प्रदीप सिंह।
तालिबान वैसे भी चर्चा में रहता है लेकिन इस बार अफगानिस्तान पर कब्जे को लेकर पूरी दुनिया में बड़ी चर्चा में है। लेकिन भारत में यह कुछ अलग तरह से चर्चा में है। भारत में तीन वर्ग हैं। एक- खुश हो रहा है। दूसरा- अपनी खुशी छिपा नहीं पा रहा है और तीसरा वर्ग- विरोध कर रहा है।
मुस्लिम शरणार्थियों को इस्लामी देशों का दूर से सादर प्रणाम!
तुर्की से आई खबर पर नजर पड़ी। खबर में कहा गया कि तुर्की ईरान से लगी अपनी 295 किलोमीटर की सीमा पर दीवार बना रहा है। यह दीवार क्यों बनाई जा रही है? इसलिए कि अफगानिस्तान से शरणार्थी उनके देश में ना आने पाएं। तुर्की एक इस्लामी देश है। वह सीमा पर 150 किलोमीटर से ज्यादा खाई खोद चुका है। सौ से ज्यादा सर्विलांस व्हेकिल काम कर रहे हैं। नाइट थर्मल विजन इक्विपमेंट का इस्तेमाल हो रहा है। तुर्की के रक्षा मंत्री ने जो बात कही है वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहा है कि हमारी सीमा हमारे गर्व का विषय है।
यहाँ ले आइए
और भारत में क्या हो रहा है… यहां एक वर्ग खड़ा हो गया है कि अफगानिस्तान से जो लोग निकलना चाहते हैं उन्हें भारत अपने यहां ले आए। उनमें हिंदुओं और सिक्खों की बात नहीं हो रही है, उनकी संख्या तो बहुत मामूली सी बची है। लाखों से सैकड़ों पर आ गए। लगभग पौने सात सौ सिक्ख और अस्सी नब्बे हिंदू वहां बचे है। इनमें वहां चल रहे भारत के प्रोजेक्ट में काम कर रहे लोग या दूतावास में काम करने वाले लोग शामिल नहीं हैं।
कौन हैं तालिबान का स्वागत करने वाले
भारत में तालिबान का स्वागत करने वाले लोग कौन हैं? ये वही लोग हैं जिन्होंने मुस्लिम लीग बनाई थी- जो आईएसआई चलाते है- ये वही लोग हैं जो इस्लामी आतंकवाद का प्रचार प्रसार कर रहे हैं और निजाम ए मुस्तफा कायम करना चाहते है। निजाम ए मुस्तफा का मतलब होता है शरिया का कानून। यानी देश अपने संविधान और कानून के हिसाब से नहीं चलेगा बल्कि शरिया में यानी कुरान में जो लिखा हुआ है उसके हिसाब से राज्य चलेगा! तो बच्चियों से बलात्कार होगा- वे बाहर नहीं जा सकेंगी- पढ़ने नहीं जा सकतीं- कोई कामकाज नहीं कर सकतीं। यह तालिबान तय करेगा कि आप क्या कर सकते हैं और क्या नहीं। टीवी देखेंगे या नहीं- संगीत सुनेंगे या नहीं- पढ़ाई करेंगे या नहीं- ये सब चाहने वाले कौन लोग हैं? … वही जो अपने को मॉडर्न कहते हैं।
खुर्दबीन से नरम तालिबान की खोज
एक सज्जन हैं हिलाल अहमद। रिसर्चर और बहुत जहीन इंसान हैं। लेकिन जैसे ही धर्म की बात आती है तो बदल जाते हैं। उन्होंने ट्वीट किया कि- “दरअसल तालिबान इस्लाम के कट्टर स्वरूप को लेकर चल रहा है। इसको स्वीकार नहीं करना चाहिए। बल्कि इस्लाम के नरम स्वरूप को स्वीकार करना चाहिए।” अब कोई यह बताए कि इस्लाम के कितने स्वरूप हैं। जो पचास से ज्यादा इस्लामी देश हैं उनमें इस्लाम का कौन सा स्वरूप लागू है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्की, सऊदी अरब, इराक, ईरान- इनमें इस्लाम का कौन सा स्वरूप है। हिलाल अहमद कहते हैं कि “इस्लाम के उस स्वरूप को अपनाना चाहिए जिसका समाजवाद में यकीन हो, मानवता के उद्धार के लिए काम करता हो। सवाल यह है कि इस्लाम का यह स्वरूप कहां लागू है? कौन सा ऐसा इस्लामी देश है जहां गैर मुसलमानों को बराबरी का दर्जा मिलता है, जहां गैर मुसलमानों को काफिर नहीं माना जाता।
धर्म का विस्तार और गैरइस्लामी देश
एक बात गौर करने की है। दुनिया में जहां कहीं से भी मुसलमान निकलता या निकाला जाता है- ऐसी परिस्थितियां बन जाती हैं कि उनको देश छोड़कर जाना पड़े- चाहे वह सीरिया का मामला हो, ईरान-इराक युद्ध का समय का मामला हो- या रोहिंग्या मुसलमानों का… कोई इस्लामी देश इन शरणार्थियों को लेने के लिए क्यों तैयार नहीं होता। आखिर इस्लामी भाईचारा है। वे सब एक ही धर्म को मानने वाले है …और उसका विस्तार करना है। हाँ धर्म का विस्तार करना- यह एक कारण हो सकता है। अगर वे इस्लामी देश में आएंगे तो उससे बात नहीं बनती है। गैर इस्लामी देश में जाएंगे तो बात बनेगी… ‘धर्म का विस्तार…!’
पछता रहा यूरोप
धर्मनिरपेक्षता और अपने को आधुनिक दिखाने के चक्कर में यूरोप के बहुत से देशों ने उनको शरण देने की गलती की। अपनी उस गलती के लिए वे अब पछता रहे हैं। यूरोप अब पहले वाला यूरोप नहीं रह गया है। फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन उसकी कीमत चुका रहे हैं। इसलिए अब कई देशों ने घोषणा कर रखी है कि वे किसी भी मुस्लिम शरणार्थी को अपने देश में प्रवेश नहीं करने देंगे। इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम यहां आम मुसलमान की बात नहीं कर रहे हैं और यह कहने का मतलब मुसलमानों का विरोध कतई नहीं है। इस्लाम के कुछ ऐसे प्रोविजंस (प्रावधान) हैं जिनकी वजह से यह हो रहा है। और जब तक उनमें सुधार नहीं होगा तब तक यह बदलने वाला नहीं है। यह बात हमारे देश के संविधान निर्माता, कानून और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने कही थी। उन्होंने लिखा कि इस्लाम की दो खामियां या कमियां हैं। उन्होंने कहा, “जो इस्लाम का भाईचारा या ब्रदरहुड है वह ‘यूनिवर्सल ब्रदरहुड’ यानी सभी के साथ भाईचारा नहीं है। यह भाईचारा मुसलमानों का मुसलमानों के लिए है।” उन्होंने कहा कि यह एक ‘क्लोज ग्रुप’ है। इसे उन्होंने कारपोरेशन नाम किया। आंबेडकर ने कहा कि “यह एक क्लोज कॉरपोरेशन है जिसमें बिरादरी तो है पर अपने काम के लिए।”
किसके लिए है- देश से पहले धर्म
अब आगे अंबेडकर जो कह रहे हैं वह बहुत ध्यान देने लायक है- “इस कौम से बाहर वालों के लिए सिर्फ अवमानना और वैमनस्य का भाव है। किसी भी मुसलमान के लिए देश से पहले धर्म है।” आंबेडकर यहीं पर नहीं रुके, उन्होंने कहा, “इस्लाम किसी सच्चे मुसलमान को भारत को अपनी मातृभूमि स्वीकार नहीं करने देगा। हिंदुओं को अपना भाई नहीं मानने देगा।” उन्होंने उदाहरण भी दिया- “यही कारण है मौलाना मोहम्मद अली- जो एक महान भारतीय थे- उन्हें मरने के बाद उनकी इच्छा के मुताबिक भारत में नहीं बल्कि यरूशलम में दफनाया गया।” यह बात आज कोई राजनीतिक दल का नेता कहे तो अगर वह राइट विंग यानी भाजपा-संघ से है तो उस पर कम्युनल का ठप्पा तो पहले ही था- यह कहने का मतलब होगा कि वह हिंदू मुसलमान के बीच लड़ाई कराना, सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना, दंगे कराना चाहता है।
तालिबान से दोस्ती के मशविरे
लेकिन डॉ. आम्बेडकर के बारे में तो हम यह नहीं कह सकते कि उन्होंने किसी मकसद से यह सब लिखा। वह बहुत लंबे समय के अपने अध्ययन और अनुभव के कारण इस निष्कर्ष पर पहुंचे। यह समझने की कोशिश कीजिए कि अपने देश में क्यों बहुत से लोग कह रहे हैं कि तालिबान से दोस्ती कर लीजिए- और क्यों बहुत खुश हो रहे हैं? एक बहुत वरिष्ठ पत्रकार हैं और एक चैनल के खासमखास भी। उन्होंने कहा कि “केंद्र सरकार कह रही थी कि किसी मुस्लिम देश में कोई मुस्लिम प्रताड़ित नहीं हो सकता है जबकि हम कह रहे थे कि यह गलत है। सरकार हमारी बात मानने को तैयार नहीं थी। अब देखिए अफगानिस्तान में यह साबित हो गया।” अब इन मूढ़मति को यह कौन समझाए कि सरकार कह रही थी कि ‘धर्म के आधार पर प्रताड़ित नहीं किया जा सकता’। जो कुछ अफगानिस्तान में हो रहा है या तालिबान वहां के लोगों के साथ कर रहा है क्या वह इसलिए कर रहा है कि अफगानिस्तान के लोग इस्लाम को मानने वाले हैं। बिल्कुल नहीं। तालिबान इस्लाम को जिस तरह से लागू करना चाहता है- बात उसकी है।
मुखर बिरादरी की जुबां पर ताला
तालिबान इस्लाम को जिस तरह से लागू करना चाहता है उसका वास्तविक स्वरुप यह है कि उसमें आम आदमी के लिए कोई आजादी नहीं है। बोलने के राजी नहीं है। भारत में जो लोग दिन रात चिल्लाते रहते हैं कि बोलने की आज़ादी छिन गयी- स्वतंत्रता पर हमला हो गया- जनतंत्र पर हमला हो गया… उनको न अफगानिस्तान में बोलने की आज़ादी की चिंता है, न वहां लोकतंत्र और लोगों के मानवाधिकार की चिंता है। यानी वहां जो लोग मारे जा रहे हैं उनके कोई मानवाधिकार नहीं हैं। अफगानिस्तान से जो दृश्य आ रहे हैं उनसे अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि वहां क्या हालत है? क्यों हो रही है वहां यह हालत? आखिर तालिबान भी इस्लाम को मानने वाला है और अफगानिस्तान के लोग भी इस्लाम को मानने वाले है। यहां भारत में तो समस्या यह है कि (लेफ्ट लिबरल बिरादरी के अनुसार) नरेंद्र मोदी देश को हिंदू राष्ट्र बनाने जा रहे हैं इसलिए मुसलमान बहुत चिंता में और डरे हुए हैं। तो फिर मुसलमान कहां सुरक्षित हैं… इस्लामाबाद- ईरान- इराक- सीरिया- अफगानिस्तान- कहां सुरक्षित हैं मुसलमान- यह भारत के मुसलमानों को सोचना पड़ेगा।
इमरान जैसी सोच वाले यहां भी कम नहीं
लेकिन वे दूसरी तरह से सोच रहे हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने जो बात कही, ‘अफगानिस्तान को आजादी मिल गई तालिबान के आने से’- वैसा सोचने वाले इस देश में बहुत हैं। और इसमें केवल मुसलमान ही नहीं हैं। अगर यह आजादी है तो फिर गुलामी किसे कहेंगे। किसी की बहन-बेटी उठा ली जाए- उसकी पढ़ाई-कामकाज करना रुक जाए- लोगों के जीवन पर तालिबानी आतंकवादी संगठन का एकाधिकार हो जाए- अगर यह स्वतंत्रता है तो फिर गुलामी क्या होती है?
अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर कब्जे के बाद भारत में तालिबान के तरफ़दारों की एक फ़ौज उमड़ आई है। आतताइयों में मानवीयता का चेहरा ढूँढा जाना शुरू हो चुका है। और किस किस प्रकार के विमर्श चल रहे हैं – उनके पीछे लोगों के नेस्ट स्वार्थ क्या हैं – यह जानने में रूचि हो तो इस वीडियो को क्लिक करें।