सोहिनी बोस।
तीन दशक पहले इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा लगाये जाने वाले एक डरावने नारे “हम सभी तालिबान बनेंगे, बांग्लादेश बनेगा अफ़ग़ानिस्तान” की गूंज ढाका की सड़कों पर सुनाई देती थी। कई वर्षों के बाद वही शब्द बांग्लादेश के मीडिया समूह और अख़बार याद कर रहे हैं क्योंकि इस साल अगस्त के मध्य में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद पूरे देश में डर फैल रहा है। क़रीब पांच महीने पहले अप्रैल में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और इस्लामिक विद्रोहियों के बीच 20 साल पुराना युद्ध ख़त्म करने के अपने फ़ैसले का एलान किया था। जैसे ही अमेरिकी सैनिकों ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी वापसी शुरू की वैसे ही तालिबान ने उत्तरी प्रांतों से नीचे उतरने का अपना अभियान शुरू किया। तालिबान ज़्यादा से ज़्यादा इलाक़ों पर कब्ज़ा करने लगा और अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्ज़ा करने के साथ ही उसने प्रभावी रूप से देश के ज़्यादातर क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। जहां तालिबान की जीत ने पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अनिश्चितता पैदा कर दी है, वहीं ख़बरों के मुताबिक़ उपमहाद्वीप में सक्रिय इस्लामिक चरमपंथी समूहों पर भी इस जीत का उत्साह बढ़ाने वाला असर हुआ है जैसे कि बांग्लादेश के इस्लामिक समूह जो अपनी जड़ तालिबान में ढूंढते हैं।

उग्रवादी संगठन और बांग्लादेश

HuJi-B | ORF

1980 के आसपास तालिबान ने कई लड़ाकों की भर्ती विदेशों से की थी जिनमें बांग्लादेश शामिल है। वापस अपने देश जाने के बाद ये विद्रोही अपने साथ तालिबान की विचारधारा भी ले गए। तालिबान की ये विचारधारा शासन व्यवस्था में शरिया क़ानून का सख़्ती से पालन करने का हुक्म देती है और जो वास्तव में एक मध्यकालीन और अक्सर न्याय की अमानवीय प्रणाली है। बांग्लादेश को एक इस्लामिक देश बनाने की अपनी चाह में इन विद्रोहियों ने हरकत-उल जिहाद-अल-इस्लामी, बांग्लादेश या हूजी-बी नाम का एक स्थानीय कट्टरपंथी नेटवर्क बनाया जिसको तालिबान से वित्तीय समर्थन और रणनीतिक मार्गनिर्देशन मिलता था। साल 2000 के आसपास अपने गठन के समय से ये समूह बांग्लादेश में कई आतंकी हमलों के लिए ज़िम्मेदार रहा है। 2001 में इस समूह ने बांग्ला नव वर्ष के दौरान रमना में धमाके किए जिसका सीधा प्रसारण हुआ। तीन साल बाद 2004 में हूजी ने अवामी लीग पार्टी की रैली के दौरान एक ग्रेनेड हमला किया जिसमें पार्टी के 24 सदस्यों की मौत हो गई और 500 लोग घायल हो गए। बांग्लादेश की मौजूदा प्रधानमंत्री शेख़ हसीना, जो उस वक़्त विपक्ष की नेता थीं, की जान बाल-बाल बची। बाद में ढाका की अदालत ने अपने फ़ैसले में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी-जमात-ए-इस्लामी गठबंधन के वरिष्ठ पदाधिकारियों को हूजी का इस्तेमाल करके अवामी लीग की रैली पर हमला करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया।

जिहादियों को तालिबान का समर्थन

Govt of India bans Jamaat-ul-Mujahideen Bangladesh for its terror activities aimed at establishing Caliphate in the subcontinent

हूजी के बड़े नेताओं ने जमात-उल-मुजाहिदीन, बांग्लादेश (जेएमबी) बनाने में भी मदद की। इसके लिए जेएमबी के अध्यक्षों में से एक सिद्दिक़ुर रहमान जिसे, “बांग्ला भाई” के नाम से भी जाना जाता है, का संपर्क अफ़ग़ानिस्तान से लौटने वाले लड़ाकों में से एक शेख़ अब्दुल रहमान के साथ जोड़ा गया। साल 2000 के कुछ वर्षों के बाद बार-बार हमलों, 2004 में प्रगतिशील लेखक हुमायूं आज़ाद की हत्या की कोशिश और सबसे बढ़कर 2005 में एक साथ बांग्लादेश के 60 ज़िलों में बम धमाके के ज़रिए जेएमबी बांग्लादेश में कुख़्यात हो गया। तालिबान की तरह जेएमबी ने भी पवित्र क़ुरान और हदीस पर आधारित इस्लामिक समाज बनाने की मांग की और इस तरह वो बांग्लादेश की लोकतांत्रिक सरकार का हिंसक विरोधी बन गया। पुलिस की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जेएमबी के जिहादियों को पाकिस्तान के उग्रवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा जिसको तालिबान का समर्थन हासिल है- ने ट्रेनिंग दी थी।

उग्रवादी इस्लामिक कट्टरपंथ बड़ी चुनौती

इन आतंकी संगठनों से बढ़ते ख़तरे के मद्देनज़र शेख़ हसीना के नेतृत्व वाली बांग्लादेश सरकार 2009 से “आतंक के ख़िलाफ़ ज़ीरो टॉलरेंस” की नीति पर चल रही है। ये नीति 2016 में ढाका के एक रेस्टोरेंट पर हमले, जिसमें 18 विदेशियों समेत 23 लोगों की मौत हुई थी, के बाद ख़ास तौर पर साफ़ हो गई। बांग्लादेश की सरकार ने अपने क्षेत्र के भीतर सभी आतंकी संगठनों को जड़ से उखाड़ने की कोशिश की है और इसमें जेएमबी को ध्वस्त करना और हूजी को क़रीब-क़रीब ख़त्म करना बांग्लादेश पुलिस की काउंटर टेररिज़्म और ट्रांसनेशनल क्राइम यूनिट की बड़ी कामयाबी है। मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर पश्चिमी देशों की आलोचना झेलने के बावजूद सरकार के फौलादी नियंत्रण ने बांग्लादेश में आतंकी विद्रोह पर रोक लगाने में काफ़ी हद तक मदद की है। लेकिन सरकार का यही मज़बूत नियंत्रण बांग्लादेश को भविष्य में ग़ैर-उग्रवादी इस्लामिक कट्टरपंथ से कमज़ोर बनाएगा। इन लोगों में इस बात को लेकर असंतोष है कि सरकार उनके साथ किस तरह व्यवहार कर रही है।

सोशल मीडिया पर तालिबान समर्थक पोस्ट

स्वाभाविक तौर पर सरकार देश के भीतर किसी भी संदिग्ध गतिविधि पर नज़र रख रही है, ख़ास तौर पर सोशल मीडिया पर जहां तालिबान के कब्ज़े के बाद उसके समर्थन में बांग्लादेश के कई हिस्सों से पोस्ट की बाढ़ आ गई है। 2021 की शुरुआत में ढाका पुलिस ने चार संदिग्ध कट्टरपंथियों को भी पकड़ा था जो भारत और पाकिस्तान के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान जाकर तालिबान में शामिल होना चाहते थे। पकड़े गए संदिग्ध, 10 लोगों के एक ऐसे समूह का हिस्सा थे जो तालिबान का सदस्य बनना चाहते थे और उनमें से दो कथित तौर पर पहले ही कट्टरपंथी संगठन में शामिल हो गए थे। ढाका पुलिस की काउंटर टेररिज़्म यूनिट के प्रमुख असद्दुज़मां ख़ान ने बयान दिया कि गिरफ़्तार लोगों ने काफ़ी जानकारियों का ख़ुलासा किया है लेकिन ये अभी भी साफ़ नहीं है कि कितने कट्टरपंथी तालिबान में शामिल होने के लिए बांग्लादेश छोड़कर गए हैं। इस बीच भारतीय अख़बार ख़बर दे रहे हैं कि भारत का सीमा सुरक्षा बल बांग्लादेश की तरफ़ से जानकारी मिलने के बाद हाई अलर्ट पर हैं। बांग्लादेश ने भारत को ख़बर दी थी कि कई बांग्लादेशी युवक तालिबान की कथित अपील के बाद अफ़ग़ानिस्तान पहुंचने के लिए भारत में घुसने की कोशिश कर रहे हैं।

तालिबान सरकार से कैसे जुड़ेगा बांग्लादेश

बांग्लादेश उन नेटवर्क को लेकर चौकन्ना है जिनके ज़रिए बांग्लादेश के कट्टरपंथी तालिबान में शामिल होने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन वॉशिंगटन के वुडरो विल्सन सेंटर फॉर स्कॉलर्स के साउथ एशिया जानकार माइकल कुगलमैन एक अलग राय रखते हैं। कुगलमैन के मुताबिक़ तालिबान को दक्षिण एशिया में आतंकवाद को बढ़ावा देने में दिलचस्पी नहीं है। कुगलमैन कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि तालिबान उग्रवादियों को अफ़ग़ानिस्तान के बाहर हमले करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। समस्या ये है कि उग्रवादी ख़ुद ही आतंक के लिए प्रेरित होंगे।” इसलिए ये ज़रूरी है कि बांग्लादेश अपने यहां अभी भी सक्रिय आतंकी नेटवर्क पर नज़र रखे। ये भी महत्वपूर्ण है कि बांग्लादेश तय करे कि क्या वो अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के साथ संबंध जोड़ेगा जिसको पहले ही पाकिस्तान, चीन और रूस की सरकार से मान्यता मिल चुकी है। और अगर बांग्लादेश तैयार है तो ये जुड़ाव कैसे होगा?

विजेता को मानने के सिवा दूसरा विकल्प नहीं

इस बात को लेकर भी अटकलें हैं कि क्या दक्षिण एशिया में भारत का सबसे क़रीबी सहयोगी बांग्लादेश तालिबान के साथ बातचीत में शामिल होगा। इस मामले पर टिप्पणी करते हुए अंतर्राष्ट्रीय मामलों के प्रख्यात विशेषज्ञ सी. राजा मोहन ने कहा, “युद्ध के मैदान में जीत का राजनीतिक नतीजा अंतरराष्ट्रीय राजनीति की मूलभूत विशेषताओं में से एक है। सरकारों के पास विजेता को, अभी या बाद में, मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।” अगर भारत तालिबान के साथ जुड़ता है तो क्या बांग्लादेश भी इसका पालन करेगा- ये देखना अभी बाक़ी है। लेकिन ये महत्वपूर्ण है कि कोई भी देश तालिबान के साथ अपनी इच्छा के मुताबिक़ जुड़े, न कि किसी बाहरी दबाव की वजह से।

स्वतंत्र फ़ैसला लेगा बांग्लादेश?

इस मामले में याद किया जा सकता है कि कुछ महीने पहले भारत के द्वारा कोविड-19 वैक्सीन की सप्लाई रोके जाने के बाद जब दक्षिण एशिया के देशों को इसकी सख़्त ज़रूरत थी तो चीन के द्वारा बांग्लादेश को साइनोफार्म वैक्सीन के अनुदान से पहले चीन ने एक चेतावनी दी थी। बांग्लादेश में वैक्सीन के आने से एक दिन पहले बांग्लादेश में चीन के राजदूत ली जिमिंग ने ढाका को ख़बरदार किया कि क्वॉड गठबंधन, जिसे चीन एक ‘चीन विरोधी क्लब’ मानता है, में शामिल होना दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों को काफ़ी नुक़सान पहुंचाएगा। ज़बरदस्ती वाले इस तरह के बयान ने स्वाभाविक तौर पर बांग्लादेश के विदेश मंत्री को पलटवार करने के लिए उकसाया। बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने अपना फ़ैसला ख़ुद लेने की अपने देश की संप्रभुता को एक बार फिर दृढ़तापूर्वक सामने रखा। अगर चीन तालिबान शासन को मान्यता देने में अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में शामिल सदस्य देशों की विदेश नीति के फ़ैसलों को प्रभावित करने की कोशिश करता है तो ये उम्मीद की जाती है कि बांग्लादेश एक स्वतंत्र फ़ैसला लेगा, भले ही वो महत्वपूर्ण रूप से चीन के वाणिज्य पर निर्भर है। आदर्श रूप से बांग्लादेश का फ़ैसला इस बात पर निर्भर होना चाहिए कि तालिबान अपने वादों पर खरा उतरता है या नहीं।

आगे की चिंताएं

वास्तव में अफ़ग़ान शांति वार्ता के दोहा दौर में तालिबान ने सिद्धांतों की एक सूची बनाई थी और जिसके बारे में कहा गया कि इसका पालन वो सत्ता में आने के बाद करेंगे। इन वादों को तालिबान के सह-संस्थापक और वरिष्ठ उप नेता अब्दुल ग़नी बरादर और तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन अमल में लाने के लिए उत्सुक दिख रहे हैं। तालिबान के वादे एक “अफ़ग़ान इस्लामिक समावेशी सरकार” का समर्थन करते हैं और “लड़कियों के लिए सैकड़ों स्कूल” और महिलाओं की “शिक्षा और नौकरी तक पहुंच” की बात करते हैं। तालिबान का ये संकल्प 90 के दशक में तालिबान शासन के दौरान उसकी पुरानी नीतियों के बिल्कुल उलट था। वैसे तो तालिबान के द्वारा वादे के उल्लंघन की कई ख़बरें सामने आ रही हैं लेकिन अभी भी ये महत्वपूर्ण है कि कुछ हफ़्ते पुरानी ये सरकार आने वाले महीनों में कैसा काम करती है। इसी से ये तय होगा कि बांग्लादेश आधिकारिक तौर पर तालिबान के साथ जुड़ता है या नहीं। साथ ही इसी के आधार पर ये भी तय होगा कि क्या बांग्लादेश को अपने क्षेत्र में इस्लामिक विद्रोहियों को लेकर चिंतित होने की मज़बूत वजह होगी या नहीं।
(लेखिका ओआरएफ, कोलकाता में जूनियर फेलो हैं। आलेख ऑर्गनाइज़र रिसर्च फाउंडेशन से साभार)