श्री श्री रविशंकर ।
समझदार वह हैं जो अनिश्चितताओं को विस्मय के भाव से देखते हैं। विस्मय से नए ज्ञान का आरंभ होता है। सृजनशीलता आश्चर्यचकित हो जाने से उभरती है। यह रवैया कि “मुझे पता है” व्यक्ति को संकुचित व बंद कर देता है। “मुझे नहीं पता” कई नई सम्भावनायों को जन्म देता है। जब कोई इस विचार से चलता है कि “मुझे सब पता है” वह एक निश्चित अवधारणा में फंसा रहता है।
दो प्रकार का “मुझे नहीं पता”
अक्सर लोग गुस्से में आकर यह कहते हैं कि “मुझे नहीं पता”। यह बेतुका “मुझे नहीं पता” औंर विस्मय से भरा ‘मुझे नहीं पता’ दोनों अलग है। आश्चर्य किसी भी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने की अंतहीन संभावना उत्पन्न कर देता है जो की उन्नति का पथ बन जाता है। जितना अधिक जानते रहते हो उतनी ही अधिक अज्ञात के प्रति जिज्ञासा बनी रहती है। उपनिषद में यह बहुत सुंदर वाक्य कहा गया है, “जो यह कहता है कि मुझे नहीं पता” वह जानता है, और जो यह कहता है कि “मुझे पता है” उसे कुछ नहीं पता। कहा जाता है कि, जितना आपको पता है वह अज्ञात के प्रति, हिमशैल की चोटी पर जमी बर्फ के जितना ही है।
निश्चितता और विस्मय
आश्चर्य किसी पुरानी बात के लिए ही नहीं होता है। पक्का मत उसके लिए हो सकता है, जो कि नया नहीं है। जीवन नवीन व प्राचीन का मिश्रण है। जो व्यक्ति केवल आश्चर्यचकित रहता है वह खोया खोया और भ्रमित लगता है। जो सब बातों के प्रति पूर्ण रूप से निश्चित होता है, वह हर बात को लापरवाही से देखता है, वह निष्क्रिय और सुस्त हो जाता है। दोनों पक्षों का भली भांति ज्ञान जीवन को चमकदारऔर आकर्षक बना देता है। निश्चितता और विस्मय के भाव का पूर्ण संतुलन ही जीवन में विकास का प्रतीक है।
विस्मय का उदय
विस्मय तब उदय होता है, जब मन का सामना किसी ऐसे तत्व से होता है, जिसको वह विशाल के रूप में देखता है। यह विस्तार की भावना लाता है। जब हम विस्मय की स्थिति में होते हैं, तब हम वस्तुओं को एक अलग दृष्टि से देखते हैं और हमारी अवलोकन की शक्ति पैनी हो जाती है। वाह! की भावना समय की संवेदना को बढ़ा देती है, हम जागरुक हो जाते हैं, और वर्तमान में व्यस्त हो जाते हैं चाहे भूत या भविष्य कुछ भी हो।
विस्मय की भावना जागरूकता बढ़ा देती है और जब हम जाग जाते हैं, तब देखते हैं कि समस्त सृष्टि आश्चर्यों से पूर्ण हैं। यदि कोई सृष्टि के आश्चर्यों की महिमा को नहीं देख पाता तो उसकी आंखें अभी खुली नहीं है। जब जागृत अवस्था में विस्मय के भाव के साथ आँखे बंद होती हैं, वही ध्यान है।
अथाह रहस्यमय सृष्टि
दुनिया के बारे में हमारी अनुभूति का- जो सत्य है उसके परिप्रेक्ष्य में- महत्व नहीं है। यह सृष्टि अथाह रहस्यमय है और जब हम इस के प्रति निश्चितहो जाते हैं, तब यह रहस्य और अधिक गहन हो जाते हैं। सृष्टि के रहस्य की गहनता विज्ञान है और आत्म के रहस्य की गहनता आध्यात्मिकता है। यदि न तो विज्ञान और न ही आध्यात्मिकता आपके अंदर विस्मय जगाती तो अभी आप गहन निद्रा में हो।
जीवन में ‘वाह’ तत्व
विस्मय आपके भीतर अनुसंधान की इच्छा जगाता है। मनुष्य के भीतर जीवन को जानने की तीव्र इच्छा के कारण ही मानवता का विकास का संभव हो पाया।यद्यपि हम जिज्ञासा के भाव के साथ ही पैदा होते हैं , तथापि जब हमारे जीवन में ‘वाह’ तत्व नहीं रहता तब हम अपने जानने की प्रकृति को भी खो बैठते हैं। अपनी सफलता व उन्नति के लिए जिज्ञासा के भाव को जगाना अति आवश्यक है।
ज्ञान का उदय
जब केंद्रित और शांत मन, भोलेपन में व गैर आलोचनात्मक स्थिति में रहता है, तब ज्ञान का उदय होता है। इसलिए नियमित ध्यान आवश्यक है, तभी ज्ञान की स्वच्छ स्लेट बनती है। जब हमारे मन में बिना किसी आलोचना के अनेक प्रश्न उठते हैं तब जीवन के बहुत से अनजाने सत्य स्वयं सामने खुलने लगते हैं।
अज्ञात दुनिया
केवल वही प्रश्न पूछो जो कि उपयोगी हो और तुम वास्तव में जिन का उत्तर जानना चाहते हो। हाँ या न में उत्तर मिलने वाले प्रश्नों से परे के प्रश्नों के उत्तर खोजो। विस्मय ऐसा प्रश्न है जिसमें हमें उत्तर की अपेक्षा नहीं होती। यह भाव छोड़ दो कि तुम सही हो और सब जानते हो। उस विस्मयकारी दुनिया को देखो जिसको तुम अभी तक नहीं जानते। यह आंनद इस लोक से परे हैं। अज्ञात दुनिया उसे उससे कहीं अलग है जो कि हम देखते या सोचते हैं। आंखें बंद करो, ध्यान करो, मन को मौन करो और विस्मय को गहरा होने दो। कहा जाता है कि आश्चर्य की स्थिति में आना ही योग की प्रस्तावना है। वह आश्चर्य हो जाओ जो तुम हो!
(लेखक आध्यात्मिक गुरु और द आर्ट ऑफ़ लिविंग के संस्थापक हैं)