प्रदीप सिंह।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव ने बुधवार को एक फैसला सुनाया जो गौ हत्या के विरोध में और गौ रक्षा के पक्ष में है। उन्होंने उत्तर प्रदेश के संभालपुर में रहने वाले जावेद की जमानत याचिका यह कहते हुए रद्द कर दी कि इसने गौ हत्या की है। न्यायाधीश यहीं पर नहीं रुके। उन्होंने कहा कि ‘गौ हत्या रोका जाना हिंदुओं का मौलिक अधिकार होना चाहिए। सरकार संसद में एक विधेयक लाकर कानून बनाए और गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करे।’ इसके अलावा ‘उन लोगों के खिलाफ सख्त कानून बनाया जाए जो गाय को नुकसान पहुंचाने की बात भी करते हैं।’ जस्टिस शेखर यादव ने कहा कि जब देश की संस्कृति और आस्था कमजोर होती है तो देश कमजोर होता है।
साधु संतों पर गोली
यह फैसला सुनकर मन में कई सवाल आते हैं और कुछ बातें याद आती हैं। याद आती है 7 नवंबर 1966 की तारीख। उस दिन संसद के बाहर गौ रक्षा और गौ हत्या पर प्रतिबन्ध का कानून बनाने की मांग कर रहे साधु-संतों, गौ रक्षकों पर गोली चली। पुलिस फायरिंग में कई लोग मारे गए। मारे गए लोगों की संख्या के बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं है। आधिकारिक रूप से कहा जाता है कि आठ लोग मारे गए। बाकी जो अलग-अलग अनुमान है उनमें मरनेवालों का आंकड़ा 375 से लेकर ढाई हजार और पांच हज़ार तक होने की बात कही गई है। लेकिन कोई पुष्ट संख्या न होने के कारण दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। डेढ़ हजार लोग गिरफ्तार हुए। कई सौ लोग घायल हुए।
ऐसी कार्रवाई पहली बार
विशेषज्ञों का कहना है कि साधु संतों पर ऐसी कार्रवाई पहली बार हुई। पहली बार हिंदू साधु-संतों पर गोली चली। उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। ऐसा नहीं कि यह सब अचानक हो गया। गौ रक्षा की बात करें तो- जितनी जानकारी मैंने इकट्ठा की है उसके अनुसार- गोरक्षा का पहला आंदोलन सन 1800 में शुरू हुआ था। यह आंदोलन असम में ऊका प्रजाति ने किया था। वहां से इस आंदोलन को आर्य समाज ने अपनाया। 1882 में पहली बार पंजाब में गौरक्षिणी सभा का गठन हुआ। 1857 में हुए भारत के आजादी के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद अगर कोई बड़ी घटना हुई तो वह 1893 में हुई- जब गाय के मुद्दे पर दंगे हुए।
संविधान में गोरक्षा
फिर 1947 में देश आजाद हुआ, संविधान बना। संविधान निर्माताओं ने गोरक्षा को संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में रखा। यह उम्मीद थी कि आगे चलकर सरकार इस पर कानून बनाएगी। जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे। वह इस तरह के कानून के पक्ष में नहीं थे। जब गौ रक्षा की मांग होने लगी और इस पर कानून बनाने का दबाव बढ़ने लगा तो जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि अगर इस तरह का कोई बिल पास किया जाता है या ऐसी कोशिश होती है तो मैं प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दूंगा। इसलिए नेहरू के रहते इस तरह का कोई विधेयक पास नहीं हुआ और कोई कानून नहीं बना।
आंदोलन की रूपरेखा
नेहरू के निधन के बाद 1965 में गौ रक्षा के लिए आंदोलन की रूपरेखा बनी। मांग होने लगी कि गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए सरकार संसद में कानून बनाए। 1965 में दिल्ली में एक बैठक हुई जिसमें सनातन धर्म के चार शंकराचार्यों में से तीन शंकराचार्य शामिल हुए। इसमें राम राज्य परिषद, हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी शामिल हुए। बैठक में पुरी के शंकराचार्य ने कहा कि आंदोलन को सफल बनाने के लिए अगर जरूरत पड़ी तो वह आमरण अनशन करने के लिए भी तैयार हैं। उस समय केंद्र और राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें थीं। बैठक में तय हुआ कि कांग्रेस की सरकारों के मंत्रियों और नेताओं का घेराव कर उन पर दबाव डाला जाए कि वे सरकार को संसद में गौ हत्या के विरोध में कानून बनाने के लिए तैयार करें। नवंबर 1965 में गौ रक्षा समिति का गठन हुआ। इसी दौरान महाराष्ट्र के वाशिम में गोरक्षा आंदोलन को लेकर प्रदर्शन के दौरान दंगा हुआ। पुलिस फायरिंग में 11 लोगों की मृत्यु हुई। जाहिर है दंगा हुआ तो उसमें दो पक्ष रहे होंगे। यह दंगा हिंदू और पुलिस या गौ रक्षकों और पुलिस के बीच नहीं हो रहा था। तो अनुमान लगाया जा सकता है दंगा किनके बीच हुआ होगा।
साधु संतों का संसद मार्च
इस घटना के बाद भारतीय जनसंघ- जो भारतीय जनता पार्टी का पुराना स्वरूप है- गोरक्षा आंदोलन में शामिल हो गई। फिर एक बैठक हुई जिसमें तय किया गया कि 7 नवंबर 1966 को संसद की ओर मार्च करेंगे। आंदोलन का नेतृत्व प्रसिद्ध संत स्वामी करपात्री जी को सौंपा गया। वह भारत के सबसे सम्मानित और प्रतिष्ठित संत थे और पूरे देश में उनकी मान्यता थी। कहा जाता है कि वह शंकराचार्य तो नहीं थे लेकिन उनका सम्मान शंकराचार्य के बराबर ही होता था। इससे पहले 1967 में होने वाले लोकसभा चुनाव में विजय के लिए आशीर्वाद लेने इंदिरा गांधी स्वयं करपात्री जी के पास गयी थीं। उन्होंने करपात्री जी को आश्वासन दिया था कि अगर वह चुनाव में जीत गयीं और उनकी सरकार बनी तो गौ हत्या पर रोक के लिए संसद से कानून पास कराएंगी। हालांकि उन्होंने वैसा कभी किया नहीं- यह अलग बात है। 7 नवंबर को 1966 को साधु-संतों और गौ रक्षकों पर गोली चली। उसके बाद कर्फ्यू लगा दिया, सेना बुला ली गई। साधु संतों और प्रदर्शन कर रहे लोगों की मांग सिर्फ इतनी थी कि कानून बनाकर गौ हत्या पर रोक लगा दी जाए। अब हाईकोर्ट भी वही बात कह रहा है कि गौरक्षा हिंदुओं का मौलिक अधिकार होना चाहिए। संविधान निर्माताओं ने इसे नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया। उस गोलीबारी में कई सौ लोग घायल हुए। डेढ़ हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। उस समय जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक को गिरफ्तार किया गया। करनाल से जनसंघ के सांसद रामेश्वरानंद को गिरफ्तार किया गया। रामेश्वरानंद के भाषण के बाद ही यह भीड़ उग्र हुई थी। सांसद होने के नाते वह संसद में गौ हत्या पर रोक का कानून बनाने की बात बार-बार उठा रहे थे। इस पर उनको 10 दिन के लिए संसद की कार्यवाही से निलंबित कर दिया गया। उन्होंने अपने भाषण में लोगों से कहा कि मुझको यह मांग करने पर संसद से निलंबित कर दिया गया है और आपको संसद में घुसना चाहिए। साधु संत बैरिकेड तोड़कर संसद में घुसने लगे। पुलिस ने पहले लाठीचार्ज किया, फिर आंसू गैस के गोले छोड़े और उसके बाद फायरिंग शुरू हो गई।
करपात्री जी का श्राप
फिर 18 या 20 नवंबर को प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और पुरी के शंकराचार्य आमरण अनशन पर बैठ गए। कहा जाता है कि उसी दौरान जब साधुओं के शव उठाए जा रहे थे करपात्री जी ने इंदिरा गांधी को श्राप दिया कि जैसे गोलियों की बौछार से साधुओं की मौत हुई है उसी तरह से आपकी भी होगी। अब हम इसे करपात्री जी के श्राप का असर मानें या कोई और कारण समझें, लेकिन हुआ ऐसा ही। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और पुरी के शंकराचार्य के अनशन से सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। उनके साथ कई और साधु संत भी आमरण अनशन पर बैठे थे जिनमें से कुछ को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और जबरन उनका आमरण अनशन तुड़वा दिया। यहां यह बताना जरूरी है कि उस समय गुलजारीलाल नंदा देश के गृहमंत्री थे और गौ रक्षा आंदोलन के समर्थक थे। वह पुलिस फायरिंग से दुखी थे। लेकिन इस सारे घटनाक्रम का दोष उन पर मढ़ दिया गया और उन्हें अक्षम करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें गृह मंत्री के पद से हटा दिया। उनके बाद यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण को गृह मंत्री बनाया गया। जब सरकार को लगा कि दोनों शीर्ष संतों का यह आमरण अनशन नहीं टूटेगा और उनका स्वास्थ्य खराब होता जा रहा है- तो इंदिरा गांधी ने गृहमंत्री यशवंतराव बलवंत राव चव्हाण को उनके पास भेजा। चव्हाण पुरी के शंकराचार्य और प्रभुदत्त ब्रह्मचारी से मिले और आश्वासन दिया कि सरकार ने तय किया है कि अगले संसद सत्र में गौ हत्या पर रोक के लिए देशव्यापी कानून बनाने का विधेयक लाया जाएगा। इस आश्वासन पर संतों ने अनशन तोड़ दिया।
कांग्रेस की स्थिति खराब
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और पुरी के शंकराचार्य को दिया वह आश्वासन सरकार ने कभी पूरा नहीं किया। यानी यह केवल उनका अनशन खत्म कराने के लिए सरकार के तरफ से बोला गया एक झूठ था। इस पूरी घटना का तत्काल तो कोई राजनीतिक असर नहीं हुआ लेकिन 1967 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति खराब हो गई। उसका मत प्रतिशत गिर गया, सीटें कम हो गयीं। बमुश्किल केंद्र में सरकार बन पाई। 1969 में जब कांग्रेस पार्टी में टूट हुई तो कांग्रेस को वामपंथी दलों का सहारा लेना पड़ा। 1952 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे। 1971 में जब इंदिरा गांधी ने मध्यावधि चुनाव कराया तो उसके बाद से यह क्रम टूटा।
नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें
1967 में एक बात और हुई। आजादी के बाद पहली बार देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। यह गौ रक्षा आंदोलन का भी असर था। वैसे तो इसके बहुत से और भी कारण थे- लेकिन उस आंदोलन का गहरा प्रभाव था। इससे इंदिरा गांधी को लगा कि इस मुद्दे पर कुछ करना चाहिए। उन्होंने एक कमेटी बनाने की बात कही। आज पीछे मुड़कर देखने पर लगता है जैसे उन्होंने छलावे के लिए या लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए यह बात कही थी। उन्होंने कहा कि कमेटी इस बात पर विचार करेगी कि क्या पूरे देश में गौ हत्या रोकने का कानून बनाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट से कुछ महीने पहले ही रिटायर हुए जस्टिस एके सरकार को इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। कमेटी में दो मुख्यमंत्री थे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डी पी मिश्रा। इसके अलावा चार नौकरशाह रखे गए। नेशनल डेयरी बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष वी कुरियन और अर्थशास्त्री अशोक मित्रा। इसके अलावा गौ रक्षकों और संतों से कहा गया कि आप कमेटी में शामिल करने के लिए अपनी ओर से तीन लोगों का नाम सुझाएं। संतों की ओर से सुझाए गए तीन नामों में पहला नाम था पुरी के शंकराचार्य का। दूसरा नाम था आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर गुरुजी का। और तीसरा नाम था आर पी मुखर्जी का, जो रिटायर्ड जज थे और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बड़े भाई थे।
गाय पर हिंदुओं की भावनाएं भुनाना चाहती थीं इंदिरा
कमेटी का कार्यकाल छह महीने रखा गया। कहा गया कि कमेटी छह महीने में अपनी रिपोर्ट देगी। लेकिन कमेटी का कार्यकाल बढ़ता रहा। कमेटी कुछ कर नहीं रही थी- यह देखते हुए जुलाई 1968 में साधु संतों की ओर से नामित तीनों सदस्यों ने कमेटी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन कमेटी बनी रही और उसका कार्यकाल बढ़ाया जाता रहा। 1979 में जब मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसने इस कमेटी को भंग कर दिया। इससे मालूम होता है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस ने कुछ नहीं किया। इसे विडंबना कहें या कुछ और कि 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया। पार्टी का चुनाव निशान फ्रीज हो गया। 1971 के चुनाव के लिए इंदिरा गांधी ने पार्टी के अपने गुट के लिए गाय बछड़ा चुनाव चिन्ह लिया। वह गाय को लेकर हिंदुओं की भावनाएं तो भुनाना चाहती थीं लेकिन इन भावनाओं से जुड़ी मांगों को पूरा करने के लिए कुछ करने को राजी नहीं थीं।
क्यों नहीं बन सका गौ रक्षा कानून
संतों की इतनी बड़ी कुर्बानी के बाद भी 55 सालों में देश में ? उस समय तो हिंदुओं की आबादी 80 फ़ीसदी से भी ज्यादा थी। आज भी 78 फ़ीसदी है। आज इलाहाबाद हाईकोर्ट का जज कह रहा है कि गोरक्षा हिंदुओं का मौलिक अधिकार होना चाहिए। लेकिन तुष्टीकरण की राजनीति उसे होने नहीं दे रही है और उसे होने नहीं दिया। इस बीच जनवरी 1967 में इंदिरा गांधी ने एक और काम किया था। उन्होंने राज्यों से कहा कि जो राज्य अपने राज्य में गोरक्षा का कानून बनाना चाहते हैं वे बना सकते हैं। लगभग 20 राज्यों में इस तरह का कानून हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कोई कानून नहीं है। इलाहाबाद हाई कोर्ट अपने फैसले में गौ रक्षा को हिंदुओं का मौलिक अधिकार कहकर ही नहीं रुक गया। उसने कहा कि जीवन रक्षा बड़ा अधिकार है जीवन लेने से यानी मारने वाले से बचाने वाला बड़ा है। हाईकोर्ट ने कहा कि जीभ के लिए जीव हत्या का अधिकार नहीं मिल सकता। न्यायाधीश ने यह भी कहा कि ‘हम जब जब अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूले हैं तब तक विदेशी आक्रमणकारियों ने हम पर हमला किया है और गुलाम बनाया है।’ इसके साथ ही उन्होंने उदाहरण दिया कि ‘देखिए अफगानिस्तान में क्या हो रहा है। उससे सबक लेने की जरूरत है।’
क्या सरकार सबक लेगी
अब सवाल यह है कि क्या सरकार इससे सबक लेगी। पचपन साल पहले साधु संतों की दी गई वह कुर्बानी अपने उद्देश्य को हासिल करने में सफल होगी या उनकी कुर्बानी अब भी बेकार चली जाएगी। सरकार के पास अब दो आधार हो गए हैं। एक- संविधान के नीति निर्धारक सिद्धांतों में गौ रक्षा की बात और दूसरा- इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला। उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इस दिशा में कोई ठोस कदम जरूर और जल्दी उठाएगी।