सत्यदेव त्रिपाठी।
मुझ पर असर की बात मेरे लिए ही अनिवर्चनीय है। दुबे के साथ ही ‘मधुमती’ देखी थी। डाकखाने की नौकरी मिले कुछ महीने ही हुए थे। कुछ पैसे इकट्ठा करके मां-बहनों-भांज़े-भांजियों के लिए कुछ लेके घर जाने की मंशा थी, लेकिन न जाने क्या हुआ, उस शाम इतना बेचैन हुआ कि दूसरे दिन ऑफ़िस में दस दिनों का मेडिकल भेज दिया और चालू डिब्बे में बैठ कर गाँव भाग गया। उस पीड़ा को आज तक बता नहीं सकता… तब घर पे मां-बहनों व गाँव को भी नहीं बता सका था कि नयी-नयी नौकरी से इस तरह कैसे और क्यों भाग आया!
दिलीप कुमार की फ़िल्म देखने मुझे अकेले न जाने दिया
लेकिन इससे बड़ा हादसा कुछ दिन बाद हुआ। तब नौकरी के साथ खालसा कॉलेज में बी.ए. में दाख़िला ले चुका था और फ़ुफ़ेरे बड़े भाई श्रीधर तिवारी के साथ रविवार के दिन शाम को घाटकोपर में ‘देवदास’ देख रहा था। पारो-वियोग के बाद शराब में धुत दिलीप कुमार जिस तरह गहरी वेदना से तिक्त, सुर्ख़ डोरों भरी सूनी आँखों से किसी भी एक तरफ़ अपलक देखते हैं, तो देखते रह जाते हैं… उस सबका जाने क्या असर पड़ा कि मध्यांतर में हम चाय पीने चले और दो-चार लौंडे मुझे मारने के लिए अपनी सीटों से उठकर लपके। मुझे कुछ भान भी न हुआ… कि तब तक लम्बी-भारी देह-यष्टि वाले भैया बीच में आ गये… पता लगा कि उनके और साथ बैठी लड़की के मुताबिक़ मैं लड़की को घूर रहा था। भैया मेरी दीवानगी जानते थे… रविवार की सुबहों को उठकर छह लोगों के लिए दाल-भात-भाजी बनाके 9 बजे के ख़ास (स्पेशल) शो में दिलीप कुमार की फ़िल्म देखने जाते देखते थे, बात-बात पर दिलीप कुमार के संवाद सुन-सुन के ऊब चुके थे, ‘मधुमती’ के बाद गाँव भाग जाने वाला हादसा रोक न सके थे। लिहाज़ा उन बच्चों को समझाया- ‘भाई, वह किसी को नहीं देख रहा है। दिलीप कुमार के नशे में है’। कुछ अहसास मेरे चेहरे व आँखों ने भी कराया होगा… मामला शांत हो गया। उस दिन भैया न होते, तो जाने क्या होता! कुछ गड़बड़ मेरी आँखों की ख़ामी के चलते किंचित तिर्यक देखने ने भी की होगी। लेकिन उस दिन के बाद जब तक भैया के साथ रहा, उन्होंने दिलीप कुमार की फ़िल्म देखने मुझे अकेले न जाने दिया। किसी को साथ लगा देते। कुछेक बार तो अपने ट्यूशन वग़ैरह छोड़कर खुद भी आये, पर फ़िल्म देखने से न रोका- ऐसे लोग, ऐसे रिश्ते भी अब कहाँ रहे!
कालजयी दिलीप कुमार-1: हमारे बाद इस महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे
जनश्रुतियों का योगदान
वही कालखंड किंवदंतियों से रू-ब-रू होने का भी था, क्योंकि मुख्य धारा से बाहर हम उस तबके में थे, जहां इन सितारों के जीवन की बातें तथ्यों से नहीं, इनके मुरीदों के मन-गढ़न्त वाक़यों से बनती हैं- ठीक वैसे ही जैसे ‘मैला आँचल’ के गाँव के लिए गांधीजी में ऐसी ताक़त थी कि अंग्रेजों के गोले-बारूद भी उनके शरीर पर बेअसर हो जाते थे। लेकिन उनका उल्लेख इसलिए ज़रूरी है कि आज दिलीप साहब पुराण (लीजेंड) बन गये हैं और पुराणों की निर्मिति में जनश्रुतियों का योगदान सबसे ज्यादा होता है- पुराण बन जाने का असली मतलब व परमान ही है- जन सामान्य तक पहुँच जाना। और यह काम किंवदंतीकार विषय को देखने-बखानने के बीच उसकी प्रवृत्तियों के बिलकुल अनुरूप अपनी लोक-कल्पना के पेबंद इस बारीकी और कौशल से लगाता है कि वह अपनी रोचकता में असल के भी कान काट ले। उदाहरण के तौर पर फ़िल्म ‘संघर्ष’ को लेकर किंवदन्ती (या सचाई) यह बनी कि कुंदन (दिलीप कुमार) की पट्टीदारी के दो भाइयों में बड़े भाई गनेसी की जो भूमिका बलराज साहनी ने की, उसके लिए राजकुमार को लिया जाना था, जिसे सुनकर दिलीप कुमार ने फ़िल्म छोड़ देने की धमकी दे दी। मै इस बात से बेहद खुश हुआ कि अच्छा हुआ निर्देशक ने दिलीप साहब की बात मान ली और उन्हें ही नहीं बदल दिया, वरना ‘मोरे पैरों में घुँघरू बंधा दे’ वाले गाने पर दिलीप साहब के झमाकेदार अभिनय से तो हम वंचित रह ही जाते, एक संवाद भी ऐसा है, जिस पर फ़िदाई का मेरा मामला ज़ोरदार है। मेले में बिछड़ी बचपन की बालसखी मुन्नी जवान होकर नर्तकी वैजयंतीमाला बनकर तब नमूदार होती है, जब वही दोनो पट्टीदार भाई (बलराज साहनी व संजीव कुमार) शराब में ज़हर मिलाकर कुंदन (दिलीप) को पिलाना चाहते हैं और यह काम करने के लिए महसूल देकर मुन्नी को बुलाया गया था। लेकिन नाचते-नाचते वह अपने बाल सखा को पहचान जाती है और ज़हर वाला गिलास बदलकर संजीव कुमार को दे देती है। पार्टी के बाद नशे में झूमते-लड़खड़ाते कुंदन घर जा रहे हैं और पीछे से छिपकर मुन्नी उन्हें धीमे-धीमे बुलाती है। तब दिलीप कुमार भुनकते हैं- ‘जीयो द्वारका, क्या चीज़ पिलायी है… जो मन में है, उसकी आवाज़ भी सुनायी पड़ने लगी’! और इस छोटे से वाक्य में अनंत वियोग की वह कसक, लरिकइयवाँ के प्यार की वेदना और नशे में घुली रूमानियत यूँ घुमड़कर ढरक पड़ी है कि कलेजा चीर भी देती है, तर भी कर देती है… यूसुफ़ भाई ही कर सकते हैं यह कमाल।
राजकुमार और दिलीप कुमार
राजकुमार के सामने भूमिका छोड़ने की इस किंवदंती का मर्म यही है कि हमारे दुबे की तरह बहुतों का मानना रहा कि राजकुमार के सामने कोई टिकता नहीं था, लेकिन ‘काजल’ में धर्मेंद्र, ‘दिल एक मंदिर’ में राजेंद्रकुमार, वक़्त’ व ‘हमराज’ में सुनीलदत्त, ‘मेरे हुज़ूर’ में जीतेंद्रकुमार, ‘मर्यादा’ में राजेश खन्ना… आदि जितनों को मैंने देखा, कोई भी अपनी भूमिका में ऐसे उखड़ते मुझे नज़र नहीं आया। फिर दिलीप कुमार के यूँ उखड़ने व डरने का सवाल ही नहीं था। लेकिन किंवदन्ती दिलीप कुमार को ही लेकर बनी, जिसका आधार था- ‘पैग़ाम’ को लेकर बना अफ़साना, जिसमें राजकुमार द्वारा दिलीप कुमार को एक झापड़ मारने का दृश्य है। इसके औचित्य व मारने की बेजा तेज़ी को लेकर मन-मुटाव हुआ भी था। और इन सबको सिद्ध कर देता था यह इतिहास कि दोनो ने 32 सालों तक साथ काम नहीं किया। और जब कार्य-काल (कैरियर) के अंतिम दौर में साथ आये ‘सौदागर’ में, तो सुभाष घई को बहुत बड़ा जोखम लेने की ढेर सारी चेतावनियाँ मिली थीं, लोगों ने बहुत हड़काया था कि फ़िल्म पूरी न होगी। इन सब कथित-घटित के बीच दिलीप साहब का सच तो यह है ही कि जिस अपने समकालीन व समकक्ष अभिनेता के साथ एक बार काम किया, फिर लगभग नहीं किया। राजेंद्र कुमार की तो एक छोटे से किरदार के रूप में शुरुआत ही हुई थी दिलीप कुमार के सह-अभिनेता के रूप में- फ़िल्म ‘जोगन’ में। नरगिसजी थीं नायिका। फिर साथ न आये कभी। राजकपूर तो हमवतन थे, सहपाठी (कॉलेजमेट) थे, उनके साथ काफ़ी शुरू में ही किया ‘अन्दाज़’, जो हिट भी हुई, लेकिन फिर कभी साथ काम न किया। सबसे त्रासद हादसा देवानंद साहब के साथ हुआ, जो इस दुनिया के सबसे अविवादित लोगों में प्रमुख थे। दोनो ने ‘इंसानियत’ (1955) के बाद फिर कभी साथ काम न किया। दोनो में कभी बोलचाल तक न हुई, जिसकी अन्य वजहों में विषयांतर के डर से अभी नहीं जाना है। अभी यह बात पूरी हो जाये कि कुछ तो ऐसा था, जो दिलीप कुमार के साथ ही होता था और यही वह अवकाश (स्पेस) देता था लोगों को, जिससे ऐसी किंवदंतियाँ या अफ़साने बनते थे, जो पुरलुत्फ़ तो हैं ही, कला की जानिब से महान कलाकार के लक्षण भी हैं।
अमिताभ बच्चन… 32 रीटेक
दूसरी ठोस किंवदंती फ़िल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ बच्चन को लेकर बनी कि उसमें अमिताभ बच्चन से कहे अपने संवाद के बाद दिलीप कुमार उनकी तरफ़ देखते होते और अमितजी को संवाद बोलना था…, लेकिन वे दिलीप साहब के देखने को देखते रह जाते और अपना संवाद भूल जाते- 32 रीटेक हुए। अधिकतम तथ्य दो-चार रीटेक तक शायद हो सकता है, पर 32 का आँकड़ा जितनी बड़ी अतिशयोक्ति है, अपने प्रिय कलाकार की उतनी ही बड़ी गरिमा की नियामक भी। जिस तरह ऐरे-ग़ैरे को मारकर नहीं, त्रिलोक के महान विजेता रावण को मारकर रामका रामत्व शीर्ष पर पहुँचता है, उसी प्रकार आधुनिक सिनेमा के सबसे बड़े सितारे के 32 रीटेक से दिलीप कुमार के मुरीदों की जानिब से उनकी ऊँचाई आसमान छूती है। ऐसी मार्मिक और निरापद अत्युक्तियाँ, जिसे सुनकर अमिताभ बच्चन भी लहालोट हो जाएँ, लोक मानस की फ़िदाई की जितनी बड़ी साखी हैं, उनकी कल्पना-शक्ति की उर्वरता (पोटेंसियलिटी) की उतनी ही बड़ी प्रमाण भी हैं। और अमिताभ से लेकर शाहरुख़ खान तक के तमाम लोगों में दिलीप कुमार के अभिनय व उनकी अदा के अक्स बहुत साफ़ हैं। शाहरुख़ के सम्बंध तो निजी जीवन में भी दिलीपजी के साथ काफ़ी घरेलू व पारिवारिक हुए, जिसके मूल में उनके अभिनय के प्रति शाहरुख़ की अपार मुतासिरी ही रही। और वैसे तो दिलीप साहब के अदा-ओ-अन्दाज़ की छापें कुछ न कुछ सबमें मिल जाती हैं।
तुलसी को कवि न मानने वाला शख़्स
लेकिन देखने-समझने का असली मज़ा तब आया, जब चेतना कॉलेज पहुँचा और दिलीप साहब का परम दीवाना, सागर विवि से हिंदी में एम.ए.तथा हिंदी-मराठी का ठीकठाक समीक्षक अविनाश सहस्रबुद्धे (लायब्रेरियन) और अंग्रेज़ी अध्यापक व अंग्रेज़ी फ़िल्मों के रसिया जी.एफ. वासवानी से गाढ़ी दोस्तियाँ हुईं। वासवानी के कारण कुछ बड़ी अच्छी अंग्रेज़ी फ़िल्में अवश्य देखने के अवसर मिले, लेकिन वह हमारे साथ के लिए बतौर टाइम पास हिंदी फ़िल्में देखने आ जाता। भगवान (अलबेला वाले) का दीवाना था। जब नशे में आ जाता, तो सड़क पर भी भगवान वाला नाच नाचते हुए ‘बजे रात के बारा, हाय तेरी याद ने मारा’ गाने लगता… तब सचमुच रात के 12 बजे भी होते। परंतु मेरी व अविनाश की रुचियाँ छनने लगीं, हममें बहसें छिड़ने लगीं। दिलीप कुमार की फ़िल्मों जितना ही दीवाना वह कबीर, निराला, मुक्तिबोध और धूमिल का था। असल में हिंदी साहित्य में इन्हीं चार को ही कवि मानता था और पूरे फ़िल्म जगत में कलाकार तो सिर्फ़ दिलीप साहब को मानता था। आप कह सकते हैं कि उसकी पसंद व मूल्यांकन का दायरा कितना तंग था, पर अपनी संवेदनात्मक वैचारिकी के प्रति उसकी जुनूनी प्रतिबद्धता कितनी खाँटी रही होगी कि तुलसी को कवि न मानने वाला शख़्स भी मेरा दोस्त रहा, क्योंकि दिलीप साहब की सर्वोच्च चोटी पर हम साथ थे। उनकी अभिनय की ख़ासियतों के द्वार मुझे शुरू-शुरू में उसी से विमर्श करते हुए खुलने-दिखने शुरू हुए।
एक अनकही, पर बेहद उत्सुक होड़
इन सबसे गुजरने के बाद कहने लायक़ हुआ और अब कह सकता हूँ कि देव-दिलीप-राज की मशहूर तिकड़ी में सभी खुद से बड़ा अभिनेता किसी को समझते न थे। राज तो चार्ली चैप्लिन को मान देते भी थे, लेकिन बाक़ी दोनो किसी को नहीं। देवानंद जितने बिंधास (उन्मुक्त) थे, दिलीप उतने ही आत्मसजग। राजकुमार की गणना इसमें नहीं होती थी, लेकिन तमाम दर्शकों व चर्चाओं में उनके दबंग अन्दाज़ एवं बुलंद आवाज़ का बोलबाला था। और दिलीप कुमार के साथ एक अनकही, पर बेहद उत्सुक होड़ सबकी हुआ करती थी, क्योंकि अभिनय तो भले ही सबका अपने-अपने अन्दाज़ व अपनी-अपनी तरह का बेजोड़ था, लेकिन बिना प्रशिक्षण के भी स्वनिर्मित रीतिसिद्ध अभिनय (मेथड ऐक्टिंग) का जो कौशल दिलीप साहब के पास था, वह वैसा किसी के पास नहीं था। ‘मेथड ऐकर’ नाम या विशेषण शायद सिने-संसार की अज़ीम हस्ती सत्यजित रे का दिया हुआ है। वे भी इनकी अदाकारी को इसी रूप में मान देते। जिस तरह बोलते हुए दिलीप कुमार कथनीय के मुताबिक़ उर्दू भाषा के अपने अनुकूल तलाशे वाजिब शब्दों को अर्थ की तुला पर खरादते व अभिव्यक्ति की जानिब से तराशते थे, फिर अपने अन्दाज़-ओ-आवाज़ में बोलते नही, रचते थे… कि भाषा अलग तरह से बोलने लग जाती थी- वाणी का श्रिंगारहो जाती थी…, उसी तरह अपेक्षित बात को अभिनय में उतारते हुए उसमें निहित भावों-विचारों के उपयुक्त क्रियाओं-गतियों-अंदाज़ों को जुहाते थे और सबको एक अद्भुत संगति में पिरोकर तदनुकूल वाणी व अदा के साथ प्रस्तुत करते, जिसमें प्रवाह व ठहराव (पॉज) का संतुलन लाजवाब होता। यह संगति व संतुलन विषय व भाव के मुताबिक़ पूरी तैयारी के साथ बनता और हर फ़िल्म में चरित्र के मुताबिक़ अलग-अलग होता तथा इसी से सबके सर चढ़कर बोलता। उनके लगभग सभी दृश्य इस कला-कौशल की संगति से बने सौंदर्य के मानक हैं, जिसमें ‘देवदास’ फ़िल्म का चंद्रमुखी के सामने ‘कौन कम्बख़्त बर्दाश्त के लिए पीता है…’ से शुरू हुए काफ़ी लम्बे एकल संवाद का उदाहरण अक्सर दिया जाता है, जो है भी अद्भुत। (जारी)