प्रदीप सिंह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत से आचरण उनकी छवि के विपरीत होते हैं। हालांकि यह छवि उनके विरोधियों की बनाई हुई है और संभवतः कुछ उनके समर्थक या बीजेपी के लोग भी ऐसा मानते हैं कि मोदी बदले की भावना से काम करते हैं। जबकि ऐसा होता नहीं है। ऐसे बहुत से उदाहरण है जिनमें जो व्यक्ति मोदी के खिलाफ खड़ा हुआ और विरोध करने में पूरी ताकत लगा दी उससे उन्होंने कोई बदला नहीं लिया। बल्कि उसके साथ काम किया और उसको अपने से जोड़ा।
बिना बदला लिए बदलापुर
आज यहां ऐसे शख्स की बात की जा रही है जिसने मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही उनका पुरजोर विरोध किया- यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। नीतीश कुमार के साथ इधर जो पूरा घटनाक्रम हुआ है उसे अगर गौर से देखें तो लगता है कि बिना बदला लिए बदलापुर हो गया है। नवंबर 2010 में बिहार विधानसभा चुनाव होने थे। इन्हें लेकर जून 2010 में पटना में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे। प्रदेश में बीजेपी और जेडीयू की मिली जुली सरकार थी। नीतीश कुमार ने बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सभी सदस्यों और नेताओं को रात्रि भोज पर बुलाया।
इक जरा सी बात पर…
जिस दिन रात्रि भोज होना था उसी दिन सुबह पटना के अखबारों में एक विज्ञापन छपा। विज्ञापन में जिक्र था कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार सरकार को बाढ़ राहत कोष में पांच करोड़ रुपए दिए थे। इस बात से नीतीश कुमार इतने खफा हो गए कि उन्होंने भाजपा नेताओं को दिया गया रात्रिभोज रद्द कर दिया। भाजपा के लिए इससे ज्यादा अपमान की बात नहीं हो सकती थी। वह राष्ट्रीय पार्टी थी और उसकी वजह से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री थे। बीजेपी के समर्थन के बिना नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं रह सकते थे।
उल्टे शिकायतें हुईं अहसान तो गया
जिस भाजपा ने अपने दावे को पीछे रखते हुए नीतीश कुमार को आगे बढ़ाया, जब बिहार में सरकार नहीं थी तो उन्हें केंद्र में मंत्री बनाया- इस सबका अहसान मानना तो दूर, नीतीश कुमार ने कोई लिहाज तक नहीं किया। भाजपा नेताओं के सम्मान में रखा रात्रिभोज रद्द कर दिया। बीजेपी ने वह जहर का घूंट चुपचाप पी लिया। शंकर भगवान के बारे में एक बात कही जाती है कि उन्होंने विष पिया और वह उनके गले का आभूषण बन गया। वह नीलकंठ हो गए। उधर राहु ने अमृत पिया और उसका सिर कट गया। तो यह जरूरी नहीं है कि जिसने जहर पिया उसी का नुकसान होगा और जिसने अमृत किया वह अमर हो जाएगा या उसको बहुत फायदा हो जाएगा। यह उदाहरण है इस समय की राजनीति का कि क्या हुआ नीतीश कुमार के साथ और क्या हुआ नरेंद्र मोदी के साथ।
लगातार ऊपर जाता ग्राफ
नरेंद्र मोदी 7 अक्टूबर 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री बने। उससे पहले वह किसी ग्राम सभा के सभापति भी नहीं रहे। कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा था। पहली बार मुख्यमंत्री बने। वह दिन और आज का दिन… उनका ग्राफ लगातार ऊपर की ओर जा रहा है। मई 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। उसके बाद 26 मई 2014 से देश के प्रधानमंत्री हैं। 2014 और 2019 दो बार लोकसभा चुनाव जिता चुके हैं पार्टी को। 2010 के बाद आया 2013 जब भारतीय जनता पार्टी में बड़ी ऊहापोह थी। चर्चा चल रही थी कि नरेंद्र मोदी को अब दिल्ली यानी राष्ट्रीय राजनीति में आना चाहिए। 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से नरेंद्र मोदी ने यह संकेत देने शुरू कर दिए थे कि अब वह राष्ट्रीय राजनीति में आने के इच्छुक हैं।
मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर उद्भव
नरेंद्र मोदी को भाजपा की कैंपेन कमेटी का चेयरमैन बनाने की बात हो रही थी। पार्टी में बहुत से लोग इसका विरोध कर रहे थे जिसमें लालकृष्ण आडवाणी और उनके साथ बहुत से और लोग थे। कहा जा रहा था कि मोदी के बजाय शिवराज सिंह चौहान को कैंपेन कमेटी का चेयरमैन बना देना चाहिए। यह सब भाजपा के भीतर चल रहा था। बीजेपी की कैंपेन कमेटी का चेयरमैन कौन होगा- उसका प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा- यह तो बीजेपी को ही तय करना था। लेकिन उधर नीतीश कुमार को लगता था कि यह भी वह तय कर सकते हैं। जैसे वह बिहार में बीजेपी को चलाते थे उनको लगता था कि राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भी बीजेपी उनके कहे के मुताबिक चले। उन्होंने बहुत प्रयास किया कि मोदी को कैंपेन कमेटी का चेयरमैन बनने से रोका जा सके। पर नीतीश इसमें सफल नहीं हो सके।
एनडीए से नाता तोडा
इस पर नीतीश कुमार ने जून 2013 में एनडीए से नाता तोड़ लिया। बिहार में जेडीयू एनडीए से अलग हो गई। बीजेपी बिहार सरकार से अलग हो गई। नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस की शरण में चले गए और उनकी मदद से सरकार बची। उस समय नीतीश ने एनडीए से अलग होने का आधार यह दिया था कि भाजपा के नेता जो भाषा बोल रहे है उससे एक समुदाय की भावना को ठेस पहुंची है। नीतीश कुमार ने किसी का नाम नहीं लिया। न भाजपा के नेता का नाम लिया और न उस समुदाय का नाम लिया। लेकिन यह सबको स्पष्ट था कि वह दरअसल नरेंद्र मोदी की तरफ इशारा कर रहे थे। नीतीश को लग रहा था की मोदी की भाषा और भाषणों से मुसलमानों को ठेस पहुंच रही है।
नीतीश कुमार की शर्त या ब्लैकमेल
भारतीय जनता पार्टी किस तरह से चल रही थी उस दौर में? आप इसे नीतीश कुमार की शर्त या ब्लैकमेल जो भी कहना चाहें, वह चाहते थे कि- चाहे लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव- नरेंद्र मोदी बीजेपी के उम्मीदवारों का प्रचार करने के लिए भी बिहार नहीं जाएंगे। भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश कुमार की यह शर्त मंजूर कर ली। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि बीजेपी में क्या चल रहा था। और उससे बड़ी बात कि नीतीश का बीजेपी पर प्रदेश स्तर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी कितना प्रभाव था। बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। इनमें लगभग 25 पर जदयू लड़ती थी और 15 पर भाजपा। यानी 40 सीटों वाले बिहार में सिर्फ 25 सीटों पर लड़ने वाली पार्टी के नेता का भाजपा पर कितना प्रभाव था।
अब आता है कहानी में ट्विस्ट
जो नीतीश कुमार इतने प्रभावशाली थे, आगे के सालों में वह कहां से कहां पहुंच गए। सिर्फ 25 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी के नेता होते हुए वे राष्ट्रीय पार्टी के रूप में बीजेपी के फैसलों को अपनी मर्जी के मुताबिक प्रभावित करने लगे थे। और आज क्या दशा है? अपनी ही पार्टी में उनकी नहीं सुनी जा रही है? नीतीश ने जिसे पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया, वह पार्टी में अपने मन से नियुक्तियां करने लगा और नीतीश कुमार की बातों को तवज्जो देना कम कर दिया। फिर खुद के लिए केंद्र में मंत्री पद का जुगाड़ कर लिया। तब नीतीश ने दूसरे को पार्टी अध्यक्ष बनाया। उसके भी लक्षण नीतीश के अनुकूल नहीं दीखते। कैसे हुआ नीतीश का यह हाल- इसमें मोदी का कुछ रोल है या नहीं- यह जानने के लिए नीचे दिए लिंक को क्लिक कर वीडियो देखिए।