apka akhbar-ajayvidyutअजय विद्युत।

हर साल 14 सितम्बर आता है और चला जाता है। इसी तरह हिंदी दिवस भी आता है और चला जाता है। हिंदी वहीँ रहती है। बहत्तर साल पहले की बात है। 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने यह निर्णय लिया कि हिन्दी केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा होगी। संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय इसलिए लिया क्योंकि भारत मे अधिकतर क्षेत्रों में ज्यादातर हिन्दी भाषा बोली जाती थी। संविधान सभा का यह फैसला हमारे संविधान के भाग 17 के अध्याय की अनुच्छेद 343(1) में इस प्रकार वर्णित है- ‘संघ की राष्ट्रभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अन्तरराष्ट्रीय रूप होगा।’


 

न्यूज़ 18 से साभार

1953 से शुरू हुआ सिलसिला

संविधान सभा के इस निर्णय के महत्व को बताने जताने और हर क्षेत्र में हिंदी का व्यापक प्रचार प्रसार करने के मकसद से 1953 से पूरे भारत में हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी-दिवस मनाया जाता है। असलियत में यह सरकारी परंपरा चाँद सरकारी अनुष्ठानों तक ही सीमित होकर रह गई है। ऐसा भी नहीं कह सकते कि हिंदी के लिए कुछ नहीं किया गया। बहुत से लोगों ने गंभीरता से प्रयास किये। हिंदी को बढ़ावा दिया गया लेकिन सरकारी कामकाज और पढाई लिखाई की मुख्य भाषा अंग्रेजी ही बनी रही। उसका वर्चस्व तोडा न जा सका।

मोदी हिंदी बोलते हैं तो आप क्यों शर्मिंदा हैं

biography of narendra modi in hindi | संघर्ष, सकारात्मकता और साहस के धनी: नरेंद्र दामोदर दास मोदी - Dainik Bhaskar

यह कहना गलत न होगा कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से कुछ बर्फ पिघली है। वह देश दुनिया में जाकर हिंदी बोलते हैं और गर्व से बोलते हैं। आप उनकी तमाम बातों से इत्तफाक करें या न करें लेकिन आज केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जो कहा उससे इनकार करना मुश्किल है। शाह ने कहा कि ‘अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी बोल सकते हैं तो हम किस बात को लेकर शर्मिंदा हो जाते हैं। अब वो दिन चले गए जब हिन्दी बोलने को लेकर चिंता का विषय होता था।’

हालांकि वातावरण में कुछ तो बदला है। हिंदी का प्रभाव बढ़ा है। लेकिन जनभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा के साथ ही अकादमिक कार्यों की मुख्य भाषा बनने का एक लम्बा सफर बाकी है। हिंदी से जुड़े इन तीन महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों से इसी बात को समझने की कोशिश करते हैं।

ज्ञान-विज्ञान की भाषा ही सम्मान की भाषा

डॉ. कुमार विश्वास
(प्रख्यात कवि, वक्ता और सामाजिक कार्यकर्त्ता)
ज्ञान की भाषा ही सम्मान की भाषा बनती है। जिसमें ज्ञान आता है, उसमें सम्मान है। चीनी क्यों है इतनी फैली, उससे ज्ञान आ रहा है। इसी तरह जर्मन और फ्रांसीसी अपनी भाषा छोड़ने को तैयार नहीं हैं। आपका बच्चा आपसे सवाल ही नहीं पूछेगा, अगर ज्ञान से पहले उसको भाषा में अटकना पड़े। और यहां, अंग्रेजी के पक्षधर भरे पड़े हैं।
अंग्रेज चले गए, देश आजाद हो गया। तुम्हारी चीजें स्वतंत्र हो गईं और तुम अंग्रेजी से ही चिपके रहे, उसमें पढ़ना जारी रखा। विज्ञान अंग्रेजी में पढ़ा। उसके बाद तुम्हें कभी नोबल मिला? तुमने कोई बड़ा वैज्ञानिक आविष्कार किया? ऐसा नहीं कि भारतीयों ने आविष्कार नहीं किए! डॉ. हरगोविन्द खुराना ने किया… पर कब? अमेरिकी नागरिक बनने के बाद! सत्येन्द्र नाथ बोस ने ‘ओजोन’ आइंस्टीन के साथ मिलकर किया। आइंस्टीन-बोस थ्योरी अलग है… पर कब? आजादी से पहले, क्योंकि बोस ने अपने गुरु से ज्ञान बचपन में बांग्ला में लिया। उन्होंने विज्ञान के प्रारंभिक सिद्धांत बांग्ला में समझे इसलिए उनकी आत्मा में बैठ गए और बाद में उन्होंने प्रस्तुत किया।
आज क्या है? आप इंजीनियर पैदा कर रहे हैं वैज्ञानिक नहीं। आप फेसबुक पर हिन्दी के एक लाख कवि पैदा कर रहे हैं, पर एक कवि ऐसा नहीं है जिसके बारे में वियतनाम या स्पेन का कवि सोचे कि इसे पढ़ना चाहिए।
मैं फिर आपसे कह दूं कि हिन्दी जब तक आमोद-विनोद-मनोरंजन की भाषा रहेगी तब तक अंग्रेजी या दुनिया की बाकी भाषाओं जितनी तरक्की नहीं कर पाएगी। यह दुनिया में तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। पहले पर अंग्रेजी और दूसरे पर चीनी हैं।

संस्कृत में वांग्मय अच्छा लिखा जाता था। कविता, कहानी चलती थी संस्कृत में, लेकिन वह ज्ञान की भाषा से अलग हो गई। ज्ञान क्या था उस समय! मिसाइल तो बन नहीं रही थी। उस समय ज्ञान था धर्म-अध्यात्म। पाली और प्राकृत का उपयोग करके महात्मा बुद्ध ने वह मिथक तोड़ दिया। और संस्कृत छिटककर खड़ी हो गई। अगर संस्कृत ने पाली और प्राकृत की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए खुद को तत्पर किया होता तो आज वह वहां नहीं होती, जहां है। हिन्दी को भी खुद को समृद्ध करके आज की चुनौतियों को स्वीकार करना होगा।

शिक्षा में अंग्रेजी को बढ़ावा देने की नीति बदलनी होगी

Govind Singh, Journalistडॉ. गोविन्द सिंह
(प्रोफेसर- आईआईएमसी, दिल्ली)
आप राजभाषा के तौर पर हिंदी को लागू करने के लाख जतन कर लीजिए, जब तक आप शिक्षा में अंग्रेजी को बढ़ावा देने की नीति को नहीं बदलते, तब तक कुछ नहीं होने वाला।
जब मैं बच्चा था मेरे जिले में एक भी अंग्रेजी माध्यम का स्कूल नहीं था। अमीर गरीब सब के बच्चे हिंदी माध्यम की समान शिक्षा ग्रहण करते थे। आज उस जिले के दो जिले हो गए हैं और अकेले मेरे जिले में ही तथाकथित 500 अंग्रेजी स्कूल खुल गए हैं। वह अंग्रेजी सिखा रहे हो या नहीं मगर इतना तय है कि हिंदी से दूर रहने की हिदायत जरूर देते हैं। हम यह नहीं कह रहे हैं कि हिंदी नहीं बढ़ रही। वह भी बढ़ रही है। लेकिन अंग्रेजी उस से दस गुना तेज रफ्तार से बढ़ रही है।

राष्ट्रीय स्तर पर राजकाज की अकेली भाषा क्यों नहीं बन पाई हिंदी

ध्रुव गुप्त
(पूर्व आईपीएस और जाने माने साहित्यकार)
‘हिंदी दिवस’ राजभाषा हिंदी के प्रति हम हिंदीभाषियों की मौसमी भावुकता का अवसर बनकर रह गया  है। इस दिन सरकारी और गैरसरकारी मंचों से  हिंदी की जमकर प्रशस्तियां भी गाई जाएंगी और उसकी उपेक्षा का रोना भी रोया जाएगा। हमारी उन कमियों की बात शायद ही कोई करेगा जिनकी वजह से हिंदी आज तक राष्ट्रीय स्तर पर राजकाज  की अकेली भाषा नहीं बन पाई या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे अपेक्षित गौरव हासिल नहीं हो पाया । वह कल भी भावनाओं की भाषा थी, आज भी भावनाओं की ही भाषा है !  हमारे दिलों में ठहरी हुई। उसके बारे में दिमाग से सोचने की जरुरत ही नहीं महसूस की हमने।  हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या आज देश-दुनिया में हमेशा से ज्यादा है और अपनी भाषा में हमने कुछ अच्छा साहित्य भी  रचा है, लेकिन आज के वैज्ञानिक और अर्थ-युग में किसी भाषा का सम्मान उसे बोलने वालों की संख्या और उसका विपुल साहित्य नहीं, ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात करने की उसकी क्षमता तय करती है।