प्रमोद जोशी।

तालिबान सरकार घोषित होने के बाद अफगानिस्तान के दूतावासों का क्या होगा? क्या वहाँ नए कर्मचारी आएंगे? यह सवाल तब खड़ा होगा, जब दुनिया की सरकारें तालिबान सरकार को मान्यता देंगी। काबुल में नई सरकार की घोषणा होने के बाद अफगानिस्तान के नई दिल्ली स्थित दूतावास ने एक बयान जारी करके कहा है कि यह सरकार अवैध है। अफगान दूतावास का बयान तालिबान से खुद को दूर करता है, जिन्होंने पिछले महीने सत्ता संभाली थी। सवाल यह भी है कि दूतावास की हैसियत क्या होगी? दुनिया भर में अफगानिस्तान के दूतावासों का अब क्या होगा?


तालिबान शासन को मान्यता का मामला

Taliban says security of airports, embassies to be 'Afghan responsibility', South Asia News | wionews.com

यह सवाल भारत सहित अधिकतर तालिबान के नेतृत्व वाले नए शासन की मान्यता के मुद्दों को खोलेगा। भारत की स्थिति महत्वपूर्ण होगी क्योंकि यह सुरक्षा परिषद का एक अस्थायी सदस्य है और यूएनएससी प्रतिबंध समिति की अध्यक्षता करता है। संयुक्त राष्ट्र को अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन के भविष्य के बारे में फैसला करना होगा, जिसका कार्यादेश इसी महीने समाप्त हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध समिति को भी उन प्रतिबंधित आतंकवादियों के बारे में विचार करना होगा जो मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं। नई सरकार के 33 में से कम से कम 17 संयुक्त राष्ट्र की आतंकवादी सूची में हैं। हाल में सुरक्षा परिषद के एक प्रस्ताव से पर्यवेक्षकों ने अनुमान लगाया था कि तालिबान के साथ आतंकवाद का विशेषण हटा लिया गया है। पर यह अनुमान ही है, क्योंकि ऐसी कोई घोषणा नहीं है। पश्चिमी देशों के जिस ब्लॉक के साथ भारत जुड़ा है, उसकी सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि अफगानिस्तान अब चीनी पाले में चला जाएगा।

अल कायदा से रिश्ते

How America Made Osama Bin Laden's Dream Com True

तालिबान से जुड़े मामलों में एक महत्वपूर्ण मसला है कि अल कायदा के साथ उसके रिश्तों का। बीबीसी मॉनिटरिंग के द्रिस अल-बे की एक टिप्पणी में पूछा गया है कि तालिबान की वापसी से एक अहम सवाल फिर उठने लगा है कि उनके अल-क़ायदा के साथ के संबंध किस तरह के हैं। अल-क़ायदा अपने ‘बे’अह’ (निष्ठा की शपथ) की वजह से तालिबान से जुड़ा हुआ है। पहली बार यह 1990 के दशक में ओसामा बिन लादेन ने तालिबान के अपने समकक्ष मुल्ला उमर से यह ‘कसम’ ली थी। उसके बाद यह शपथ कई बार दोहराई गई, हालाँकि तालिबान ने इसे हमेशा सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया है।

चीनी प्रभाव को लेकर भारत और अमेरिका चिंता में

Afghanistan: Joe Biden speech on withdrawal fact-checked - BBC News

अमेरिका और भारत दोनों को अफगानिस्तान पर सम्भावित चीनी प्रभाव को लेकर चिंता है। अमेरिका का कहना है कि जहाँ तक प्रतिबंधों का मामला है, हम तालिबान के व्यवहार को देखने के बाद ही फैसला करेंगे। राष्ट्रपति जो बाइडेन का कहना है कि तालिबान के साथ चीन समझौता करने की कोशिशें कर रहा है। ह्वाइट हाउस ने अपने आधिकारिक बयान में कहा कि अमेरिका तालिबान सरकार को मान्यता देने की जल्दी में नहीं है। दुनिया के देशों में इस बात पर मतैक्य नहीं होगा, पर भारत सरकार के सामने दुविधा की स्थिति है। जिस देश के गृहमंत्री पर भारत के काबुल स्थिति दूतावास पर हमले का आरोप है, क्या उस सरकार को हमें मान्यता देनी चाहिए?

वास्तविकताएं

Taliban Supreme Leader Hibatullah Akhundzada Tells New Government To Uphold Sharia Law

सवाल यह भी है कि दुनिया मान्यता देगी, तो हम पीछे कैसे रहेंगे? राजनयिक रिश्ते कायम करने के पीछे केवल भावनात्मक कारण नहीं होते, बल्कि वास्तविकताएं होती हैं। अफगानिस्तान के दिल्ली स्थित दूतावास के बयान में कहा गया है कि ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान, लोगों की स्वतंत्र इच्छा से उपजा है और लाखों नागरिकों की दृष्टि और महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है।’ सवाल है कि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान को मान्यता होगी या इस्लामिक अमीरात को जो तालिबानी सरकार है?

नए नियम

Afghanistan: Taliban announce new caretaker government | News | DW | 07.09.2021

तालिबान सरकार ने कहा है कि भविष्य में देश में जुलूसों और प्रदर्शनों के लिए अनुमति लेनी होगी। नए आदेश के मुताबिक प्रदर्शन करने से 24 घंटे पहले सरकार से प्रदर्शन की इजाजत लेनी होगी। इतना ही नहीं प्रदर्शन में क्या नारेबाजी होगी यह भी लिखित में बताना होगा। सरकार से प्रदर्शन की इजाजत मिलती है तभी प्रदर्शन कर सकेंगे वरना बिना इजाजत के विरोध प्रदर्शन करने वालों को कड़ी सजा दी जाएगी। तालिबान के अमीर-उल-मोमिनीन हिबातुल्ला अखुंदज़ादा ने अपने पहले वक्तव्य में कहा है कि हम सभी अंतरराष्ट्रीय समझौतों और संधियों को स्वीकार करेंगे, बशर्ते वे शरिया के विरुद्ध नहीं हों।

शरिया कानून के तहत सजा

America Designates Abdul Aziz Hakkani As Global Terrorist - अब्दुल अजीज हक्कानी को अमेरिका ने वैश्विक आतंकवादी घोषित किया | Patrika News

तालिबान सरकार में शिक्षा मंत्री अब्दुल बाकी हक्कानी हैं, जो अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी सूची में शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें 2001 से ब्लैक लिस्ट किया हुआ है। तालिबान ने अफगानिस्तान में स्कूल और कॉलेज जाने वाली लड़कियों के लिए नए नियम बना दिए हैं। पहला नियम है, अब लड़कियों के लिए हिजाब और नकाब पहन कर स्कूल और कॉलेज जाना अनिवार्य है। इन नियमों का उल्लंघन करने पर शरिया कानून के तहत सजा दी जाएगी। पिछली सरकार में तालिबान ऐसा होने पर महिलाओं को चौराहे पर कोड़े मारने की सजा देता था। इस बार भी ऐसी सजा मिल सकती है।

लड़के-लड़कियों की अलग-अलग पढ़ाई

What does Sharia law mean for women in Afghanistan under Taliban? - World News

लड़के और लड़कियों की पढ़ाई अब अलग-अलग होगी। स्कूल में ज्यादा कमरे नहीं हैं तो ऐसी स्थिति में दोनों को साथ पढ़ाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए लड़के और लड़कियों के बीच पर्दा करना होगा। इस पर्दे को तालिबान ने शरिया पार्टीशन नाम दिया है। काबुल की कुछ तस्वीरें प्रकाशित हुई  हैं, जहां यह पर्दा दिखाया गया है।

काले शीशे, खिड़कियों पर परदे

युनिसेफ  के अनुसार अफगानिस्तान में हर तीन में से दो शिक्षक पुरुष हैं। ग्रामीण इलाकों में तो हालात और भी खराब हैं। युनिसेफ ही एक रिपोर्ट कहती है कि जो महिला शिक्षक हैं वे भी तालिबान के डर से अफगानिस्तान में नहीं रहना चाहतीं। स्कूल और कॉलेज में पढ़ाने वाली महिला शिक्षिकाओं को भी हिजाब और नकाब पहनना होगा। लड़कियों को स्कूल और कॉलेज की बस में ही सफर करना होगा। इन बसों के शीशे काले होंगे और खिड़की पर पर्दे भी लगाए जाएंगे। पुरुष ड्राइवर की सीट के पीछे और साइड में भी पर्दा लगाया जाएगा ताकि वह लड़कियों को ना देख पाए और लड़कियां उसे ना देख पाएं।

लड़कियों की छुट्टी पांच मिनट पहले

किसी स्कूल कॉलेज में लड़के लड़कियां साथ पढ़ते हैं तो लड़कियों की छुट्टी लड़कों से पांच मिनट पहले हो जाएगी। इन पांच मिनट में लड़कियों को उनकी क्लास से वेटिंग रूम में ले जाया जाएगा। यहां लड़कियां तब तक बैठी रहेंगी, जब तक सभी लड़के छुट्टी के बाद स्कूल से बाहर नहीं चले जाते। लड़कों के जाने के बाद ही लड़कियां अपनी बसों में जाकर बैठेंगी। यह नियम इसलिए है ताकि लड़के और लड़कियां के बीच कोई सम्पर्क नहीं हो। साथ पढ़ने वाले लड़के लड़कियां ना तो आपस में बात कर सकते हैं और ना ही एक दूसरे से आंखें मिला सकते हैं। अगर कोई लड़की ऐसा करती है तो उसे शरिया कानून के तहत सजा दी जाएगी। 2001 में जब तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता से बाहर हुआ था तो वहां बड़ी संख्या में लड़कियों ने स्कूल और कॉलेज जाना शुरू किया था। वर्ष 2018 में अफगानिस्तान में स्कूल और कॉलेज जाने वाली लड़कियां 36 लाख थीं, जबकि 2003 में केवल 6 प्रतिशत लड़कियां ही सेकंडरी विद्यालयों में प्रवेश कर पाती थीं।

पाकिस्तानी वर्चस्व

No democracy, only Sharia law in Afghanistan, say the Taliban - The Hindu

नई सरकार के गठन से तालिबान पर पाकिस्तानी वर्चस्व साबित हो गया है। इसका सबसे बड़ा संकेत मुल्ला बरादर के स्थान पर हसन अखुंद की प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्ति से मिलता है। मुल्ला बरादर हालांकि पश्चिमी देशों के साथ बातचीत कर रहे थे, पर पाकिस्तानी आईएसआई उन्हें नहीं चाहती थी। अतीत में मुल्ला बरादर ने सीधे पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ाई के साथ सम्पर्क किया था। पाकिस्तान चाहता था कि अशरफ ग़नी की सरकार और तालिबान के बीच समझौता नहीं होना चाहिए। पाकिस्तान ने 2010 में मुल्ला बरादर को गिरफ्तार कर लिया और जेल में डाल दिया। उन्हें 2018 में तभी छोड़ा गया, जब अमेरिका ने हस्तक्षेप किया। इसके बाद 2019 में बरादर ने तालिबान के दोहा दफ्तर में रहते हुए अमेरिका के साथ बातचीत की।

डबल गेम

इतना ही नहीं पाकिस्तान देश में किसी प्रकार की समावेशी सरकार भी नहीं चाहता था। हालांकि पाकिस्तान सरकार लगातार बयानों में समावेशी सरकार की बात कर रही थी, पर यही पाकिस्तान की विशेषता है, जो डबल गेम खेलता है। अफगान सरकार बनने में देरी के पीछे कारण भी पाकिस्तान ही है। सरकार बनने के मौके पर आईएसआई के प्रमुख फैज हमीद का अफगानिस्तान जाना महत्वपूर्ण है। सामान्यतः खुफिया संगठनों की यात्रा को प्रचारित नहीं किया जाता, पर पाकिस्तान ने इस यात्रा का प्रचार किया, ताकि यह ज़ाहिर हो कि सरकार बनाने में उसकी भूमिका है। सरकार में पाकिस्तान-परस्त हक्कानी नेटवर्क का वर्चस्व भी जाहिर हो रहा है। एक दिन खबर यह भी आई थी कि मुल्ला बरादर पर हक्कानी समर्थकों ने हमला किया है।

ग़नी की सफाई

Former Afghan president Ashraf Ghani defends his fleeing - The Hindu

अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने कहा है कि मैं अफ़ग़ानिस्तान से पैसे लेकर नहीं भागा और काबुल से निकलने का निर्णय सुरक्षा अधिकारियों के कहने पर लिया गया था। काबुल में शांति बनाए रखने के लिए मेरे पास और कोई विकल्प नहीं बचा था। ट्विटर पर एक बयान जारी कर उन्होंने कहा, “तालिबान के काबुल पर कब्ज़ा करने के बाद 15 अगस्त को अचानक काबुल छोड़ने को लेकर मुझे अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को सफ़ाई देनी चाहिए। मैंने महल के सुरक्षा अधिकारियों के कहने पर वहां से निकलने का फ़ैसला किया।”

सबसे कठिन फ़ैसला

ग़नी ने लिखा है, वहां रहने का मतलब था कि सड़क पर वैसी ही लड़ाई होती जैसी 90 के दशक में गृहयुद्ध के दौरान हुई थी। “काबुल को छोड़ना मेरी जिंदगी का सबसे कठिन फ़ैसला था, लेकिन मुझे लगता है कि बंदूकों को शांत रखने और काबुल के 60 लाख लोगों को बचाने का यही तरीका था। मैंने अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को एक लोकतांत्रिक, समृद्ध और संप्रभु देश देने के लिए अपनी जिंदगी के 20 साल लगा दिए-मैंने कभी लोगों को अकेला छोड़ने के बारे में नहीं सोचा था।”

(लेखक ‘डिफेंस मॉनिटर’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)