स्मृतिशेष/ पद्मा सचदेव।
वह बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं, मुस्कुराती नहीं ठहाके मारकर हंसती थीं, लेखिका के साथ-साथ एक अच्छी मेजबान भी थीं, बातों में कठोर लेकिन उतनी ही संवेदनशील, बेखौफ, बेपरवाह। हर उस मुद्दे पर बात करती थीं जो देश के लिए संवेदनशील था। पर अब वह हमसे क्या किसी से भी कभी बात नहीं करेंगी। भारतीय कवयित्री, उपन्यासकार और डोगरी भाषा की पहली आधुनिक कवयित्री पद्मा सचदेव (17 अप्रैल 1940 – 4 अगस्त 2021) को 2016 में डोगरी में लिखी उनकी आत्मकथा ‘चित्त चेते’ के लिए सरस्वती सम्मान प्रदान किया गया था। उस मौके पर उनके साहित्यिक सफर और दूसरे तमाम मुद्दों पर निशा शर्मा ने उनसे लम्बी बातचीत की थी, जिसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं।
लिखना कब से शुरू किया?
लोक गीतों से शुरू हुआ मेरा लेखन। 1947 में मेरे पिता जी नहीं रहे। एक साल बाद जब पिताजी की बरसी के लिए ताऊ जी हमें गांव ले गए, तो वहां डोगरी लोक गीतों से मेरा साबका पड़ा। मैं समझती हूं कि मुझे लोक गीतों से बहुत मिला। उस समय जो डोगरी का लोक गीत चल रहा होता था तो उसमें मैं छंद जोड़ देती थी, बस ऐसे ही शुरू हुआ मेरा लेखन।
क्या चीजें प्रोत्साहित करती थीं आपको लिखने के लिए?
मैं बड़ी हैरान होती थी यह देखकर कि ‘तीय ते बै के सिपाही साडे रोहंदे ते तकिए ते रहूंदे ओहदेदार, सपाईया नामा कटाई कर आ’ यानी कि कच्चे बैरकों में हमारे सिपाही और पक्के क्वार्टरों में ओहदेदार रहते हैं। तो ये असमानता मुझे झकझोर देती थी। लिखने के लिए प्रोत्साहित करती थी। तभी कहा कि ‘तू सिपाही अपना नाम कटवा कर घर चले आओ।’ घर में खाने को बहुत है।
कविता में किसका प्रभाव रहा?
मैंने अपनी कविता को हमेशा सुथरा रखा है। ना लोक गीतों की उस पर झलक पड़ी है, ना किसी और की। मैं बहुत पढ़ती हूं। उर्दू के शायरों को बहुत पढ़ती हूं। हिन्दी के कवियों को बहुत पढ़ा है। लेकिन मैंने किसी की छाया अपनी कविता पर नहीं पड़ने दी क्योंकि वो सिर्फ मेरी कविता है।
हिन्दी लेखकों के बहुत पथ-प्रदर्शक रहे हैं। क्या डोगरी में भी आपका कोई पथ-प्रदर्शक रहा है?
जब मैंने डोगरी में पदार्पण किया तब बहुत से कवियों ने अपना स्थान बना लिया था। प्रो. रामनाथ शास्त्री कवि भी थे। यही नहीं पितामह थे सबके और हम सब उनकी छाया तले ही बड़े हुए । शास्त्री जी ने एक संस्था लेखकों संग मिलकर बनाई थी। वो आज भी है। उसमें जब लिखना शुरू हुआ तो उसमें काफी नामी कवि थे। उसमें ऐसे भी लोग थे जिन्होंने उपन्यास लिख लिए थे, कहानियां लिख ली थीं क्योंकि भाषा जब शुरू होती है तो कवियों का ही ज्यादा वर्चस्व होता है। तो रामनाथ शास्त्री खुद कवि थे। दीनू भाई पंत बहुत बड़े कवि थे। शहर पैलों पैल गे, उनकी कविता थी ‘गल तू के सुनाणी, अऊं ता मुंडा आ हरामी, कर कम आ बथेरा, सारे सिर खाण मेरा, कूते गा कूते बा, जिंद फसी गई है फा, कर रोए करा आली, उसे गजरे दा चा।’ इस तरह की कविताएं थी जो लोग सुनते थे और खुश होते थे कि हमारी भाषा में भी साहित्य रचा जा रहा है। दीनू भाई पंत मैं समझती हूं हमारे पहले आधुनिक कवि हैं, जो हमारे डुगर प्रदेश में जाने गए। इसके बाद मधुकर हैं, दीप हैं, यश हैं। यश बहुत अच्छे गीत गाया करते थे। इस तरह बहुत से कवि थे जिन्होंने लिखा। लेकिन मुझे प्रेरणा सिर्फ लोक गीतों से मिली।
कविता लिखना कैसे शुरू किया?
ना सोचा ना समझा, ना देखा ना जाना, हमें आ गया, खुद ब खुद दिल लगाना। मुझे किसी को कहना नहीं पड़ा। खुद ब खुद चीजें होती चली गयीं। एक शेर कोट करती हूं और कर रही हूं या मानो कि कविता तब आती है- ‘टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में, डूब जाता है कभी मुझ में समंदर मेरा।’ ये वो लम्हा होता है जब इंसान कविता लिखता है और ऐसे ही मैं कवयित्री हो गई।
तीस साल की उम्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार का मिलना कैसा लगा आपको?
सच बताऊं तो समझ ही नहीं थी कि ये है क्या। मुझे नहीं पता था कि जो रास्ता मुझे तय करना है यह उसका पहला द्वार है जो मेरे लिए खुल गया है।
आपकी आत्मकथा ‘चित्त चेते’ के लिए आपको सरस्वती सम्मान दिया जा रहा है। किताब का कोई किस्सा साझा करें।
चित्त मतलब मन और चेत्ते मतलब स्मृतियां। ये किताब मेरे मन की स्मृतियों का आईना है। मैंने हर उस बात पर जो गलत है स्टैंड लिया है और झगड़ा किया है। जैसे एक किस्सा सुनाती हूं। एक इंस्पेक्टर थी मिसेज ठूसु। मेरी मां टीचर थीं बाजार कसाबा स्कूल जम्मू में। माताजी बहुत कम पढ़ी थीं। वो क, ख, ग ही पढ़ा पाती होंगी। पिताजी ने इतना ही उन्हें पढ़ाया था। पिताजी की मृत्यु के बाद ही वो वहां टीचर लगीं थीं। एक बार मिसेज ठूसु ने सब टीचरों को डांटा उसमें मेरी मां को भी डांटा। उसके बाद मेरी मां घर पर रोती रोती आई। मैंने मां को कलेजे से लगा लिया बोला- बताओ क्या बात है। उन्होंने कहा कि मुझे मिसेज ठुसु ने डांटा है। अब मैं नौकरी नहीं करूंगी। उन दिनों मेरे पिताजी की पेंशन की बात चल रही थी। उस वक्त पेंशन और नौकरी दोनों साथ नहीं मिलते थे। तो मैंने मां से कहा कि कल से आप स्कूल नहीं जाएंगी बस। और मैं मिसेज ठुसु के घर चली गई जो इंस्पेक्टर थी। वो मुझे स्कूल से जानती थी। वो जानती थी कि मैं पद्मा शर्मा हूं। जब मैं उनके घर गई तो वो घर पर नहीं थीं। मैं उनके घर के बाहर उनका इंतजार कर रही थी। जब वो आईं तो पूछा- पद्मा तुम यहां क्या कर रही हो। मैंने कहा कि जिन औरतों को आप ने बाजार कसाबा में डांटा था उनमें एक मेरी मां भी थी जो प्रोफेसर जयदेव शर्मा की पत्नी हैं। मैं सिर्फ आपको यह बताना चाहती हूं कि ये मत भूलिए कि आप भी इसी में से होकर आई हैं। आपके पति की मृत्यु भी 1947 के दंगो में हुई थी। आपने जो भोगा है मेरी मां ने उससे कहीं ज्यादा भोगा है। हम तीन बच्चे हैं और वो बाईस साल की एक औरत है। आपने उसको डांटा मेरी मां आपके स्कूल में नौकरी नहीं करेगी। उसने कहा बात तो सुन। मैंने कहा मैंने नहीं सुननी और मैं भाग गई। मैं समझती हूं कि जिन्दगी में ये मेरा सबसे बड़ा विद्रोह था। जो मैंने किया था फिर मेरी मां वहां नहीं गई और मेरे पिताजी की पेंशन लग गई। फिर हम लोगों को मां ने ही पाला।
जम्मू से लेकर दिल्ली का सफर कैसे तय किया?
मैं रेडियो में काम करती थी और सरदार सुरिंदर सिंह जी जो मेरे पति हैं वो उस समय डयूटी आफिसर थे। मैं अनाउंसर हुआ करती थी। छोटी जगहों में लोग उन लड़कियों के खिलाफ हो जाते हैं जो कुछ करना चाहती हैं। उसी तरह हमारे भी खिलाफ थे कई लोग। पर मैं परवाह नहीं करती थी किसी भी बात की और लोगों को इस बात की चिढ़ थी कि ये परवाह क्यों नहीं करती है। मैं किसी की सलाह नहीं लेती थी। एक बार मुझे सरदार जी ने कहा कि आप यहां मत रहिए दिल्ली चली जाइए। उस समय कश्मीर के प्रधानमंत्री बक्शी गुलाम मोहम्मद ने मेरे लिए रेडियो के डायरेक्टर जनरल को पत्र लिखकर दिया कि जिस तरह मेरी बेटी शमा है, उसी तरह मेरी बेटी पद्मा है। जहां ये कहे वहां इसको लगा दो। मेरी इच्छा थी कि मैं न्यूज पढ़ूं। मैं आल इंडिया रेडियो में न्यूज में लग गई और दिल्ली आ गई।
आपने भी अपनी जिन्दगी में कई उतार चढ़ाव देखे हैं। कभी कोई समस्या ऐसी रही कि आत्महत्या का विचार मन में आया हो जैसा कि आजकल महानगरों की लड़कियों में देखने को मिलता है।
हा हा (ठहाका लगाते हुए) कभी नहीं, वो सब कमजोरी की निशानी है। आत्महत्या करना बड़ी कमजोरी की निशानी है। मैं उसमें यकीन नहीं करती। 18 बरस की उम्र में मुझे अतड़ियों की टीबी हुई थी। तीन साल अस्पताल में रही। सात जनवरी 1961 को मैं अस्पताल से ठीक होकर निकली थी। किसी को यकीन नहीं था कि मैं बच जाऊंगी और मुझे यकीन नहीं था कि मैं मर जाऊंगी। कुछ भी मुझे कभी नहीं लगा और मुश्किलें मैंने आसानी से पार कर लीं। लड़ने का माद्दा मुझमें था। मैंने अपनी जिन्दगी में कभी नहीं सोचा कि कोई मुझे कुछ कर सकता है। मैंने हमेशा सोचा जो मैं करना चाहूंगी वही होगा और वही हुआ भी।
आज (आशय 2016) के जम्मू-कश्मीर के हालात पर क्या कहना चाहेंगी आप?
लोगों को सुविधाएं नहीं मिलती हैं, लोगों को नौकरियां नहीं मिलती हैं। वैसे भी जम्मू के लोगों को नजरअंदाज किया जाता है। बड़े दुख के साथ मैं ये बात कह रही हूं। मुझे कुछ भी कहने मैं डर नहीं है। मेरा क्या कर लेंगे ये लोग। मेरी शादी बाहर हुई है, मेरे पति का ट्रांसफर नहीं कर सकते। मैं बेखौफ होकर बोलती हूं। नेताओं को भी बोल देती हूं। कश्मीर में बहुत ज्यादा विद्रोह हो रहे हैं। मुट्ठीभर लोग हैं जिनको हम पाकिस्तान भेज देते तो बहुत अच्छा था। मैंने सुना है पाकिस्तान जाने वाली तीन बसों को वापिस बुलाया गया था। या शेख साहब के जमाने में या फारूक साहब के जमाने में। ये मुझे याद नहीं है। वो लोग चले गए होते तो शायद इतनी गड़बड़ नहीं होती। कुछ लोग जिनके रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं। किसी की बेटी है, किसी की बहन है, किसी का बाप है। तो उनका आधा दिल वहां है आधा यहां है। कश्मीर के बहुत जानेमाने हुए कवि महजूद। उन्होंने लिखा है ‘जुव जान वन्दहा हिन्दुस्तानस, दिल छुन पाकिस्तान कुन।’ मतलब कि ये जान और देह हिन्दुस्तान तुम्हारे साथ है। लेकिन दिल पाकिस्तान के साथ है। ऐसे लोग जब तक रहेंगे तब तक अमन शांति कैसे रह सकती है।
आप जिस जम्मू-कश्मीर में पली बढ़ीं वह आज (आशय 2016) नकारात्मक खबरों को लेकर चर्चा में है। क्या अंतर आया। किसे दोषी मानती हैं?
-जब मैं वहां रहती थी, तो मुसलमानों और हिन्दुओं में बहुत प्यार था। मैंने खुद देखा है बहुत मोहब्बत थी आपस में। चंद मुठ्ठी भर लोगों ने आकर इस शांति को भंग किया है। मुझे बहुत दुख होता है यह जानकर कि मेरी मातृभूमि में इस तरह हो रहा है। जम्मू और कश्मीर मेरा घर है। बहुत अच्छी रियासत थी। गांधी जी ने भी कहा था कि वह ऐसी जगह है जहां से अमन की महक आती है। आज उस जगह का ये हाल उन मुठ्ठीभर लोगों ने किया है जो पाकिस्तान नहीं गए। मैं तो अपने आपको कश्मीरी भी मानती हूं। मैं नहीं मानती कि अल्ला मियां या भगवान ने ऊपर से किसी को मुसलमान या हिन्दू बनाकर भेजा है। ये हमने बनाया है और हम इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। इसमें हिन्दू-मुसलमान की बात नहीं है यह सिर्फ चंद सिरफिरे लोगों की बात है।