प्रदीप सिंह।
यह कथा है आजाद भारत में लोकतंत्र के सबसे बड़े पहरुए कहलाये जाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री बनने की। क्या छल हुआ, क्या कपट हुआ, किसने त्याग किया …और किसने सत्ता पाई! उसमें जो कुछ हुआ वह आम धारणा के बिल्कुल विपरीत हुआ। आम धारणा तो यह है कि नेहरू का सर्वसम्मति से कांग्रेस अध्यक्ष के लिए चुनाव हुआ और वह प्रधानमंत्री बने। पर वैसा हुआ नहीं था।
कांग्रेस अध्यक्ष ही बनेगा पीएम
यह 1946 की बात है। नेशनल एसेंबली के चुनाव हुए थे। आज जैसे लोकसभा है तब नेशनल एसेंबली होती थी। चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला। तो जाहिर है कि बनने वाली अंतरिम सरकार में कांग्रेस का ही प्रधानमंत्री बनना था। सबको स्पष्ट था कि स्वतंत्रता मिलने वाली है। ऐसे में जो भी प्रधानमंत्री बनेगा वही आगे भी रहेगा।
कांग्रेस में यह तय हो गया था कि जो पार्टी का अध्यक्ष चुना जाएगा वही प्रधानमंत्री बनेगा। उस समय कांग्रेस अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया यह थी कि प्रांतीय समितियां कांग्रेस अध्यक्ष के नाम का प्रस्ताव करती थीं कि वे किसको कांग्रेस अध्यक्ष बनाना चाहती हैं। उस समय पंद्रह प्रांतीय समितियां थीं। 28 अप्रैल नामांकन की आखिरी तारीख थी।
उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे मौलाना अबुल कलाम आजाद। वे 1940 से लगातार अध्यक्ष थे। उसकी वजह यह थी कि 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन हुआ, द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया। कांग्रेस के ज्यादातर नेता जेल में थे इसलिए चुनाव नहीं हो पाया। इसलिए 1940 से 1946 मौलाना आजाद अध्यक्ष रहे। जब यह बात आई कि नया कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाएगा तो मौलाना आजाद भी चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा कि ‘बहुत से लोग चाहते थे कि मैं चुनाव लडूं, कांग्रेस अध्यक्ष बनूं, और प्रधानमंत्री भी बनूं।’
गांधीजी ने पहले ही जता दी थी अपनी पंसद
20 अप्रैल को गांधी ने मौलाना आजाद को बुलाया और कहा कि मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि आपको कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में एक और कार्यकाल मिले। इसलिए आप एक चिट्ठी लिखिए कि आप चुनाव नहीं लड़ना चाहते। यह बात मौलाना आजाद को अच्छी तो नहीं लगी लेकिन उस समय गांधीजी की बात टालने की हिम्मत किसी में नहीं थी। 26 अप्रैल 1946 को मौलाना आजाद ने एक बयान जारी किया कि ‘वर्तमान परिस्थितियों में मुझे लगता है कि सरदार बल्लभभाई पटेल का कांग्रेस अध्यक्ष बनना ठीक नहीं होगा और जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाहिए। ’और उसी वक्त गांधीजी ने भी बयान दिया कि ‘अगर मेरी राय मांगी गई तो मैं नेहरू के पक्ष में राय दूंगा।’ ‘अगर मेरी राय मांगी गई’ यह बात गांधीजी ने इसलिए कही थी क्योंकि बारह साल पहले वह कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे। गांधीजी के बयान के बाद पूरे देश में- और खासकर कांग्रेस के लोगों में- यह खबर फैल गई कि गांधी नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं और इसके लिए नेहरू को अध्यक्ष बनाने की तैयारी है। गांधी चाहते हैं कि वह कांग्रेस अध्यक्ष बनें।
गांधी और नेहरू दोनों के लिए संदेश
29 अप्रैल को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई। उसमें जब कांग्रेस की प्रांतीय समितियों की ओर से अध्यक्ष पद के लिए आये प्रस्तावों को खोला गया तो पता चला कि पंद्रह प्रातीय कमेटियों में से बारह ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव किया। बाकी तीन कमेटियों के प्रस्ताव के बारे में दो प्रकार के मत हैं। एक मत यह है कि एक प्रांतीय कमेटी ने आचार्य कृपलानी के नाम का प्रस्ताव किया और एक कमेटी ने पट्टाभिसीतारमैया का नाम दिया। जबकि एक कमेटी तय नहीं कर पाई और उसने किसी के नाम का प्रस्ताव नहीं किया। मगर दूसरा मत यह कहता है कि तीनों ही कमेटियों ने किसी के नाम का प्रस्ताव नहीं किया। लेकिन यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि बारह प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव पास किया था। गांधीजी की इच्छा के बावजूद किसी प्रांतीय कमेटी ने नेहरू के नाम का प्रस्ताव नहीं भेजा। यह नेहरू और गांधी दोनों के लिए संदेश था।
गांधीजी का आदेश
29 अप्रैल को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के पहले गांधीजी ने आचार्य कृपलानी को बुलाया। कृपलानी संभवत: कांग्रेस के महामंत्री और कार्यसमिति के प्रभारी थे। गांधीजी ने कृपलानी से कहा कि वर्किंग कमेटी में नेहरू जी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव तैयार कराओ। यह गांधीजी का आदेश था।
गांधीजी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे तो कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य होने की तो बात ही दूर। और उन्होंने खुद ही कहा था कि ‘अगर मुझसे राय मांगी गई तो मैं नेहरू के पक्ष में राय दूंगा।’ तो अभी उनसे राय नहीं मांगी गई थी लेकिन वह कार्यसमिति की बैठक में थे। किस हैसियत से… हालांकि देश में गांधीजी का जो कद था उसे देखते हुए उनसे कोई सवाल करने वाला तो नहीं था लेकिन यह कम से कम लोकतांत्रिक प्रक्रिया तो नहीं थी।
जब कार्यसमिति की बैठक में प्रांतीय समितियों का प्रस्ताव खुला तो कृपलानी ने प्रस्ताव गांधी की तरफ बढ़ाया। गांधी ने उनकी तरफ देखा। कृपलानी समझ गए गांधीजी क्या चाहते हैं। नया प्रस्ताव तैयार हुआ उसमें नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव किया गया। वह कागज कार्यसमिति के सभी सदस्यों की तरफ बढ़ा दिया गया और सबने दस्तखत कर दिये। अब अध्यक्ष पद के लिए दो उम्मीदवार मैदान में हो गए। बारह प्रांतीय समितियां सरदार पटेल के पक्ष में और कांग्रेस कार्यसमिति जवाहरलाल नेहरू के पक्ष में।
नामवापसी की चिट्ठी
फिर गांधीजी का इशारा कृपलानी को मिला और कृपलानी ने एक चिट्ठी तैयार की। उस चिट्ठी में लिखा था कि सरदार बल्लभभाई पटेल कांग्रेस अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी से अपना नाम वापस ले रहे हैं। कृपलानी ने वह पत्र सरदार पटेल की तरफ बढ़ा दिया। पटेल ने वह पत्र देखा-पढ़ा और गांधीजी की ओर बढ़ा दिया।
गांधी ने वह पत्र लिया और वहां मौजूद जवाहरलाल नेहरू से कहा कि किसी प्रांतीय कमेटी ने तुम्हारा नाम का प्रस्ताव नहीं भेजा है। केवल कार्यसमिति ने तुम्हारे नाम का प्रस्ताव किया है। ऐसे में नेहरूजी की क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी। उन्हें कहना चाहिए था कि क्योंकि प्रांतीय समितियों ने प्रचंड बहुमत से सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव किया है इसलिए आप पटेल को प्रधानमंत्री बन जाने दीजिए। लेकिन नेहरू चुप रहे। वह कुछ नहीं बोले। तब गांधीजी ने सरदार पटेल की नाम वापसी का कागज पटेल की ओर बढ़ा दिया। पटेल ने चुपचाप दस्तखत कर दिया।
क्यों मान गए सरदार
सरदार पटेल ने ऐसा क्यों किया? क्यों चुपचाप दस्तखत कर दिये और कुछ नहीं बोले? क्यों नहीं सरदार पटेल ने वह किया जो सुभाषचंद्र बोस ने किया था? सुभाषचंद्र बोस गांधीजी की मर्जी के खिलाफ दोबारा भी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जीते। गांधीजी ने उनके खिलाफ पट्टाभिसीतारमैया को खड़ा किया और पूरे देश में बाकायदा प्रचार किया कि पट्टाभिसीतारमैया की हार मेरी व्यक्तिगत हार होगी। तब भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस जीते थे। लेकिन गांधीजी के विरोध की कीमत उनको चुकानी पड़ी। गांधीजी ने ऐसा माहौल बना दिया, ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि न केवल उनको कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यकाल के बीच में ही अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा बल्कि कांग्रेस से भी इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी फारवर्ड ब्लाक बनाई।
सरकार पटेल नेताजी सुभाषचंद्र बोस की तरह नहीं हो सकते थे। क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि गांधीजी के विरोध का हश्र क्या होता है? उनको पता था अगर विरोध करूंगा तो उसका नतीजा क्या होगा। दूसरी बात, यह माना जाता है कि सरदार पटेल गांधीजी की किसी बात को काटते या टालते नहीं थे।
छल से हथियाई कुर्सी
गांधीजी ने नेहरू को क्यों कांग्रेस अध्यक्ष और देश का प्रधानमंत्री बनवाया उसके बारे में भी दो मत हैं। यह तथ्य है कि नेहरू गांधीजी के पास यह संदेश भिजवा चुके थे कि वह किसी के मातहत काम नहीं करेंगे। एक मत यह है कि गांधीजी को लगा कि अगर नेहरू को प्रधानमंत्री नहीं बनवाया गया तो वह नाराज हो सकते हैं, पार्टी में विद्रोह हो सकता है और हो सकता है इसकी वजह से आजादी का समय कुछ टल जाए। ऐसा माना जाता है कि गांधीजी को यह भी लगता था कि सरदार पटेल नेहरू के मातहत काम कर सकते हैं लेकिन नेहरू सरदार पटेल के मातहत काम नहीं कर सकते। लेकिन यह बात तथ्यों पर खरी नहीं उतरती क्योंकि यह कोई पहला मौका नहीं था जब गांधीजी ने सरदार पटेल के साथ छल किया। इससे पहले दो बार 1929 और 1936 में भी ऐसा ही हुआ। दोनों बार सरदार पटेल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरा और नेहरू के पक्ष में गांधी ने सरदार पटेल ने नामांकन वापस लेने को कहा। दोनों बार सरदार पटेल ने नाम वापस ले लिया। 1929 में जवाहरलाल नेहरू पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बने थे। उनसे पहले उनके पिता मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष थे। मोतीलाल नेहरू की बड़ी तमन्ना थी कि उनके बाद उनका बेटा कांग्रेस अध्यक्ष बने। तो गांधीजी को नेहरू को अध्यक्ष बनवाना था। लेकिन नेहरू को पता था कि वे कैसे अध्यक्ष बने हैं। नेहरू ने खुद लिखा है कि वह 1929 में सामने के दरवाजे से नहीं आए थे। लेकिन 1946 में तो वह पीछे के दरवाजे से भी नहीं आए। छल से वहां तक पहुंचे।
गांधीजी ने ऐसा क्यों किया? जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इसके कई कारण हैं लेकिन अभी मैं उनको बताना जरूरी नहीं समझता। और कांग्रेस में जब सरदार पटेल चुप हो गए तो किसी की इतनी हैसियत नहीं थी कि वह गांधीजी ने पूछ सके कि आपने ऐसा क्यों किया। लेकिन पत्रकार दुर्गादास ने गांधीजी से यह सवाल पूछा। तो गांधीजी का जवाब था कि नेहरू को सरकार का नेतृत्व करना चाहिए। दुर्गादास ने दूसरा सवाल पूछा- आप सरदार पटेल में यह खूबियां क्यों नहीं देखते? तो गांधीजी ने हंसते हुए कहा कि हमारे कैंप में नेहरू अकेला अंग्रेज है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि गांधीजी की जवाहरलाल नेहरू के बारे में क्या राय थी।
कांग्रेस में हाईकमान कल्चर की नींव
जब इतना सब कुछ हो गया तो कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद घोषणा की गई कि नेहरू सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। 29 अप्रैल 1946 वह तारीख है जब कांग्रेस में हाईकमान कल्चर की नींव पड़ी। गांधीजी ने किसी पद पर न होते हुए भी न केवल कांग्रेस का बल्कि देश का भविष्य तय किया। और वही तारीख है 29 अप्रैल 1946 जब कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हो गया। गांधीजी से पूछा नहीं गया था, सलाह नहीं मांगी गई थी… और यह नामांकन नहीं था, चुनाव था। चुनाव में नेहरू हार चुके थे। हारे हुए को जिता दिया, जीते हुए को हरा दिया गांधीजी ने… क्योंकि नेहरू उनको ज्याद पसंद थे।
कांग्रेस में पटेल के पक्ष में माहौल
यहां ध्यान देने की बात यह है कि सरदार पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव प्रांतीय समितियों ने तब भेजा था जब पटेल ने देश को एक नहीं किया था। पांच सौ से ज्यादा रियासतों को एक करने का काम तो पटेल ने उप प्रधानमंत्री बनने के बाद किया था। यानी उस समय भी पटेल के पक्ष में कांग्रेस में यह माहौल था कि गांधीजी की इच्छा और नेहरू की लोकप्रियता के बावजूद कांग्रेस के लोगों को लगता था कि सरदार पटेल बेहतर प्रधानमंत्री होंगे। दरअसल कांग्रेस के वास्तविक नेता वही हैं। लेकिन गांधीजी ने इस वास्तविकता को बदल दिया। और इस सारे छल प्रपंच को नेहरू ने स्वीकार कर लिया जिनके बारे में कहा जाता है कि वह आजाद भारत के सबसे बड़े डेमोक्रेट थे और डेमोक्रेसी से उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। उन नेहरू की प्रधानमंत्री बनने की प्रक्रिया इस तरह से पूरी की गई।
विरोधी भी चाहते थे पीएम बनें पटेल
गांधी के इस फैसले पर पटेल के विरोधियों ने भी उनके साथ हुए अन्याय पर अफसोस जाहिर किया। पटेल के सबसे बड़े विरोधी गिने जाते थे सी. राजगोपालाचारी। राजगोपालाचारी ने कहा ‘अच्छा होता पटेल पीएम और नेहरू विदेश मंत्री होते। मैं भी इस गलतफहमी में रहा कि नेहरू ज्यादा समझदार हैं। मुझे यह भी लगा कि पटेल मुसलमानों के प्रति सख्त होंगे पर यह गलत था।’
जिन मौलाना आजाद ने बयान देकर यह कहा था कि ‘इस समय की परिस्थिति में सरदार पटेल के बजाय नेहरू का कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना बेहतर होगा’… उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि ‘पटेल का समर्थन न करके मैंने बहुत बड़ी गलती की।’
डा. राजेंद्र प्रसाद सरदार पटेल के विरोधी नहीं थी। जब उनको यह खबर मिली कि सरदार पटेल के बजाय नेहरू को चुना गया है तो उन्होंने कहा कि ‘गांधी ने फिर एक बार ग्लैमरस नेहरू के पक्ष में अपने विश्वसनीय साथी को बलिदान कर दिया।’
यह तीन बड़े लोगों की प्रतिक्रिया है जिससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि गांधीजी ने क्या किया? इतना ही नहीं बल्कि नेहरू जी के जीवनी लेखक माइकल ब्रेचर ने भी लिखा है कि ‘परम्परा के अनुसार पटेल के अध्यक्ष होने की बारी थी। पटेल पंद्रह साल पहले अध्यक्ष थे, उसके बाद नहीं बने थे। गांधी ने दखल नहीं दिया होता तो पटेल पीएम होते।’
लोकतंत्र की हत्या
आजाद भारत की पहली सरकार की नींव इस तरह से रखी गई जिसमें आंतरिक लोकतंत्र की हत्या की गई- जिसमें हाईकमान कल्चर को स्थापित किया गया- जिसमें नेहरू ने बिना किसी संकोच के हारी हुई बाजी को जिताने की घोषणा को स्वीकार कर लिया।
लेकिन सरदार पटेल तो सरदार पटेल थे। उनको इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था कि उनको क्या पद मिला है। उन्हें अपने काम से मतलब था। कहा जाता है कि इस प्रकरण के कुछ दिनों बाद ही वह सामान्य ढंग से काम करने लगे, लोगों से मिलने-जुलने लगे- हंसने बोलने लगे। लेकिन नेहरू को प्रधानमंत्री होने के बावजूद उन्होंने कभी वह भाव नहीं दिया। यहां तक कि 1950 में जब कांग्रेस अध्यक्ष होने की बारी आई तो फिर एक बार नेहरू और पटेल आमने सामने थे। सरदार पटेल ने अध्यक्ष पद के लिए पुरुषोत्तम दास टंडन को खड़ा किया। नेहरू टंडन को बहुत बड़ा कम्युनल मानते थे, उनके घोर विरोधी थे। उन्होंने टंडन के मुकाबले में आचार्य कृपलानी को खड़ा किया। फखरुद्दीन अली अहमद उस समय केरल की प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने पहले पुरुषोत्तम दास टंडन के नाम का समर्थन किया था, जब सरदार पटेल ने उनसे बात की। लेकिन जब नेहरू ने कृपलानी को अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाया तो वह बदल गए और कृपलानी के पक्ष में हो गए। तब सरदार पटेल ने उन्हें चिट्ठी लिखी, जो पटेल की लिखी चिट्ठियों के संग्रह में शामिल है। पटेल ने लिखा कि ‘यह याद रखो कि नेहरू अच्छे समय में भी अपने दोस्तों को याद नहीं रखते और मैं अपने दुश्मनों को कभी भूलता नहीं।’ सरदार पटेल ने पुरुषोत्तम दास टंडन को चुनाव जितवा दिया।
निष्ठुर राजनीति
नेहरू ने कुछ लोगों से कहा था कि अगर आचार्य कृपलानी हार गए तो मैं इस्तीफा दे दूंगा। एक दिन सरदार पटेल से मिलने नेहरू जी के करीबी एक बड़े कांग्रेस नेता आए। तो सरदार पटेल ने हंसते हुए कहा कि क्या नेहरू का इस्तीफा लेकर आए हो। सरदार पटेल प्रधानमंत्री नहीं बने यह अलग बात है। लेकिन सरदार पटेल अगर अगले पांच साल उप प्रधानमंत्री भी रह गए होते तो इस देश की दिशा कुछ अलग होती। 1950 में कृपलानी के हारने के बाद नेहरू ने समझ लिया था कि पार्टी पर उनका अधिकार कभी नहीं हो पाएगा। दुर्भाग्य से दिसंबर 1950 में सरदार पटेल का निधन हो गया। एक संत, एक महान राष्ट्रवादी- जिसके साथ एक महात्मा ने छल किया। उसे जीवन में वह नहीं मिला जिसके वे पात्र थे। यह राजनीति है- राजनीति बड़ी निष्ठुर होती है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा कि ‘निष्ठुरता की सीपी में राजनीति का मोती पलता है।’