प्रदीप सिंह।
लंबे समय की चुप्पी के बाद बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नेता नीतीश कुमार और उनका खेमा प्रदेश की राजनीति में फिर से सक्रिय हो गया है। हालांकि इसमें बिहार की राजनीति नजर आ रही है, लेकिन असल में निशाना केंद्र की तरफ है। केंद्र को अस्थिर करने की नहीं बल्कि अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश हो रही है। ऑपरेशन शुरू हुआ है लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) में जिसके संस्थापक स्वर्गीय राम विलास पासवान थे। उनके रहते ही पार्टी की कमान उनके बेटे चिराग पासवान ने संभाल ली थी। चिराग पासवान और नीतीश कुमार में नहीं पटी। हालांकि रामविलास पासवान के जीवित रहते ही उनमें और नीतीश कुमार में खटपट शुरू हो गई थी।
अब ये पांच सांसद ही एलजेपी
नीतीश कुमार चतुर राजनेता हैं। उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के साथ सीटों की सौदेबाजी में रामविलास पासवान का इस्तेमाल किया। 2019 में जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आ गए और केंद्र में एनडीए सरकार बनने की स्थिति आई तो उसमें जेडीयू क्यों नहीं शामिल हुआ- इसे लेकर उस समय कई प्रकार के चर्चाएं, खबरें और अफवाहें तैर रही थीं। इस पर बाद में बात करेंगे। ताजा घटनाक्रम यह रहा कि रविवार की रात एलजीपी के छह में से पांच सांसद पशुपति कुमार पारस की अगुवाई में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से मिले और उनको चिट्ठी लिख कर दी के अब ये पांच सांसद ही एलजेपी हैं। पारस स्वर्गीय राम विलास पासवान के छोटे भाई और चिराग पासवान के चाचा हैं। उन्होंने कहा कि अगर चिराग पासवान हमारे साथ आना चाहें तो उनका स्वागत है वरना वह अपना रास्ता तय कर लें।
एलजेपी में टूट के पीछे जेडीयू की रणनीति
बिहार विधानसभा चुनाव के समय से ही चाचा भतीजे में खटपट शुरू हो गई थी। जब तक रामविलास पासवान जीवित थे तब तक मामला दबा हुआ था। चिराग पासवान ने पार्टी संभाली और तय किया कि विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेंगे और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने से रोकेंगे। चिराग के दिमाग में यह था कि उनको इतनी सीटें मिल जाएंगे कि वह किंग मेकर बन जाएंगे और सरकार बनाने के लिए उनकी शर्त यही होगी कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री न बनें। उनका यह सपना तो पूरा हुआ नहीं बल्कि वह खुद औंधे मुंह गिरे। 247 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में उनकी पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली। बाद में वह विधायक भी जेडीयू में शामिल हो गया। इस तरह बिहार विधानसभा में अभी एलजीपी का कोई प्रतिनिधि नहीं है। लोकसभा में उनके छह सदस्य थे। नीतीश कुमार इस बात पर अडिग थे कि जिस तरह से चिराग पासवान ने बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को नुकसान पहुंचाया, उसे देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर उनको एनडीए से बाहर किया जाए। इसके अलावा कि चिराग पासवान को किसी भी हालत में उनके पिता रामविलास पासवान की जगह केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलनी चाहिए। नवंबर 2020 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए थे। इतना समय बीत जाने पर भी चिराग पासवान को अभी तक मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी गई। माना जा रहा है की एलजेपी में हुए इस नए घटनाक्रम के पीछे जेडीयू की रणनीति है। असंतोष को भांपते हुए जेडीयू ने एलजेपी में यह टूट कराई है।
एलजेपी का क्या होगा
अब सवाल यह है कि एलजेपी का क्या होगा? अभी ऐसा नहीं लगता कि एलजेपी खत्म हो जाएगी। एलजेपी के छह सांसदों में से तीन पासवान परिवार के ही हैं। चिराग पासवान, पशुपति कुमार पारस और प्रिंस पासवान जो रामविलास पासवान के दूसरे भाई का बेटा और चिराग पासवान का चचेरा भाई है। तीन सांसद परिवार से बाहर के लोग हैं जो पासवान बिरादरी से नहीं आते। पशुपति कुमार पारस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता इसलिए अब वह पहले की तरह राजनीति में सक्रिय नहीं हैं। एक बात तो राजनीतिक रूप से यह है कि एलजीपी के नाम पर जो कुछ बचेगा वह रहेंगे चिराग पासवान ही। रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत चिराग पासवान के पास ही जाएगी- चाहे उनका एक एमएलए जीते, 11 जीतें या एक भी न जीते। फिर भी यह एक बहुत बड़ा झटका नीतीश कुमार कैंप ने चिराग पासवान को दिया है कि उन्हीं की पार्टी तोड़ दी। चिराग नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने से रोकने की कोशिश कर रहे थे। उस समय उनकी बड़ी चर्चा थी। जेडीयू के कुछ लोगों को भी यह लगता था कि चिराग पासवान के पीछे बीजेपी है और वही यह सब करवा रही है ताकि जेडीयू की सीटें कम हो जाएं। उधर बीजेपी और बीजेपी के राष्ट्रीय नेताओं के दिमाग में यह बात बिल्कुल स्पष्ट थी अगर गठबंधन में चुनाव लड़ रहे हैं तो चुनाव के बाद चाहे बीजेपी की ज्यादा सीटें ही क्यों ना आएं नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहेंगे तभी यह सरकार चलेगी वरना नहीं चलेगी। इसे लेकर बीजेपी नेताओं के दिमाग में कोई भ्रम नहीं था इसीलिए जेडीयू की सीटें कम होने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार किया। विधानसभा चुनाव के बाद चिराग पासवान से नीतीश कुमार की नाराजगी बढ़ती ही गई। उनको यह बात रास नहीं आई कि अभी तक बीजेपी ने एलजेपी को एनडीए से बाहर नहीं किया। हालांकि एनडीए की किसी भी बैठक में एलजेपी को नहीं बुलाया गया। एक बैठक में गलती से बुला लिया गया था तो बाद में मना कर दिया गया। इस तरह व्यावहारिक रूप से तो एलजेपी एनडीए में नहीं है लेकिन तकनीकी रूप से है क्योंकि उसे औपचारिक तौर पर एनडीए से बाहर निकाला नहीं गया है। यह बात नीतीश कुमार को पसंद नहीं आयी। इस ऑपरेशन के जरिए उन्होंने चिराग पासवान को उन सब बातों का जवाब दे दिया है जो उन्होंने 2020 में विधानसभा चुनाव के समय उनके साथ किया था।
राजनीति में टाइमिंग के माहिर नीतीश
यह बात जरूर है कि यह काम इसी समय क्यों शुरू हुआ। यह इससे पहले भी हो सकता था और कुछ समय बाद भी हो सकता था। दरअसल राजनीति में टाइमिंग का बड़ा महत्व होता है और नीतीश कुमार इसके माहिर हैं। थोड़ा पीछे देखें। 2019 के लोकसभा चुनाव के समय बीजेपी चाहती थी कि वह अधिक सीटें लड़े और जेडीयू कम सीटें लड़े और विधानसभा चुनाव में जेडीयू को ज्यादा सीटें मिलें और बीजेपी को कम। यह कोई लिखित पढ़त का समझौता नहीं था बल्कि एक सहमति या समझ थी। नीतीश कुमार ने जब देखा कि 2018 में बीजेपी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हार गई, किसान नाराज थे और कई अन्य समस्याएं बीजेपी के सामने थीं। उनको लगा कि बीजेपी से सौदेबाजी का यही सही समय है। उन्होंने पहले इस्तेमाल किया रामविलास पासवान का। कहा कि सीटों को लेकर पहले बीजेपी का रामविलास पासवान से समझौता हो जाए। उसके बाद वह बीजेपी के साथ बात करेंगे।
पासवान, नीतीश की भाजपा से सौदेबाजी
रामविलास पासवान को बीजेपी चार सीटें देना चाहती थी लेकिन वह राजी नहीं हुए। उन्होंने भी मौके का फायदा उठाया छह सीटें लीं। साथ में एक राज्यसभा की सीट के लिए वादा लिया कि देश भर में बीजेपी की जो पहली राज्यसभा सीट खाली होगी उससे पासवान को राज्यसभा भेजा जाएगा। जब बिहार से सीट खाली हुई तो बीजेपी ने उनको राज्यसभा में भेजा भी। बिहार से लोकसभा की 42 सीटें हैं। एलजेपी को 6 सीटें देने के बाद 36 सीटें बची। अब नीतीश कुमार ने भाजपा से सौदेबाजी करना शुरू किया। उन्होंने कहा कि अगर हम कम सीटें लड़ेंगे तो इससे राज्य में हमारी राजनीतिक हैसियत कमजोर होगी जिसका लोगों में बहुत गलत संदेश जाएगा। बीजेपी इस बात को समझ रही थी कि वह अभी दबाव में है। वह नहीं चाहती थी कि दो-तीन सीटों को लेकर गठबंधन टूट जाए इसलिए बीजेपी ने यह कड़वा घूंट पी लिया। आधे-आधे पर समझौता हुआ। 18 सीटें बीजेपी और 18 जेडीयू को मिलीं।
2019 का पार्ट-2
बीजेपी सभी सीटों पर जीती और जेडीयू 16 सीटों पर जीता। लोकसभा में पूरे देश से अकेले बीजेपी की 303 सीटें आई। बीजेपी ने तय किया कि सहयोगियों को सरकार में शामिल किया जाएगा, हालांकि बहुमत की दृष्टि से इसकी कोई जरूरत नहीं थी। तय किया गया कि बड़ी पार्टियों को 1 कैबिनेट और 1 राज्य मंत्री पद मिलेगा और छोटी पार्टियों को एक मंत्री पद मिलेगा। जेडीयू इसके लिए तैयार नहीं था। जो कवायद हम अभी देख रहे हैं वह दरअसल- जो 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले और उसके बाद हो रहा था- उसी का पार्ट 2 है। यह जेडीयू की अपनी बारगेनिंग पावर बढ़ाने की कोशिश है। 5 सांसदों का जो ब्लॉक एलजेपी से अलग हुआ है वह हो सकता है जेडीयू में शामिल हो जाए। शामिल नहीं भी होगा तो वह चलेगा जेडीयू के कहने पर ही। जेडीयू के लोकसभा में 16 और राज्यसभा में 5 सदस्य हैं। एलजेपी से अलग हुए 5 लोकसभा सदस्यों को मिलाकर 26 सांसदों का एक ब्लॉक तैयार हो जाता है।
नीतीश का चीनी पैंतरा
एलजेपी में टूट इसी समय क्यों कराई गई? …क्योंकि केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार की खबर चल रही है। ऐसा माना जा रहा है कि बहुत जल्दी ही केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार होगा। मंत्रिमंडल में कई जगह खाली हैं। कई मंत्रियों पर दो-दो तीन-तीन मंत्रालयों का बोझ है। ऐसे में मंत्रिमंडल का विस्तार होना तय है और उसमें बहुत लंबा समय नहीं है। इसलिए यह ऑपरेशन करने की जेडीयू को जल्दी थी। अब उस बात पर आते हैं कि 2019 में केंद्र सरकार बनने के बाद जेडीयू मंत्रिमंडल में शामिल क्यों नहीं हुआ। पार्टी मंत्रिमंडल में शामिल होने को तैयार थी लेकिन जो फार्मूला बीजेपी बता रही थी वह नीतीश कुमार को मंजूर नहीं था। चीन की रणनीति का वह खास पैंतरा जिसकी पूरी दुनिया में चर्चा होती रहती है वह है- सलामी स्लाइसिंग का पैंतरा …यानी धीरे-धीरे आगे बढ़ो। नीतीश कुमार भी यही पैंतरा आजमाते हैं। अपने मकसद तक पहुँचने के लिए समय का मौके का इंतजार करते हैं और सही समय देखकर स्ट्राइक करते हैं। वह अपने साझेदारों से ऐसे समय पर अपनी मांग पूरी करवाते हैं जब वह मुश्किल में हो और लगे कि उसके पास उनकी मांग मानने के अलावा ज्यादा विकल्प नहीं बचे है। 2019 में सरकार में शामिल होने के लिए उन्होंने शर्त रखी थी कि बिहार से बीजेपी के जितने मंत्री बनेंगे उतने ही मंत्री जेडीयू से भी बनने चाहिए। यह बड़ी विचित्र मांग थी। अगर महाराष्ट्र में शिवसेना और दूसरे राज्यों में एनडीए के अन्य घटक दल भी इस प्रकार की मांग करने लगते तो क्या स्थिति होती। नीतीश कुमार ने कहा कि यह हमारे लिए इसलिए जरूरी है कि हमें अपने सामाजिक समीकरण का ध्यान रखते हुए मंत्रिमंडल में भागीदारी चाहिए। उस समय बिहार से भाजपा के 5 मंत्री बने थे तो जेडीयू को भी 5 मंत्री पद चाहिए थे। हो सकता है उनकी मांग इससे भी ज्यादा मंत्री पद की रही हो लेकिन कम से कम इतने तो उनको चाहिए ही थे। बीजेपी ने साफ इनकार कर दिया और कहा कि आपको एक कैबिनेट मंत्री और एक राज्य मंत्री पद मिल सकता है। इसके लिए आप तैयार हों तो ठीक है। नीतीश कुमार इसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने दूसरा दांव चला कि हमको सरकार में शामिल होने की जल्दी नहीं है, मंत्री पद का लालच नहीं है, हम तो गठबंधन और बिहार के हित में काम करना चाहते हैं। उनको मालूम था कि इस समय ज्यादा दबाव डालने से आगे होने वाले विधानसभा के चुनाव में मुश्किल हो सकती है। विधानसभा चुनाव में वह चाहते थे कि जेडीयू को अधिक सीटें मिले पर ऐसा हुआ नहीं। बीजेपी ने कड़ा रुख अपनाया और दोनों पार्टियों जेडीयू और बीजेपी को बराबर बराबर सीटें मिली। बल्कि बीजेपी को 1 सीट अधिक मिली। विधानसभा चुनाव का नतीजा आया तो कहानी कुछ दूसरी हो गयी। जदयू की सीटें घट गईं और इस हद तक घटीं कि बीजेपी से भी कम हो गईं। जब यह संतुलन बिगड़ गया तो नीतीश कुमार ने कहा कि जो बड़ी पार्टी है उसी का मुख्यमंत्री बने क्योंकि उसी का दावा बनता है। फिर उनको मुख्यमंत्री बनने के लिए मनाया गया। वह चाहते भी थे कि उनको मनाया जाए। बीजेपी को अच्छी तरह पता था कि अगर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनाएंगे तो वह सरकार चलने नहीं देंगे। इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि बिहार में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की सरकार तभी तक चल रही है जब तक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं। जिस दिन वह मुख्यमंत्री पद से हटेंगे सरकार गिर जाएगी।
परीक्षा की घड़ी
अब नीतीश कुमार का नया पैंतरा होगा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में उनको ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए क्योंकि अब उनके लोगों या उनके सहायक लोगों की संख्या बढ़ गई है। यह है नीतीश कुमार की चतुराई और टाइमिंग। पिछले पंद्रह बीस सालों में नीतीश कुमार की राजनीति या फिर जब से उन्होंने बीजेपी से गठबंधन किया है तब से अब तक की उनकी राजनीति इसकी मिसाल है। गठबंधन की राजनीति में- चाहे विधानसभा सीटों का मामला हो या लोकसभा और राज्यसभा की सीटों का- वह हमेशा अपेक्षा से अधिक हासिल करते रहे हैं। इसमें बीजेपी के नेता भी यह सोच कर उनकी मदद करते रहे हैं कि ऐसी छोटी बातों पर गठबंधन को खतरे में नहीं डालना चाहिए। इसका फायदा नीतीश कुमार को मिलता रहा है। अब एक परीक्षा की घड़ी है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को कितना दबा या झुका सकते हैं …और नीतीश के सामने ये दोनों राष्ट्रीय नेता कितना झुकने को तैयार होते हैं। मंत्रिमंडल के भावी विस्तार में जेडीयू के मंत्रियों की संख्या और उनको मिले विभागों से पता चल जाएगा कि किसकी कितनी चली। बीजेपी जेडीयू पर दबाव डालने में कामयाब रही या जेडीयू बीजेपी पर। एलजेपी के ताजा प्रकरण को सिर्फ एक पार्टी का मामला भर नहीं है। यह नीतीश कुमार का केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में भागीदारी के अपने मकसद को पूरा करने के लिए किया गया एक रणनीतिक ऑपरेशन है। उनकी सलामी स्लाइसिंग की रणनीति कितनी कामयाब रही इसका खुलासा बहुत जल्द होनेवाला है।