानी लेखक, के.के.अज़ीज़ ने हिन्दू मुस्लिम रिश्तों को रेखांकित करते हुए लिखते हैं: “कभी कभी यह कहा जाता है कि हिन्दू मुस्लिम रिश्तों की कठोरता बाद के दिनों की देन है, पहले तो दोनों धर्मों के लोग हज़ारों सालों से एक दूसरे के साथ मिल जुल कर रहते आये थे। लेकिन यह कहने वाले यह भूल जाते हैं कि मुसलमान भारत में विजेताओं के रूप में आये थे और जब तक वे भारत की गद्दी पर रहे, हिन्दू उनसे दुश्मनी दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। जब वे राजा नहीं रहे तब मनमुटाव सामने आने लगा और जैसे जैसे ब्रिटिश हुकूमत के अंत होने के आसार नज़र आने लगे और देश स्वराज की ओर बढ़ने लगा वैसे वैसे हिन्दू मुस्लिम झगड़ा बढ़ता गया “
हिन्दू मुस्लिम समस्या के अस्तित्व को ही नकारा कांग्रेस ने
सब जानते हैं कि कांग्रेस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व हिन्दू मुस्लिम समस्या के अस्तित्व को हमेशा नकारता रहा। उनके लिए यह समस्या ब्रिटिश शासन की देन थी और ब्रिटिश शासन के साथ ही ख़त्म हो जानी थी। हाँ, उसके दोनों बड़े नेताओं के विचार में थोड़ा सा अंतर था। जहाँ गांधीजी समस्या के अस्तित्व को मानते थे, नेहरू इसके अस्तित्व को ही नकारते थे। गांधीजी समस्या के अस्तित्व को तो मानते थे- पर उनका मानना था कि ब्रिटिश के जाने के साथ यह समस्या समाप्त हो जाएगी। शायद इसी उद्देश्य से उन्होंने ब्रिटिश सरकार से, “हमको छोड़ कर जाओ चाहे अराजकता में ही सही” वाला प्रसिद्ध वाक्य कहा था। वह मुसलमानों को स्वतन्त्रता संग्राम में अपने साथ लाने के लिए किसी हद तक जाने को तैयार थे- चाहे इसके लिए उन्हें धार्मिक मुद्दा भी क्यों ना जोड़ना पड़े।
नेहरू का समस्या के अस्तित्व को नकारना
नेहरू की सोच के अनुसार कोई हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिक समस्या थी ही नहीं। उनका मानना था कि वह केवल विदेशी राज्य से जुड़ी बात है। यूनाइटेड नेशन के भारत और पकिस्तान वाले कमीशन के मेम्बर जोसेफ कोरबेल ने ‘डेंजरस इन पाकिस्तान’ नामक पुस्तक में नेहरू के दृष्टिकोण को अच्छी तरह से दर्शाया है। उन्होंने लिखा: “नेहरू की नज़र में यह टकराव दो धर्मों के बीच नहीं बल्कि उन दो विचारधाराओं के बीच था, जिसमें एक ओर थी राष्ट्रीय लोकतंत्रीय सामाजिक और क्रांतिकारी सोच और दुसरी ओर थे सामंती विचारधारा के अवशेष… उनके अनुसार अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का जो मसला सामने दिखता है वह केवल विदेशी तीसरी पार्टी के शासन से जुड़ा है। आज आप इस शासन को हटा दीजिए पूरी बात ही बदल जाती है।” बाद में जो कुछ हुआ, उसे देख कर यह बड़ी चौकाने वाली बात लगती है कि देश का इतना बड़ा नेता असलियत से इतनी दूर कैसे था। इस अचम्भे की पुष्टि और भी होती है जब हमारा ध्यान उन तीन पूर्वानुमानों पर जाता है जो नेहरू ने 1946 में जैक्विस मरकुस नामक पत्रकार के साथ एक मुलाक़ात में किए थे: (स्रोत :अलेक्स वॉन तुज़ेलमान की पुस्तक ‘इंडियन समर’ पृष्ठ 222 )
1- पाकिस्तान कभी नहीं बनेगा, 2- भारत में साम्प्रदायिक दंगे ब्रिटिशराज जाने के साथ समाप्त हो जाएंगे और 3- भारत कभी भी अधिराज्य नहीं बनेगा।
अप्रिय वास्तविकताएं मन बहलाने से दूर नहीं की जा सकतीं
दुर्भाग्यवश समस्या का नकारना मंहगा पड़ा। कितना अच्छा होता यदि अप्रिय सत्य पर आँखें ना मूंद ली गयी होतीं, जैसा कि लेखक के के अज़ीज़ ने ‘मेकिंग ऑफ़ पकिस्तान’ पुस्तक के पृष्ठ -85 पर कहा है: “हालांकि कांग्रेस पार्टी और बहुत से हिन्दू लोग सांप्रदायिक समस्या के अस्तित्व को मानने से इनकार करते रहे, पर समस्या बनी रही और बाद में उसने एक ऐसा अवरोध पैदा किया जो तोड़ा ना जा सका। अप्रिय वास्तविकताएं मौखिक इन्कारों से दूर नहीं की जा सकतीं।“ इन्ही बातों से यह विचार उठता है कि काश, कांग्रेस पार्टी अपनी ही बनाई दुनिया में सीमित न रह कर और अपने नायकत्व को छोड़ कर- खुले विचारों से आगे बढ़ती। ऐसा करने में वह हिन्दू दृष्टिकोण को सामने आने दे सकती थी और उन मुस्लिम संगठनों को भी स्थान दे सकती थी, जिनकी सोच मुस्लिम लीग की विभाजन वाली सोच से मेल नहीं खाती थी।
विभाजन के पक्ष में नहीं थे सारे मुस्लिम संगठन
इतिहास भी कभी कभी अप्रत्याशित घटनाओं का रास्ता लेता है। ऐसा ही मुस्लिम लीग के साथ और भारत के विभाजन को लेकर हुआ था। आज भले आश्चर्यजनक लगे, पर यह सच है कि मुस्लिम लीग- जो बाद में भारत के मुसलमानों की आवाज़ बन गयी थी- 1937 तक एक छोटी सी पार्टी थी जिसकी भारत के मुसलामानों पर कोई बड़ी पकड़ नहीं थी। हाँ, यूपी में कुछ पकड़ थी पर वह भी थोड़ी बहुत। भारत के अधिकतर मुसलमानों की नब्ज़ वहाँ की क्षेत्रीय पार्टियों के हाथ में थी, जैसा 1937 के प्रांतीय चुनावों के नतीजों से सामने आया था।
मिसाल के तौर पर पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी ने सिकन्दर हयात खान के नेतृत्व में खालसा, हिन्दू और मुसलमानों की एक मिली जुली सरकार बनाई थी। सिकंदर हयात की मृत्यु के बाद, मालिक खिज़िर हयात तिवाना 12 दिसंबर 1942 को पंजाब के मुख्यमंत्री बने थे जो देश के विभाजन के खिलाफ थे और उसी को लेकर उन्होंने गद्दी भी त्याग दी थी। ऐसा सुनने में आता है कि खिजिर ने एक समय जिन्ना से यह कहा था कि: “हिन्दू और सिखों में भी तिवाना लोग हैं, जो हमारे रिश्तेदार हैं, हम उनकी शादी विवाहों में जाते हैं, फिर हम उनसे यह कैसे कह सकते हैं कि वह दूसरे मुल्क (नेशन) के हैं।” (टैलबोटआयन की किताब, ‘खिजिर तिवाना -पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी एंड पार्टिशन ऑफ़ इंडिया, पेज 77)। आज चाहे कितना भी अजीब क्यों ना लगे, यह बात सच है और इतिहास का एक हिस्सा है कि यह कांग्रेस पार्टी ही थी जिसने 1937 में मुस्लिम लीग मंन एक नयी जान फूंकी थी। कांग्रेस पार्टी, बजाय इसके कि वह मुसलमान पार्टियों और संगठनों को आपस में तय करने देती कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन करेगा, वह खुद ही मैदान में कूद पड़ी, जिसका जिन्ना ने बहुत लाभ उठाया।
विभाजन के खिलाफ थी देवबंदी विचारधारा
भारत में उस समय कुछ ऐसे संगठन और दल भी थे जो अपने अपने कारणों से देश के विभाजन के पक्ष में नहीं थे। उनमें एक थे देवबंदी विचारधारा वाले मुसलमान। वे पकिस्तान बनानेवाली सोच के खिलाफ थे। उनका मानना था कि “यह विदेशी हुकूमत की एक चाल है जिसकी मंशा विभाजन करके एक बड़ी ताक़त को उभरने से रोकना है।” (स्रोत :मेजर मुहम्मद 2015 -देवबंद मदरसा मूवमेंट)। जैसा फ़ारूक़ी ज़िआउलरहमान ने ‘दी देवबंद स्कूल एंड डिमांड फॉर पकिस्तान ‘ पुस्तक में लिखा है, देओबंदी लोगों की सोच थी कि :”विभाजन से मुसमानों की आर्थिक हालत को बहुत चोट पंहुचेगी।”
खाकसार पार्टी का पाकिस्तान गठन विरोधी दृष्टिकोण
उस समय भारत में एक खाकसार पार्टी थी जो पाकिस्तान बनने के हक़ में नहीं थी। उसके नेता मौलाना मशरक़ी की नज़र में: “दो नेशन थ्योरी ब्रिटिश सरकार की एक चाल थी जिससे वह इस क्षेत्र पर आसानी से नियंत्रण रख सकते थे, क्योँकि यदि इंडिया दो मुल्कों में बंट जाता है तो दो ताक़तें एक दूसरे के आमने सामने खड़ी हो जायँगी।” उनका तर्क था कि ” धार्मिक आधार पर देश का विभाजन बॉर्डर के दोनों ओर कट्टरवाद और उग्रवाद को जन्म देगा”। (स्रोत: युसूफ हसन-2018-पुस्तक, ’व्हाई अल्लामा मशरिक़ी एपीसोड: दि पार्टिशन ऑफ़ इंडिया’)
यूपी-बिहार के जुलाहों वाली मोमिन कांफ्रेंस
देवबंदियों और खाकसारों के अतिरिक्त मुसलामानों का एक समूह और भी था जो देश के विभाजन के पक्ष में नहीं था। 1941 की एक सीआईडी रिपोर्ट के अनुसार, हज़ारों की तादाद में बिहार और यूपी के मुसलमान जुलाहों के एक समूह ने मोमिन कांफ्रेंस के झंडे के तले दिल्ली आकर पाकिस्तान की मांग और दो नेशन थ्योरी के विरोध में प्रदर्शन किया था। अफ़सोस की बात है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग की लड़ाई के बीच उनकी आवाज़ सुनी नहीं गई।
मुस्लिम लीग से बातचीत में हिन्दू पक्ष का अभाव
भारत के विभाजन और स्वतंत्रता की कहानी कई कौतुकपूर्ण घटनाओं से भरपूर है। वरना यह सोचना भी कठिन है कि जहां हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक समस्या देश की आज़ादी के बीच रोड़ा बन कर खड़ी थी, वहीं बातचीत में हिन्दू पक्ष का कहीं नाम-निशान नहीं था- जो मुस्लिम पक्ष से खुलकर बात कर सकता। इसके विपरीत बातचीत हो रही थी दो ऐसे दलों के बीच जो दोनों ही मुस्लिम नेतृत्व करने का दम भर रहे थे। वे थे इंडियन नेशनल कांग्रेस और मुस्लिम लीग। ऐसे में अच्छे परिणाम की आशा कैसे की जा सकती थी। और हुआ भी कुछ ऐसा ही। देश का विभाजन हुआ- और समस्या भी ना सुलझी- बल्कि वह और भयंकर हो गयी।
जिन्ना की गांधीजी को चुनौती
हिन्दू पक्ष के अभाव के सन्दर्भ में जिन्ना की वह बात ध्यान में आती है जो उन्होंने गांधीजी से- एक चुनौती के रूप में 22 मार्च 1940 को देश के विभाजन का प्रस्ताव पास करने से एक दिन पहले- कही थी। जिन्ना ने कहा था: “क्यों ना आप एक हिन्दू नेता की हैसियत से गर्व से अपने लोगों का नेतृत्व करते हुए आइये और मैं आपसे मुसलामानों का नेतृत्व करते हुए गर्व से मिलूं।” हालांकि, जिन्ना के इस कथन में केवल एक छल था और वह एक राजनीतिक गोल करना चाहते थे। जैसा वी. पी. मेनन ने अपनी पुस्तक, ‘दी ट्रांसफर ऑफ़ पावर इन इंडिया’ में लिखा है कि: “जिन्ना ने पाकिस्तान को मार्च के महीने में ही ब्रिटिश शासन को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में सौंप दिया था जो मुसलमान लोग ब्रिटिश साम्राज्य के सहयोग से चलाएंगे”।
आगे की पीढ़ी के लिए सबक़
हिन्दू मुस्लिम समस्या को नकारना मंहगा पड़ा। देश को विभाजन का सामना करना पड़ा। सवाल उठता है कि क्या देश के विभाजन से समस्या सुलझी या नहीं? ज़ाहिर है कि उत्तर होगा नहीं। हिन्दू मुस्लिम रिश्तों की छिपी कडवहाहट को नकारा ना गया होता तो हो सकता है तस्वीर कुछ दूसरी होती। मूसलमानों का भारत में आक्रमण करके आना, यहां राज करना और बस जाना एक सत्य था जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। ना ही उनके और हिन्दुओं के बीच तनातनी से हम इनकार कर सकते हैं, जिसका होना बहुत से कारणों से स्वाभाविक था। अच्छा होता कि हिन्दू और मुसलमान दिल खोलकर आपस में बात करते। साथ साथ, उन मुस्लिम वर्गों की बात भी सुनी जाती जो देश के विभाजन के खिलाफ थे। हो सकता है कि कोई ऐसा रास्ता निकलता जिससे समस्या भी सुलझ जाती और देश का बंटवारा भी ना होता। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। इसमें दोनों राजनीतिक दलों- कांग्रेस और मुस्लिम लीग- की ग़लती लगती है। पर कांग्रेस की अधिक, क्योँकि उन्होंने वास्तविकता स्वीकार नहीं की और आखिर तक इस बात पर अड़े रहे कि वे मुसलमानों का नेतृत्व करते हैं। इससे आगे की पीढ़ी के लिए सबक़ यह है कि अप्रिय वास्तविकताओं को मौखिक इन्कारों से दूर नहीं किया जा सकता।
(लेखक आल इंडिया रेडियो के पूर्व निदेशक और ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स इंडिया लिमिटेड (बेसिल) के वरिष्ठ सलाहकार हैं)