अनिल भास्कर।
क्या दोहरापन हमारी सियासत का स्थायी और सार्वभौम चरित्र बन चुका है? क्या शासकीय नीतियों के मूल्यांकन का आधार जनहित या राष्ट्रहित के बजाय सिर्फ सत्ता या विपक्ष की खेमेबाजी तक सिमट गया है? दलगत विचारधाराएं क्या सिर्फ पार्टी संविधान के पन्नों में पाबंद रह गई हैं? आम जनमानस में ये सवाल क्यों जन्म ले रहे हैं, इसे समझने के लिए केंद्र सरकारों और विपक्षी दलों की क्रिया-प्रतिक्रिया पर इस नज़रिए से नज़र डालने की जरूरत है। यह देखने-समझने की जरूरत है कि एक ही मुद्दे पर कैसे पार्टियों का स्टैंड सत्ता और विपक्ष की भूमिका में अलग-अलग हो जाता है। कैसे विरोध सिर्फ विरोध के लिए होकर रह जाता है।
परिपक्वता का मुलम्मा
दो दिन पहले की बात है। पहली बार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी केंद्र सरकार के निगमीकरण संबंधी फैसलों पर सवाल खड़े करते हुए परिपक्व नज़र आए। उन्होंने मुद्दे को उसकी गंभीरता के अनुरुप और पूरी तार्किकता के साथ रखा। विनिवेश को लेकर कांग्रेस का ताज़ा स्टैंड भी विस्तार से रखा, लेकिन वे स्टैंड में बदलाव को जस्टिफाई नहीं कर सके। मोनोपॉलिज्म की थ्योरी रखकर भी निगमीकरण के फैसले को कांग्रेस सरकार की नीतियों से अलग नहीं दिखा सके। वे शायद भूल गए कि देश में सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश की शुरुआत कांग्रेस के शासन में ही हुई थी। 24 जुलाई 1991 के औद्योगिक नीति वक्तव्य में पहली बार सार्वजनिक क्षेत्र के चुनिंदा उपक्रमों में सरकार की इक्विटी हिस्सेदारी के आंशिक विनिवेश की बात कही गई थी। शेयरों के विनिवेश के पीछे जो तर्क दिए गए थे वे ये कि इससे बाजार अनुशासन स्थापित करने, संसाधन जुटाने, व्यापक जन सहभागिता को प्रोत्साहित करने, अधिक उत्तरदायित्व की भावना पैदा करने और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कार्य निष्पादन में सुधार का लक्ष्य हासिल किया जाएगा। इसके बाद वर्ष 1992-93 में सार्वजनिक क्षेत्र के अलग-अलग उपक्रमों के शेयरों के लिए खुली नीलामी के द्वारा बोली लगाने की अनुमति दी गई। 1996 में पहली बार देश में विनिवेश आयोग का गठन किया गया जिसे सरकार को विनिवेश की सीमा, पद्धति, समय और मूल्य के संबंध में सिफारिश की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
कांग्रेसी वित्तमंत्रियों की दलील
अब जरा विनिवेश को लेकर कांग्रेस के तत्कालीन वित्तमंत्रियों की दलीलें भी सुन लीजिए। वर्ष 2004-05 का बजट भाषण पढ़ते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार के वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा था कि विनिवेश और निजीकरण उपयोगी आर्थिक उपकरण हैं। इससे अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने में मदद मिलेगी। पीवी नरसिम्हा राव सरकार के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने तो निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए यहां तक कह दिया था कि सरकार का काम व्यवसाय करना नहीं सिर्फ गवर्नेंस है।
हवाई अड्डों का निजीकरण
मत भूलिए कि वर्ष 2006 में पहली बार दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डे का निजीकरण कांग्रेस सरकार ने किया। मनमोहन सिंह ने सबसे पहले दिल्ली का इंदिरा गांधी एयरपोर्ट जीएमआर ग्रुप को सौंपा था। मनमोहन सिंह ही सबसे पहले टोल टैक्स पॉलिसी भी लेकर आए थे जिसके तहत निजी कंपनियों को सड़क बनाने और उस पर टोल टैक्स वसूलने की अनुमति दी गई थी। यहाँ तक कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के संचालन के लिए वर्ष 2013 में कांग्रेस सरकार ने एक निजी कंपनी बनाई थी और जीएसटी का पूरा डाटा सौंपना चाहती थी। लेकिन तब जीएसटी का प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका था।
एचडीएफसी, आईसीआईसीआई, यूटीआई किसने बेचा
जहां तक बैंकों के निजीकरण का सवाल है, एचडीएफसी (हाउसिंग डेवलपमेंट एंड फाइनेंस कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया) आम लोगों को घर खरीदने-बनाने के लिए सस्ते ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध कराने वाली भारत सरकार की संस्था थी, जिसे पीवी नरसिम्हा राव सरकार के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने बेच दिया और अब वह बैंकिंग क्षेत्र का बादशाह है। इसी तरह आईसीआईसीआई यानी इंडस्ट्रियल क्रेडिट एंड इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया भारत सरकार की वह संस्था थी जो बड़े उद्योगों को लोन देती थी। लेकिन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने इसे भी निजी क्षेत्र को बेच दिया और इसके बाद इसका नाम आईसीआईसीआई बैंक हो गया। कुछ ऐसी ही कहानी एक्सिस बैंक की भी है। यह भारत सरकार की एक संस्था हुआ करती थी उसका नाम था यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया। यह संस्था आम लोगों के बीच लघु बचत को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी, लेकिन मनमोहन सिंह ने यह कहते हुए इसे भी बेच दिया कि सरकार का काम चिटफंड स्कीम चलाना या लोन बांटना नहीं, सिर्फ सरकार चलाना है। याद कीजिए आज यही तीनों निजी क्षेत्र के सबसे बड़े और कामयाब बैंक हैं।
नवरत्नों के साथ ऐसा सलूक
आपको शायद यह जानकर हैरानी हो कि 33 सार्वजनिक उपक्रम अकेले यूपीए-2 के शासन काल में बेचे गए। वह भी तब जब देश के वित्तमंत्री सबसे काबिल अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह थे। इनमें एनटीपीसी, एनएचपीसी, भेल, सेल, नाल्को, ओएनजीसी, आईओसी, ग्रामीण विद्युतीकरण निगम, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम, कोल इंडिया लिमिटेड, पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड जैसे विशाल उपक्रम शामिल हैं। यहां एक और मजेदार रहस्योद्घाटन देखिए। 1997 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की 11 कंपनियों जो तुलनात्मक दृष्टि से लाभ की स्थिति में थीं, को नवरत्न का दर्जा दिया और सार्वजनिक क्षेत्र के इन उपक्रमों के निदेशक मंडल को पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान की जिससे ताकि वे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका निभाने में सफल हो सकें। ये उपक्रम थे- आईओसी, ओएनजीसी, बीपीसीएल, एनटीपीसी, सेल, बीएसएनएल, भेल, गेल और एमटीएनएल। इन उपक्रमों को आकार, कार्यनिष्पादन, कार्य प्रकृति, उन्नयन की संभावनाओं और विश्वस्तर पर भूमिका निभाने के सामर्थ्य के आधार पर नवरत्नों की सूची में शामिल किया गया था, लेकिन इनमें से अधिकतर को बाद के वर्षों में बेच दिया गया।
दोहरे मानदण्ड इधर भी, उधर भी
ऐसा नहीं कि विनिवेश या किसी अन्य राष्ट्रीय मुद्दे पर सिर्फ कांग्रेस ने भूमिका बदलते ही अपना स्टैंड बदला हो। केंद्र की मौजूदा भाजपा सरकार ने भी विनिवेश के साथ साथ आधार, जीएसटी और एनआरसी जैसे मुद्दों पर अपना स्टैंड बदला है। तभी तो सियासत में दोहरे मानदंड का चरित्र सार्वभौम दिखता है। विरोध भी महज़ विरोध के लिए। दलों को यह बताने की जरूरत नहीं कि सकारात्मक और विकासमूलक राजनीति का संकल्प जब तक हाशिए पर रहेगा, जनहित अधर में लटकता रहेगा।
(लेखक दैनिक हिंदुस्तान के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)