प्रदीप सिंह।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान। पर देश में इस समय जाति पूछने का शोर है। यह सही है कि जाति भारतीय समाज की वास्तविकता है। पर सवाल है कि इस वास्तविकता ने देश और समाज को दिया क्या है? जो जातियो को अलग अलग खांचों में बाटकर देखना चाहते हैं वे भूल जाते हैं कि इस विविधता को जोड़ने वाली कोई एकता भी तो होनी चाहिए। क्योंकि जाति समग्रता में ही जीवित रह पाएगी। जो लोग जाति की जनगणना की मांग कर रहे हैं वे शायद समझ नहीं रहे हैं कि इससे जो विष निकलेगा वह उन्हें ही मारेगा।
गुट बन ही गए तो जितने ज्यादा बनें उतना अच्छा
पश्चिम के युग प्रवर्तक विचारकों में माने जाने वाले रूसो ने कहा था कि किसी भी समाज में गुटों के बनने से हमेशा नुक्सान होता है। पर यदि गुट बन ही गए हों तो, अच्छा यह होगा जितने ज्यादा बन जाएं उतना अच्छा। जातीय जनगणना के पक्षधर लोगों के मन में कई तरह की अवधारणाएं हैं, जो जातियों की अनुमानित संख्या की ही तरह किसी ठोस धरातल पर नहीं खड़ी हैं। पिछड़े वर्ग के जो नेता इसकी मांग कर रहे हैं वे यह मानकर चल रहे हैं कि बीपी मंडल ने मंडल आयोग की सिफारिशें करते समय पिछड़ा वर्ग की जो कुल जनसंख्या बताई थी, वह कम है। मंडल ने कहा था कुल आबादी का बावन फीसदी पिछड़ा वर्ग के लोग हैं। जातीय जनगणना से असलियत सामने आ जाएगी और फिर उन्हें आरक्षण का कोटा बढ़ाने का आधार मिल जाएगा।
उम्मीद और आशंका
सवर्ण जाति के लोगों के मन में यह डर है कि उनकी संख्या जो अभी बताई जाती है उससे कम निकलेगी। इन दोनों की उम्मीद और आशंका का आधार 1931 की आखिरी जातीय जनगणना के आंकड़े हैं। जिनका अब कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि उस समय देश की आबादी सत्ताइस करोड़ थी। और आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इसमें शामिल थे। विडम्बना यह है कि जातियों की जनगणना की मांग में सबसे आगे वे लोग हैं जो जाति विहीन समाज की बात किया करते थे।
उलझा हुआ मुद्दा
जातीय जनगणना की मांग दो कारणों से हो रही है। एक पिछड़ा वर्ग को आरक्षण की सुविधा देने के लिए जरूरी है कि उनकी जातियों की सही संख्या का पता हो। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि 1931 की जनगणना के आधार पर तैयार किसी आंकड़े को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी वजह से 2010 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने पिछ़ड़ी जातियों की गणना का मन बनाया। पर फिर पीछे हट गई। इसी तरह नरेन्द्र मोदी सरकार ने भी 2018 में संसद में कहा कि 2021 की जनगणना में पिछड़ों की गिनती कराई जाएगी। पर अब सरकार कह रही है कि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है। मार्च 2011 में लोकसभा में एक चर्चा के दौरान तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने कहा कि यह बहुत उलझा हुआ मुद्दा है। पिछड़ा वर्ग की जातियों की एक केंद्रीय सूची है, एक राज्यों की सूची है। कुछ राज्यों में ऐसी सूची है ही नहीं। कुछ राज्यों के पास पिछ़ड़ी जातियों और अति पिछड़ी जातियों की सूची है। रजिस्ट्रार जनरल ने कहा है कि इसके अलावा अनाथ और निराश्रित बच्चे हैं। कुछ जातियों के नाम पिछड़ा और अनुसूचित जाति, दोनों की सूची में हैं। ईसाई या इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने वालों के बारे में अलग अलग राज्यों की अलग अलग नीति है। एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वालों की समस्या अलग है। इसके अलावा अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न बच्चों की समस्या है।
कोई लाभ नहीं मिला एक तिहाई जातियों को
यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना करवाई। जिसके जाति के अलावा बाकी आंकड़े 2016 में सार्वजनिक किए गए। जाति के जो आंकड़े थे उन्हें सामाजिक न्याय मंत्रालय को दिया गया। मंत्रालय ने उसे नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञ समूह को सौंप दिया। जिसकी शुरुआती रिपोर्ट के बाद क्या हुआ पता नहीं। पर अक्तूबर 2017 में बने जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता वाले आयोग ने फरवरी 2021 में अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कहा है कि पिछड़ा वर्ग की जातियों की जनगणना जरूरी है। आयोग ने पिछड़ा वर्ग को चार उपभागों में विभाजित करने का सुझाव दिया है। आयोग ने पाया कि केंद्रीय सूची में शामिल पिछड़ा वर्ग की 2633 जातियों में से आरक्षण की मलाई ऊपर की सौ जातियां ले गईं। एक तिहाई जातियों को तो शिक्षा और नौकरी में कोई लाभ मिला ही नहीं।
पिछड़ा बनाम अति पिछड़ा
सारा पेंच यहीं है। जातीय गणना के बाद अति पिछड़ी जातियां अपने हक के लिए पिछड़ों की ही प्रभावशाली जातियों के खिलाफ उठ खड़ी होंगी। इसकी जमीन तीन दशक पहले सामाजिक न्याय के नाम पर सारे पिछड़ों के नेता बनने वालों ने तैयार कर दी है। मुलायम सिंह यादव और लालू यादव अब पिछड़ों के नहीं यादवों के नेता रह गए हैं। इन दोनों नेताओं ने अपने समय में एक-एक कुर्मी नेता क्रमशः नीतीश कुमार और बेनी प्रसाद वर्मा को साथ ले लिया। दोनों ने बाद में अपना अलग रास्ता पकड़ लिया। हालांकि बेनी प्रसाद वर्मा ने औपचारिक रूप से ऐसा नहीं किया। तो जब पिछड़ों के कोटे का फायदा लेना था तो सबको जोड़ लिया। सत्ता मिली तो बाकी को भूल गए। रामधन ने एक बार कहा था कि बड़े घटक ने छोटे घटक को गटक लिया।
समय की आहट पहले ही पहचान ली मोदी ने
जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद यह गटका हुआ उगलना पड़ेगा। क्योंकि परमाणु विखंडन की ही तरह समाज के गुटों के विखंडन की प्रक्रिया एक बार शुरू हो जाती है तो वह रुकती नहीं है। तो यह प्रक्रिया अब रुकने वाली नहीं है। जनगणना से पहले ही उसके संकेत नजर आ रहे हैं। कहीं निषाद अपना हिस्सा मांग रहे हैं तो कहीं राजभर। छोटे-छोटे जाति समूह सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए सामने आ रहे हैं। सामाजिक क्रांति के पुरोधा मुलायम हों या लालू, अब उनको भी इन जाति समूहों से सौदेबाजी करनी होगी। इस बदलाव की आहट को नरेन्द्र मोदी ने पहले से समझ लिया था। पिछले सात सालों में संख्या में छोटी जातियों को भाजपा में जगह ही नहीं मिली है बल्कि उन्हें संगठन और सत्ता में हिस्सेदारी भी मिली है।
होना है जो हो जाने दें
कहते हैं कि क्रांति को असफल करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उसे होने दिया जाए। इसलिए इस सामाजिक विखंडन को रोकने का भी यही तरीका है कि उसे होने दिया जाय। क्योंकि एक बार यह हो गया तब संख्या में छोटे-छोटे इन जाति समूहों को भी एहसास होगा कि यह सौदेबाजी की राजनीति का सिलसिला लम्बे समय तक नहीं चल सकता। तब इस विविधता को एकता की जरूरत महसूस होगी। पर इस सारे उपक्रम में समाज में कितना विष निकलेगा और कितना अमृत (अगर निकला) यह किसी को पता नहीं है। पर इस जाति मंथन को अब न रोका जा सकता है और न ही रोका जाना चाहिए।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख दैनिक जागरण से साभार)