युद्धग्रस्त देश पर बढ़ता तालिबानी कब्जा और उसका भारत पर असर।
प्रमोद जोशी।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि अफगानिस्तान में करीब बीस साल से जारी अमेरिका का सैन्य अभियान 31 अगस्त को समाप्त हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि अब अफगान लोग अपना भविष्य खुद तय करेंगे। युद्ध-ग्रस्त देश में अमेरिका ‘राष्ट्र निर्माण’ के लिए नहीं गया था।
अमेरिका के सबसे लंबे समय तक चले युद्ध से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के अपने निर्णय का बचाव करते हुए बाइडेन ने कहा कि अमेरिका के चाहे कितने भी सैनिक अफगानिस्तान में लगातार मौजूद रहें लेकिन वहां की दुःसाध्य समस्याओं का समाधान नहीं निकाला जा सकेगा। बाइडेन ने बृहस्पतिवार 6 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा दल के साथ बैठक के बाद अफगानिस्तान पर अपने प्रमुख नीति संबोधन में कहा कि अमेरिका ने देश में अपने लक्ष्य पूरे कर लिए हैं और सैनिकों की वापसी के लिए यह समय उचित है।
We will never forget those who gave the last full measure of devotion for our country in Afghanistan – nor those whose lives have been immeasurably altered by wounds sustained in service.
We are ending America’s longest war, but we will always honor those who served in it.
— President Biden (@POTUS) July 8, 2021
एक और पीढ़ी युद्ध लड़ने नहीं भेज सकते
बाइडेन ने कहा कि पिछले बीस साल में हमारे दो हजार अरब डॉलर से ज्यादा खर्च हुए, 2,448 अमेरिकी सैनिक मारे गए और 20,722 घायल हुए। दो दशक पहले, अफगानिस्तान से अल-कायदा के आतंकवादियों के हमले के बाद जो नीति तय हुई थी अमेरिका उसी से बंधा हुआ नहीं रह सकता है। बिना किसी तर्कसम्मत उम्मीद के किसी और नतीजे को प्राप्त करने के लिए अमेरिकी लोगों की एक और पीढ़ी को अफगानिस्तान में युद्ध लड़ने नहीं भेजा जा सकता। उन्होंने इन खबरों को खारिज किया कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के तुरंत बाद तालिबान देश पर कब्जा कर लेगा। उन्होंने कहा, अफगान सरकार और नेतृत्व को साथ आना होगा। उनके पास सरकार बनाने की क्षमता है। उन्होंने कहा, सवाल यह नहीं है कि उनमें क्षमता है या नहीं। उनमें क्षमता है। उनके पास बल हैं, साधन हैं। सवाल यह है कि क्या वे ऐसा करेंगे?
इन सब बातों के क्या मायने
इस प्रकार अमेरिका ने अपनी सबसे लम्बी लड़ाई के भार को अपने कंधे से निकाल फेंका है। यह सच है कि 9 सितम्बर 2001 को न्यूयॉर्क के ट्विन टावर्स पर हमला करने वाला अल-कायदा अब अफगानिस्तान में परास्त हो चुका है, पर वह पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। उसके अलावा इस्लामिक स्टेट भी अफगानिस्तान में सक्रिय है। अल-कायदा को जमीन देने वाले तालिबान फिर से काबुल पर कब्जा करने को आतुर हैं। इन सब बातों को अमेरिका की पराजय नहीं तो और क्या मानें? अफगानिस्तान में अमेरिका ने जिस सरकार को बैठाया है, उसके और तालिबान के बीच सत्ता की साझेदारी को लेकर बातचीत चल रही है। यह भी सही है कि अमेरिकी पैसे और हथियारों से लैस काबुल की अशरफ ग़नी सरकार एक सीमित क्षेत्र में ही सही, पर वह काम कर रही है। अमेरिका सरकार तालिबान और पाकिस्तान पर एक हद तक दबाव बना रही है, ताकि हालात सुधरें, पर अभी समझ में नहीं आ रहा कि यह गृहयुद्ध कहाँ जाकर रुकेगा।
अमेरिका पूरी तरह नाकाम
अमेरिका की प्रतिष्ठा भी इन हालात से जुड़ी हुई है। क्या वह अशरफ ग़नी की सरकार को यों ही ध्वस्त हो जाने देगा? सच यह है कि सरकारी सेना परास्त हो रही है और उसके सैनिक भाग रहे हैं। ताजिकिस्तान और ईरान से खबरें हैं कि अफ़ग़ानिस्तानी सैनिकों ने वहाँ शरण ली है। इसी महीने अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ाई ने हिन्दू को दिए इंटरव्यू में कहा था कि अमेरिका अपने अफ़ग़ानिस्तान मिशन में पूरी तरह से नाकाम रहा है।
अफगानिस्तान सरकार की रणनीति
दूसरी तरफ तालिबान की विजय की कहानियाँ हवा में हैं, पर उन्होंने भी किसी बड़े शहर पर कब्जा करके पक्का नियंत्रण अब भी नहीं बनाया है। उनके बड़े नेता अब भी अफगानिस्तान से बाहर हैं। अफगानिस्तान सरकार की रणनीति बड़े शहरों पर कब्जा बनाए रखने की है, ताकि मानसिक रूप से शहरी निवासियों के मन में सुरक्षा का भाव बना रहे। बेशक तालिबानी देहाती इलाकों में पहले से काबिज थे, पर क्या वे सरकार चला पाएंगे? खबरें हैं कि वे दूसरे देशों की सीमा पर स्थिति चौकियों पर कब्जा कर रहे हैं, ताकि वहाँ से टैक्स वसूल सकें। या तो उनकी रणनीति धीरे-धीरे कब्जा बढ़ाने की है, या अभी उनके पास पूरे देश पर कब्जा करने की ताकत नहीं है। उनकी जीत की खबरें भी प्रचारात्मक ज्यादा हैं और वे पाकिस्तान से निकल रही हैं।
नागरिकों का जीवन दूभर
अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि तालिबान-नेतृत्व के भीतर की एकता किस हद तक है और अफगानिस्तान के कबीलों की स्थिति क्या है। जिन देशों की दिलचस्पी अफगानिस्तान में है, उनमें पाकिस्तान, चीन, रूस और ईरान सबसे महत्वपूर्ण हैं। इनके अलावा भारत की दिलचस्पी भी वहाँ है, क्योंकि भारत ने वहाँ दो अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश किया है। ज्यादा बड़ा सवाल है कि देश में स्थितियाँ जल्द स्पष्ट होंगी या इसमें समय लगेगा? यदि तालिबान सत्ता में आए, तो क्या फिर से मध्ययुगीन तरीके से सरकार चलेगी? स्त्रियों की दशा क्या होगी? किस प्रकार की इस्लामी व्यवस्था लागू होगी वगैरह। सन 2001 में अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद लगा था कि अब हालात सुधरेंगे। शुरू के वर्षों में ऐसा हुआ भी, पर हाल के वर्षों में सामान्य अफगान नागरिक का जीवन दूभर होता गया है। चरमपंथियों के हमले बढ़ते गए हैं।
तालिबान का दावा
तालिबान ने शुक्रवार 9 जुलाई को दावा किया था कि उसने अफ़ग़ानिस्तान के 85 फ़ीसदी इलाक़ों को अपने नियंत्रण में ले लिया है। तालिबान ने कहा था कि ईरान और तुर्कमेनिस्तान से लगी सीमा उसके नियंत्रण में है। तालिबान-प्रवक्ता ज़बीउल्ला मुजाहिद ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा कि उनके लड़ाकों ने ईरान से लगे शहर इस्लाम क़ला को अपने नियंत्रण में ले लिया है। हालांकि पूरे मामले पर अफ़ग़ानिस्तान की सरकार कुछ स्पष्ट नहीं कह रही है।
After days of fierce battle #AfghanArmy soldiers surrendered to #Taliban in spin Buldak district of #Kandahar , spin buldak is home town of Tadin khan and General razak pic.twitter.com/QP9k2yNuq0
— Hemat (@Himat75) July 12, 2021
भारत पर असर
रविवार को अंग्रेज़ी अख़बार ‘हिन्दू’ ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि तालिबान के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के कंधार स्थित अपने वाणिज्यिक दूतावास को अस्थायी रूप से बंद करने का फ़ैसला किया है। अख़बार के अनुसार भारतीय वायुसेना की एक फ़्लाइट से क़रीब 50 राजनयिकों और सुरक्षाकर्मियों को वापस लाया गया है। अख़बार से भारतीय अधिकारियों ने कहा कि भारत सरकार ने यह क़दम सतर्कता के तौर पर उठाया है। 1990 के दशक में कंधार में तालिबान का मुख्यालय था और ऐसी रिपोर्ट है कि तालिबान एक बार फिर से कंधार को अपने नियंत्रण में लेने की ओर बढ़ रहा है।
आसान नहीं होगा भारतीय दूतावास सुरक्षित रखना
अभी भारत का काबुल स्थित दूतावास और मज़ार-ए-शरीफ़ स्थित एक और वाणिज्य दूतावास बंद नहीं हुआ है। लेकिन विशेषज्ञ आशंका जाहिर कर रहे हैं कि तालिबान इसी तरह बढ़ता रहा तो काबुल में भी भारतीय दूतावास को सुरक्षित रखना आसान नहीं होगा। इसके पहले भारत ने पिछले साल कोविड-19 के प्रसार के कारण जलालाबाद और हेरात के वाणिज्य दूतावास बंद कर दिए थे। हाल में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने अफ़ग़ानिस्तान के न्यूज़ चैनल ‘टोलो न्यूज़’ को दिए इंटरव्यू में कहा था कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान की सरहद नहीं लगती है, फिर भी भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में चार-चार वाणिज्यिक दूतावास खोल रखे हैं।
काम करता रहेगा वाणिज्य दूतावास
रविवार को भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा, अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ती सुरक्षा चिंताओं पर भारत की नज़र बनी हुई है। हमारे कर्मियों की सुरक्षा सबसे अहम है। कंधार में भारतीय वाणिज्य दूतावास बंद नहीं हुआ है। हालाँकि कंधार शहर के नजदीक बढ़ती हिंसा के कारण भारतीय कर्मियों को वापस लाया गया है। यह अस्थायी क़दम है। स्थानीय कर्मचारियों के ज़रिए वाणिज्य दूतावास काम करता रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान हमारा अहम साझेदार है और भारत उसकी संप्रभुता, शांति और लोकतंत्र को लेकर प्रतिबद्ध है।
कंधार के 7 जिले तालिबान के कब्जे में
भारतीय वाणिज्य दूतावास-कर्मियों की वापसी की ख़बर को पाकिस्तानी मीडिया में प्रमुखता से जगह मिली है। डॉन और द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने इस प्रमुखता से छापा है। अफ़ग़ानिस्तान के टोलो न्यूज़ ने लिखा है कि शुक्रवार को तालिबान ने कंधार पर हमला शुरू किया और कम से कम दो सुरक्षा चौकियों को अपने नियंत्रण में ले लिया है। टोलो न्यूज़ के अनुसार तालिबान ने कंधार के सात ज़िलों को अपने नियंत्रण में ले लिया है।
भारत का भारी निवेश
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान की आधारभूत संरचना के निर्माण में भारी निवेश किया है। यह सब अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी और लोकतांत्रिक सरकार होने के कारण संभव हो पाया था। कहा जा रहा है कि अब जब तालिबान के हाथ में अफ़ग़ानिस्तान की कमान आएगी तो भारत के लिए राह आसान नहीं रह जाएगी। तालिबान और पाकिस्तान के संबंध हमेशा से विवादित रहे हैं लेकिन तालिबान अब तक भारत के ख़िलाफ़ रहा है। यह एक जाहिर तथ्य है। ऐसे में भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का आना किसी झटके से कम नहीं है। दूसरी तरफ भारत ने तालिबान के साथ भी सम्पर्क बनाया है और बहुत से पर्यवेक्षक मानते हैं कि तालिबान अब परिपक्व हैं। वे अपने देश के निर्माण में भारत के सहयोग का स्वागत करेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सौजन्य: जिज्ञासा)