प्रदीप सिंह।
हम बात कर रहे हैं गोकुल जाट यानी गोकुला जाट के विद्रोह की जिसे तिलपत युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। गोकुल जाट ने यह विद्रोह क्यों किया, उसका क्या हश्र हुआ, औरंगजेब ने ऐसा क्या किया था जिसकी वजह से गोकुला जाट को विद्रोह करना पड़ा- इस पर विस्तार से बात करते हैं।
अपना रंग दिखाने लगा औरंगजेब
सत्ता में आने के बाद औरंगजेब धीरे-धीरे अपना रंग दिखाने लगा। उसने धार्मिक आधार पर भेदभाव शुरू कर दिए। यह भेदभाव धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों स्तरों पर था। उसने गैर मुसलमानों पर ज्यादा कर लगा दिया। जितना कर मुसलमान देते थे उसका दोगुना गैर मुसलमानों यानी मुख्य रूप से हिंदुओं को देना पड़ता था। यह सिलसिला धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसके बाद शुरू हुई हिंदू त्योहारों पर रोकथाम। होली-दीवाली मनाना बंद हो गया। हिंदू त्योहारों के समारोह पर रोक लग गई। इसके अलावा जाटों के इलाके में उनकी सामाजिक परंपराओं, रीति रिवाज और सामाजिक संस्थाओं पर रोक लगनी शुरू हो गई। जाटों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ।। उनको लगा कि यह उनके सामाजिक और निजी जीवन में हस्तक्षेप है। साथ ही आर्थिक दबाव बढ़ता जा रहा था। नए टैक्स लगाना, मालगुजारी बढ़ाना- यह सब इस बात का दबाव बनाने की कोशिश थी कि अगर आपको बराबरी का हक चाहिए तो आप धर्म परिवर्तन कर लीजिए। इस्लाम स्वीकार कर लीजिए और आप भी उतना ही टैक्स दीजिए जितना मुसलमान देते हैं।
छपरौली की बैठक
गोकुल जाट के नेतृत्व में छपरौली में एक बैठक हुई जिसमें तय हुआ कि इस साम्राज्य का विरोध करना है। औरंगजेब के साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह के इस फैसले के बाद जाट एकजुट हुए। धीरे-धीरे कुछ दूसरी जातियां भी उनके साथ एकजुट होती गईं। इस तरह एक बड़े आंदोलन या विरोध की तैयारी शुरू हो गई।
औरंगजेब की धार्मिक नीति
औरंगजेब की धार्मिक नीति के चार स्तंभ थे। पहला- इस्लामी रीति-रिवाजों को बढ़ावा देना। दूसरा- हिंदुओं के खिलाफ नए नए नियम और कानून बनाना। तीसरा- धर्म परिवर्तन कराना और चौथा- हिंदू मंदिरों को तोड़ना। पहले औरंगजेब ने घोषणा की कि अब नए मंदिर नहीं बनेंगे- जो पुराने मंदिर है वही रहेंगे। बाद में पुराने मंदिर भी तोड़े जाने लगे। गोकुल जाट के विद्रोह को लेकर बहुत से इतिहासकारों ने लिखा है लेकिन उनके साथ उस तरह का न्याय नहीं हुआ जैसा उनकी भूमिका और योगदान को देखते हुए अपेक्षित था। मुगल साम्राज्य और जाटों के बीच संबंधों को लेकर ‘The Jats: Their Role in The Mughal Empire’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसे लिखा है डॉ. गिरीश चंद्र द्विवेदी ने। इसमें गोकुल जाट और जाटों के पूरे इतिहास के साथ काफी हद तक न्याय किया गया है। किताब में डॉ. द्विवेदी लिखते हैं कि औरंगजेब के लगाए आर्थिक प्रतिबंधों और राजनीतिक उकसावे ने जाटों को और नाराज कर दिया। धार्मिक दमन ने इसमें आग में घी का काम किया। उसके बाद जाटों ने तय किया कि लड़ाई के अलावा और दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
औरंगजेब का फौजदार मारा गया
इस लड़ाई के लिए मथुरा से करीब छह किलोमीटर दूर सहोरा गांव में गोकुल जाट के नेतृत्व में जाट समुदाय के लोग जुटे। मथुरा में औरंगजेब के फौजदार अब्दुन्नवी ने जाटों पर हमला कर दिया। लड़ाई हुई, भीषण संघर्ष में 12 मई 1669 को अब्दुन्नवी को जाटों की सेना ने मार दिया। इससे औरंगजेब के शासन में बहुत खलबली मच गई। तब विद्रोह को दबाने के लिए 13 मई को रदन्दाज खां को भेजा गया। उसके अलावा शफ शिकन खां को मथुरा का नया फौजदार नियुक्त किया गया। इस बीच शाहाबाद को जाटों ने लूट लिया। शफ शिकन खां ने गोकुल चाट के पास एक समझौता प्रस्ताव भेजा कि तुमने जो माल लूटा है उसे वापस कर दो तो तुम्हें माफ कर देंगे। गोकुल जाट ने मना कर दिया। बात बढ़ती गई और यह संघर्ष बढ़ता चला गया। स्थिति यह हो गई कि औरंगजेब के पास इस विद्रोह और उसकी सेना की हार की खबरें लगातार पहुंचने लगीं।
मथुरा की ओर चल पड़ा औरंगजेब
यह देखने के लिए कि इस विद्रोह को कैसे मुकाबला कर दबाया सकता है 28 नवंबर को औरंगजेब खुद मथुरा की ओर चल दिया। उसे रास्ते में खबरें मिलने लगीं कि विद्रोहियों की ताकत बढ़ती जा रही है और वे आगे बढ़ते जा रहे हैं। तब उसने हसन अली खान के नेतृत्व में एक नई फौज भेजी। युद्ध लंबा खिंचता गया। कभी विद्रोही थोड़ा पीछे हट जाते थे, फिर आगे आ जाते थे। जनवरी 1670 में गोकुल जाट बीस हजार योद्धाओं की फौज लेकर तिलपत से बीस मील दूर मुकाबले के लिए पहुंच गए। हसन अली खान के नेतृत्व वाली सेना से लड़ाई शुरू हुई। एक समय ऐसा लगने लगा कि विद्रोही जीत जाएंगे तो औरंगजेब ने आगरा के फौजदार को भी हसन अली का साथ देने के लिए भेज दिया।
तिलपत का युद्ध
इसका नतीजा यह हुआ मुग़ल फ़ौज की ताकत काफी ज्यादा बढ़ गयी। विद्रोहियों को पीछे हटना पड़ा और उन्होंने तिलपत के किले में जाकर अपना मोर्चा संभाला। वहां तीन दिन तक युद्ध चला। इसी को तिलपत का युद्ध कहा जाता है। तीन दिन लड़ाई जारी रही। मुगल एक प्रशिक्षित सेना थे और उनके पास तोपें समेत अत्याधुनिक हथियार थे। इधर जाटों की सेना में अपनी प्रतिष्ठा, परम्पराओं, धर्म, रीति-रिवाजों को बचाने का जज्बा था। हथियारों के नाम पर तीर धनुष सरीखे छोटे-मोटे हथियारों के अलावा उनके पास कुछ खास नहीं था। मुग़ल सेना ने तोपों से किले की दीवार गिरा दी। जाटों को चारों तरफ से घेर लिया गया। इस भीषण लड़ाई में मुगल फौज के चार हजार सिपाही मारे गए। जाट सेना के पांच हजार लोग मारे गए।
औरंगजेब का प्रस्ताव
गोकुल जाट और उनके चाचा गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें आगरा ले जाया गया। यह डॉ. द्विवेदी की किताब में नहीं है और किसी इतिहासकार ने नहीं लिखा है लेकिन प्रचलित लोक गाथाओं में उल्लेख है कि आखिरी समय में औरंगजेब ने गोकुल जाट से प्रस्ताव किया कि अगर इस्लाम स्वीकार कर लो तो तुमको माफ कर देंगे। कहते हैं इसके जवाब में गोकुल जाट ने कहा कि अगर अपनी बेटी से मेरा ब्याह करा दो तो इस्लाम स्वीकार कर लूंगा। जाहिर है कि यह चिढ़ाने के लिए कहा गया था।
गोकुल जाट की शहादत
इसके बाद गोकुल जाट और उनके चाचा दोनों को टुकड़े-टुकड़े काट कर मार डाला गया। जब उनको काटा गया तो खून के फव्वारे निकले। उस समय खून का जो फव्वारा छूटा था उसी के नाम पर आगरा कोतवाली के पास फव्वारा बना है। गोकुल जाट हार तो गए लेकिन डॉ. द्विवेदी लिखते हैं कि मुगल साम्राज्य के पूरे दौर में जाटों का इससे बड़ा विद्रोह कभी नहीं हुआ था जिसने औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिए। औरंगजेब के पास बहुत बड़ी फौज थी। एक प्रशिक्षित सेना थी, आधुनिक हथियार थे। इसलिए वे जीत गए। बाद में जब जाटों ने आकलन किया तो यह समझ में आया कि बिना प्रशिक्षण और हथियारों के इस तरह का युद्ध जीतना बहुत कठिन होता है।
गोकुल जाट या औरंगजेब- किस पर है गर्व
बात केवल इतनी नहीं है कि गोकुल जाट ने विद्रोह किया, बहादुरी से लड़े, औरंगजेब को हिला कर रख दिया और फिर शहीद हो गए। बात उसके बाद की है। कोई भी दे देश अपनी सड़कों, पुलों, संस्थाओं और कार्यक्रमों के नाम अपने नायकों के नाम पर रखता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि आने वाली पीढ़ी उनको याद रखे, गर्व करें, उनके बताए रास्ते पर चलने की कोशिश करे और उनसे सीख ले। नाम नायकों के नाम पर इसलिए रखे जाते हैं कि वे लंबे समय तक लोगों की याददाश्त में बने रहें। औरंगजेब का इतिहास किसी से छिपा हुआ नहीं है। सवाल यह है कि भारत के लिए नायक और गर्व करने योग्य व्यक्ति गोकुल जाट थे या औरंगजेब। तो सोचिए वे कौन से लोग हैं और किस मानसिकता के रहे होंगे जिन्होंने दिल्ली के सबसे पॉश इलाके में सड़क के नामकरण की बात उठनेपर तय किया कि सड़क का नाम औरंगजेब के नाम पर रखा जाएगा। बात केवल एक सड़क की या किसी कजे नाम पर उसका नाम रखने भर की नहीं है। बात है अपने सम्मान, स्वाभिमान और समाज व राष्ट्र के स्वाभिमान की।
नायकों का सम्मान करना कब सीखेंगे हम
सड़क का नाम औरंगजेब के नाम पर रखकर क्या आप गोकुल जाट के साथ न्याय कर रहे हैं …या अपने देश-समाज के साथ न्याय कर रहे हैं। वह कौन सी प्रवृत्ति के लोग हैं जिन्होंने एक आतताई के नाम पर सड़क का नाम रखवाया और जब नाम रखा गया तो किसी ने विरोध नहीं किया। कम से कम ऐसा कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ जिसके कारण उसको बदला जाए। और जब सत्तर- इकत्तर साल बाद सड़क का नाम बदला गया तब उसका विरोध हुआ कि क्यों बदला जा रहा है। इससे अंदाजा लगाइए कि देश 72 सालों में कहां पहुंचा है। हमने अपने नायकों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया है। जिनको तिरस्कृत किया जाना चाहिए उन्हें पुरस्कृत किया गया और जिन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए वे तिरस्कृत हैं। सोचिएगा जरूर।