प्रमोद जोशी ।
अफगानिस्तान में नई सरकार बन जाने के बाद अब अगला सवाल है कि क्या दुनिया इस सरकार को स्वीकार करेगी? स्वीकार करना यानी पहले मान्यता देना, फिर उसके पुनर्निर्माण में सहायता देना। केवल भारत के नजरिए से देखें, तो यह सवाल और ज्यादा पेचीदा है। भारतीय दृष्टिकोण के साथ यह बात भी जुड़ी है कि तालिबान के पाकिस्तान के साथ रिश्ते किस प्रकार के होंगे। कहा जा रहा है कि जिस प्रकार भारत ने सन 1949 में चीन में हुए सत्ता-परिवर्तन के बाद मान्यता देने में जल्दबाजी की थी, वैसा नहीं होना चाहिए।

संरा की सदस्यता का मामला

फिलहाल ज्यादातर सवाल अमेरिका की नीति से जुड़े हैं। इसके अलावा इस बात पर भी कि संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में आमराय क्या बनती है। क्या तालिबान सरकार के नेतृत्व में अफगानिस्तान को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिलेगी? क्या तालिबान पर लगे सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध हटेंगे? संयुक्त अमेरिका से आए बयानों में कहा गया है कि जो अफगानिस्तान सरकार अपने देशवासियों के मानवाधिकार की रक्षा करेगी और अपनी जमीन से आतंकवाद का प्रसार नहीं करेगी, उसके साथ हम मिलकर काम करेंगे। वहाँ के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि हम तालिबान के बयानों के आधार पर फैसला नहीं करेंगे, बल्कि देखेंगे कि उसका व्यवहार कैसा है।

अमेरिका की भूमिका

लगता यह है कि ज्यादातर देश विचार-मंथन में समय लगा रहे हैं। जरूरी नहीं कि कोई देश अफगान सरकार को मान्यता देने के लिए संरा की आमराय का इंतजार करे, पर अभी कोई पहल कर नहीं रहा है। अमेरिका के भीतर अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर बहस चल रही है। बाइडेन प्रशासन अपने फैसलों को सही साबित करने का प्रयास कर रहा है, पर उसे तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है।

वाकई अमेरिका हारा!

How Osama bin Laden was found by his family's hanging laundry

सवाल यह भी है कि क्या अफगानिस्तान में अमेरिका की हार हुई है? इसे हार कैसे कह सकते हैं? अमेरिका ने 11 सितम्बर 2001 की घटना के बाद अफगानिस्तान में जब प्रवेश किया था, तब उसका पहला उद्देश्य ओसामा बिन लादेन का सफाया था। उसने तालिबान को परास्त किया, लादेन की हत्या की, अफगानिस्तान में एक सरकार बनाई और उसे बीस साल तक सहायता दी। डोनाल्ड ट्रंप की सरकार के नीति-निर्णय के तहत उसने मुकर्रर वक्त पर अफगानिस्तान को छोड़ दिया।

तालिबान की जीत कैसे?

Taliban finalise Afghanistan govt formation, invite China, Russia, Pakistan for ceremony - World News

बेशक इससे तालिबान को वापस आने का मौका मिला, पर इसे तालिबान की जीत कैसे कहेंगे? आज भी तालिबान अमेरिका का मुँह जोह रहा है। तालिबान ने पहले के मुकाबले अपने व्यवहार को सौम्य बनाने की घोषणा किसके दबाव में की है? विजेता का व्यवहार पूरी तरह ऐसा नहीं होता। यह आंशिक विजय है, जो दुनिया में नए ध्रुवीकरण का बीज डाल सकती है। वैश्विक-राजनीति में इसे रूस-चीन गठजोड़ की जीत के रूप में देखा जा रहा है।

भारत की दुविधा

जहाँ तक भारत का सवाल है, उसके सामने विकट स्थिति है। हालांकि भारत के राजदूत ने दोहा में तालिबान प्रतिनिधि से बातचीत की है, पर इसका मतलब यह नहीं कि तालिबान को स्वीकार कर लिया। तालिबान के पीछे कौन सी ताकतें हैं, यह जानकारी भारत सरकार के पास पूरी है। सवाल है कि भविष्य की रणनीति क्या होगी? संयुक्त राष्ट्र की भूमिका अफगानिस्तान में क्या होगी और दुनिया का फैसला एक जैसा होगा या दो धड़ों के रूप में दुनिया बँटेगी? तालिबान को मान्यता के मामले में तमाम पेचो-खम हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या तालिबान पूरे अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? क्या सारे समुदाय एक झंडे के नीचे हैं? दूसरे वैश्विक-राजनीति में अब अफगानिस्तान सरकार की भूमिका क्या होगी? तालिबान ने अमेरिका के साथ समझौता जरूर किया है, पर उन्होंने चीन के साथ सम्पर्क बढ़ाया है।

बरादर- वांग यी मुलाकात

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काबुल पर कब्जे के कुछ समय पहले ही मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर के नेतृत्व में तालिबान का प्रतिनिधि-मंडल चीन जाकर वहाँ के विदेशमंत्री वांग यी से मिला था। अफगानिस्तान का भावी शासनाध्यक्ष चीन के विदेशमंत्री से क्यों मिलने गया? यह संयोग नहीं था कि उसी दिन पाकिस्तान के विदेशमंत्री भी चीन गए थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि उस समय अशरफ ग़नी की सरकार वैधानिक रूप से अफगानिस्तान की सरकार थी। उस वक्त चीनी विदेश-मंत्रालय ने कहा था कि अफगानिस्तान का शासन उसके ही लोगों के हाथ में होना चाहिए।

महीनों पहले बिछी बिसात

PM briefed on regional security situation at ISI headquarters - Newspaper - DAWN.COM

रूस भी इस मामले में चीन के साथ है। ज़ाहिर है कि बिसात महीनों पहले से बिछाई जा चुकी थी। और अब सरकार बनते समय पाकिस्तानी आईएसआई के डायरेक्टर जनरल लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद तालिबान के निमंत्रण पर पाकिस्तानी अधिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए काबुल पहुंचे हैं। क्या हमें अब भी तालिबान की राजनीतिक पृष्ठभूमि और उनकी सदाशयता के बारे में अनुमान लगाने होंगे?

अमेरिका का दृष्टिकोण

तालिबान खुद को ‘अफगानिस्तान का इस्लामिक अमीरात’ मानते रहे हैं और अमेरिका के साथ बातचीत में भी उन्होंने यही माना। दूसरी तरफ अमेरिका ने अमीरात को कभी मान्यता नहीं दी और तालिबान शब्द का ही इस्तेमाल किया। अब जब तालिबान अपने देश को अमीरात घोषित कर चुके हैं, तब अमेरिका का दृष्टिकोण क्या है, यह देखना होगा। यही सवाल भारत के सामने भी है। भारतीय राजदूत की तालिबान प्रतिनिधि से वार्ता के बाद काफी लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि भारत ने तालिबान को मान्यता दे दी है। फिलहाल ऐसा नहीं है। बेशक यह पहली आधिकारिक मुलाकात है, पर भारत ने कुछ समय पहले से अनौपचारिक स्तर पर तालिबान से सम्पर्क स्थापित किया था।

भारत का सम्पर्क

जुलाई में भारत ने माना था कि दोहा में हमारे राजनयिकों ने तालिबान के राजनीतिक प्रतिनिधियों से सम्पर्क बनाया है। व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्पर्क जरूरी भी था, क्योंकि जब काबुल से भारतीयों को निकालने की जरूरत हुई, तब तालिबान की मदद लेनी पड़ी। सबसे बड़ी बात यह कि अमेरिका उनके साथ सीधे बात कर रहा है, जब हम कितनी दूरी बनाएं? इससे तालिबान की वैधानिकता बढ़ी है, पर कितनी यही देखना है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)