प्रदीप सिंह।

सात साल के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के लिए राजनीतिक अग्नि परीक्षा का समय आ गया है। किसी राजनीतिक फैसले के लिए इतनी कठिन परीक्षा की घड़ी शायद उनके सामने पहले कभी नहीं आई। इन दोनों नेताओं ने मिलकर पिछले सात सालों में भारतीय जनता पार्टी का पूरी तरह से कायाकल्प कर दिया है। पार्टी का सामाजिक आधार, सोचने का ढंग, सरकारों के काम करने का ढंग, छवि- सब कुछ पूरी तरह से बदल दी। खास बात यह कि यह सब करते हुए उन्होंने पार्टी की मूल विचारधारा यानी कोर आईडियोलॉजी से कोई समझौता नहीं किया। उससे डिगे नहीं। जैसा कि हमने 1998 में देखा कि सरकार बनाने के लिए पार्टी के मूल मुद्दों को पीछे कर दिया गया था- इस बार वैसा नहीं किया गया।


कभी लगभग असम्भव लगता था यह सब

जम्मू कश्मीर से 370 और 35ए को हटाया। तीन तलाक पर कानून ले आए। राम जन्मभूमि का मामला सुप्रीम कोर्ट से सुलट गया और राम मंदिर बनना शुरू हो गया है। किसी को उम्मीद नहीं थी कि अगले दस-बीस-पचास साल में भी ऐसा हो पाएगा। ये सब काम इस तरह से किए गए कि आज पीछे मुड़कर देखने पर वह सब बहुत आसान लगता है। इसी तरह से पार्टी में भी कई काम हुए हैं। लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को रिटायर करना कोई आसान काम नहीं था। जो आज बहुत सहज लगता है वह दरअसल बहुत ही कठिन काम था। खासतौर से लालकृष्ण आडवाणी… आज पार्टी में जो भी दूसरी पीढ़ी के नेता हैं उन्होंने उनको बनाया और खड़ा किया है। पार्टी 75 साल से ऊपर के किसी व्यक्ति को मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी- यह फैसला करना और उसको लागू करवाने का काम भी मोदी-शाह ने किया। एक दो अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर मामलों में उन्होंने इसे लागू करवाया। इसी तरह आर्थिक मोर्चे पर सरकार ने कुछ बड़े कदम उठाएं और कड़े फैसले किए। नोटबंदी, जीएसटी, बैंकरप्सी कानून- ऐसे फैसलों की एक लंबी सूची है।

असली अग्निपरीक्षा

Modi, Shah rallies in Bengal today; Adhikari's father may join BJP | Latest News India - Hindustan Times

अभी एक समस्या है जो मोदी और शाह की राजनीतिक अग्निपरीक्षा होगी। मुख्यमंत्रियों के चयन और नियुक्ति में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। उनको बदलना चाहा तो उसमें भी कोई समस्या नहीं हुई। लेकिन क्या कर्नाटक में भाजपा बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटा पाएगी? ऐसा नहीं है की येदियुरप्पा इसको लेकर कोई विरोध या विद्रोह कर रहे हैं। ऐसी स्थिति नहीं है। कर्नाटक में पार्टी में चल रही गुटबाजी के कारण ही येदियुरप्पा को नहीं हटाया जा रहा है।  वह एक अलग विषय है जिसका इस फैसले से कोई सीधा संबंध नहीं है। येदियुरप्पा को हटाने के बहुत से कारण है। एक बड़ा कारण है उनकी बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य। पार्टी को दिख रहा है कि कर्नाटक में 2023 में जब अगला विधानसभा चुनाव होगा उस समय तक येदियुरप्पा 80 वर्ष की उम्र पार कर चुके होंगे। 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद जब 2019 में वह मुख्यमंत्री बने तो 75 वर्ष की आयु सीमा को देखते हुए वह एक अपवाद था। उस समय अगर येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनने दिया गया तो इसका सबसे बड़ा कारण था कि कर्नाटक में पार्टी को जमीन से आज के स्तर तक पहुंचाने में उनका सबसे बड़ा योगदान रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए उनको हटाना इतना आसान नहीं है। यह जोखिम एक बार पहले भी उठाया जा चुका है। आडवाणी जी के समय में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था। फिर उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी जमीन पर आ गई।

लिंगायत समाज का प्रभाव

कर्नाटक का अपना इतिहास है। वहां लिंगायत समाज की आबादी 16 फ़ीसदी है। बाकी जाति समूहों की बात करें तो वह सबसे बड़ा जाति समूह है। यूं तो 16 फ़ीसदी आबादी इतनी बड़ी नहीं है जिस पर सब कुछ निर्भर हो। लेकिन लिंगायत समूह का प्रभाव अपनी आबादी के मुकाबले बहुत ज्यादा है। कर्नाटक में चार हजार से ज्यादा मठ है। उनमें से ज्यादातर वीरशैव लिंगायत समाज के हैं। लिंगायतों का वहां के समाज पर व्यापक असर है। उनके कई शैक्षणिक व वित्तीय संस्थान हैं। इसके अलावा वे अन्य कई प्रकार की संस्थाएं चलाते और सामाजिक कार्य करते हैं। इसलिए उनके प्रभाव का दायरा बहुत बड़ा है। कर्नाटक में कुल 224 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 140 पर लिंगायतों की उपस्थिति है। 90 सीटें ऐसी हैं जहां वे निर्णायक भूमिका में हैं। राजीव गांधी ने 1989 में वीरेंद्र पाटिल को अपमानित करके मुख्यमंत्री पद से हटाया था। उसके बाद लिंगायतों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। फिर उनके वोट उसके बाद कांग्रेस को नहीं मिले। इस घटना को तीन दशक से ज्यादा समय हो चुका है। कांग्रेस इस उम्मीद में रहती है कि उसे लिंगायत का वोट मिले पर वह मिला नहीं। इसलिए इस मौके का फायदा कांग्रेस पार्टी भी उठाना चाहती है।

सब तरफ जोखिम

How BJP navigated caste politics to regain Karnataka

तो कर्नाटक में मोदी और शाह के लिए मुश्किल क्या है? मुश्किल यह नहीं है कि यह येदियुरप्पा पद छोड़ने से इंकार कर रहे हैं। वह दिल्ली आए थे और पार्टी नेताओं से बात करके वापस गए। वह पद छोड़ने के लिए तैयार हैं। 26 जुलाई को उनकी सरकार के इस कार्यकाल के दो साल पूरे हो रहे हैं। उन्होंने उस दिन विधायक दल की बैठक भी बुलाई है। उम्मीद की जा रही है कि वह बैठक में इस्तीफा दे देंगे। लेकिन इस बीच दूसरे घटनाक्रम भी तेजी से चल रहे हैं। वीरशैव लिंगायत मठों के संत आकर येदियुरप्पा से मिल रहे हैं। दो दिन पहले 12 मठों के संत उनसे मिले और पूछा कि- हुआ क्या है? येदियुरप्पा ने उनसे कहा कि मैं पार्टी हाईकमान के फैसले को मानने से इनकार नहीं कर सकता। मुझे उनका फैसला मानना पड़ेगा। इससे आगे येदियुरप्पा ने संतों को कुछ भी बताने से मना कर दिया। उधर मठों की ओर से कहा गया है कि संत लोग येदियुरप्पा के साथ खड़े हैं। अखिल भारतीय वीरशैव महासभा इन सभी मठों का एक अंब्रेला संगठन है जिसके अध्यक्ष कांग्रेस नेता शिव शंकरप्पा हैं। उन्होंने कहा कि जब तक येदियुरप्पा कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं तब तक बीजेपी कर्नाटक में है। जिस दिन वह मुख्यमंत्री पद से हट जाएंगे उसी दिन बीजेपी कर्नाटक से चली जाएगी।

नेतृत्व बदल जाए और कोई नाराज भी ना हो

बीजेपी को पता है कि अगर यह संदेश गया कि येदियुरप्पा को अपमानित करके या उनकी मर्जी के खिलाफ हटाया गया है, तो इसका बहुत बड़ा राजनीतिक नुकसान होने वाला है। इस मामले में मठों की भूमिका का हाल यह है कि उन्होंने बंगलुरु में अगले कुछ दिनों में तीन- चार सौ संतों की सभा करने का ऐलान किया है जिसमें येदियुरप्पा का समर्थन किया जाएगा। उधर बीजेपी का आंतरिक समीकरण ऐसा है कि दो विधायक लिंगायत समाज से आते हैं जो येदियुरप्पा के खिलाफ हैं। लेकिन यह कोई बड़ी बात नहीं है। मुख्यमंत्री के रूप में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान येदियुरप्पा ने इन मठों और दूसरे धार्मिक संस्थानों को खुलकर अनुदान दिया था जिसका उनको बहुत फायदा मिला है। इसके अलावा एक और कारण यह है कि येदियुरप्पा के छोटे बेटे इन मठों के संपर्क मैं हैं और उनसे सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। वह भी येदियुरप्पा के लिए समर्थन जुटा रहे हैं। इसलिए कर्नाटक में येदियुरप्पा को बदलने का फैसला करना मोदी और शाह के लिए बहुत कठिन होगा। अभी तक इतना हुआ है कि 26 जुलाई को येदियुरप्पा ने विधायकों के लिए जो डिनर रखा था उसे स्थगित करने को कहा गया है। सवाल यह है कि क्या बीजेपी उनको हटा पाएगी? क्या मोदी-शाह लिंगायत समाज को नाराज किए बिना कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन कर सकते हैं? फिर एक बड़ा सवाल यह भी आएगा कि अगला मुख्यमंत्री कौन हो? एक बड़ा दबाव होगा कि इसी लिंगायत समाज से किसी और को मुख्यमंत्री बनाया जाए। दूसरी और पिछले सात सालों में पार्टी की नीति रही है कि मुख्यमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाए जो किसी प्रभावशाली जाति समूह से ना आता हो। चुनौती यह है कि नेतृत्व परिवर्तन के साथ साथ जनाधार भी बना रहे। खासतौर से लिंगायत समुदाय भाजपा से जुड़ा रहे।

कांग्रेस को दिख रहा मौका

Lingayat pontiffs 'support' Siddaramaiah, ask BJP to back minority religion claim - The Economic Times

इस सारे घटनाक्रम को देखते हुए कांग्रेस पार्टी को अपने लिए अवसर नजर आ रहा है। अचानक कांग्रेस के लिंगायत और दूसरे नेता भी, येदियुरप्पा के समर्थन में खड़े हो गए हैं कि उनका अपमान बर्दाश्त नहीं करेंगे। कांग्रेस को लग रहा है कि यह उनका वीरेंद्र पाटिल मूवमेंट है। जिस तरह वीरेंद्र पाटिल को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था उससे नाराज होकर लिंगायत बीजेपी के साथ चले गए थे। कांग्रेस को लग रहा है कि अब एक मौका आया है। अगर इस समय उसने अपने पत्ते ठीक से खेले तो हो सकता है कि लिंगायत समुदाय बीजेपी से नाराज होकर कांग्रेस के पास चला आये। अभी तक इस प्रकार की राजनीतिक समस्या मोदी-शाह के सामने नहीं आई थी। यह अपने किसी विरोधी दल से लड़ने का सवाल नहीं है, चुनाव जीतने का सवाल भी नहीं है क्योंकि कर्नाटक में चुनाव अभी दो साल बाद होंगे। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि येदियुरप्पा किस तरह से जाते हैं।

दक्षिण का अकेला द्वार

Loyal worker of BJP, says BS Yediyurappa amid leadership change buzz in Karnataka

भाजपा को पता है कि कर्नाटक पार्टी के लिए दक्षिण का अकेला द्वार है। अभी पुदुचेरी में पार्टी साझा सरकार में शामिल हुई है- वरना दक्षिण के किसी अन्य राज्य में पार्टी को सत्ता के करीब तक पहुंचने का अवसर नहीं मिला है। ऐसे में वह दक्षिण के इस राज्य में अपना जनाधार नहीं खोना चाहेगी- लेकिन कैसे? क्या येदियुरप्पा खुश होकर जाएंगे। क्या भाजपा उनकी सभी शर्तें मान लेगी। वह चाहते हैं कि उनके दोनों बेटों को एडजस्ट किया जाए। उनकी करीबी शोभा करंदलांजे को केंद्र में मंत्री बना दिया गया है- यह उन्हीं की शर्तों के मुताबिक था। उनके दोनों बेटों के एडजेस्टमेंट को लेकर पार्टी में ऊहापोह है क्योंकि अभी तक ऐसा हुआ नहीं कि पिता पुत्र दोनों को पद दिया जाए। हालांकि येदियुरप्पा के छोटे बेटे कर्नाटक भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष हैं। उनका बड़ा बेटा सांसद है। इसके बावजूद लगता है कि येदियुरप्पा अपने बड़े बेटे को केंद्रीय मंत्रिमंडल में और छोटे बेटे को राज्य के मंत्रिमंडल में शामिल कराना चाहते हैं। क्या उनकी ये सब मांगे मानी जाएंगी। सवाल यह भी है कि भाजपा कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का काम येदियुरप्पा को मना कर करेगी या झुकाकर। दोनों के संदेश अलग-अलग जाएंगे। इसलिए यह बहुत बड़ी राजनीतिक चुनौती है। यह मामला इतनी आसानी से हल होने वाला नहीं है। लेकिन बड़े नेताओं की परीक्षा ऐसे ही बड़े फैसलों के समय में होती है। नलनी विभा नाज़ली का शेर है-
वो इम्तिहान में जब हम को डाल देता है/ जो ला-जवाब हों ऐसे सवाल देता है।
कर्नाटक में क्या फैसला होता है और उसका नतीजा क्या होता है- इसका इंतजार करते हैं।