आपका अखबार ब्यूरो।
दिल्ली दंगों के ठीक एक साल बाद फिल्मकार कमलेश कुमार मिश्र और निर्माता नवीन बंसल की एक डॉक्यूमेंटरी आई थी- ‘दिल्ली रॉयट्स- अ टेल ऑफ बर्न एंड ब्लेम’। इस डॉक्यूमेंट्री में दंगा पीड़ितों ने इस बात को बार-बार कहा कि दिल्ली में दंगे कराने की तैयारी पहले से ही थी। यह अचानक या किसी तात्कालिक वजह से नहीं हुआ था, जैसाकि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, गैर-भाजपा पार्टियां या तथाकथित बुद्धिजीवी बार-बार कह रहे थे और इसका ठीकरा भाजपा नेता कपिल मिश्रा पर फोड़ने की कोशिश कर रहे थे। डॉक्यूमेंटरी में पीड़ितों और प्रत्यक्षदर्शियों ने इस थ्योरी को सिरे से नकार दिया था।
खबर जो दबा दी गई
मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि इतने महीने के बाद इस बात को फिर से कहने का औचित्य क्या है! दरअसल तीन दिन पहले ही सोमवार को दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस बात को कहा है कि दिल्ली दंगे ‘पूर्व-नियोजित साजिश और सरकार के कामकाज को बाधित करने का सुनियोजित प्रयास थे। यह खबर आपको शायद ही कहीं दिखाई दी होगी। मुख्यधारा के माडिया को यह खबर मतलब की नहीं लगी होगी, क्योंकि उसकी रुचि तो इसमें होती है कि कोर्ट कब केंद्र और एक खास पार्टी की सरकारों की खिंचाई करे और वे हेडिंग लगा सकें- ‘कोर्ट ने केंद्र सरकार को लताड़ा’, ‘कोर्ट ने फलाना राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई’, आदि आदि।
याचिका खारिज
खैर, दिल्ली हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी 2020 के दिल्ली दंगों में हेड कॉन्स्टेबल रतन लाल की हत्या से जुड़े एक मामले में आरोपी मोहम्मद इब्राहिम की जमानत याचिका को खारिज करते हुए की। इस बाबत swarajyamag.com ने विस्तार से खबर प्रकाशित की है। गौरतलब है कि आरोपी इब्राहिम को दिल्ली पुलिस ने पिछले साल कथित तौर पर सीएए विरोधी उस प्रदर्शन का हिस्सा होने के आरोप में गिरफ्तार किया था, जिसके दौरान हेड कांस्टेबल रतन लाल को घातक चोटें आई थीं और बाद में उनकी मृत्यु हो गई।
अचानक नहीं सुनियोजित
मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा कि फरवरी 2020 में देश की राष्ट्रीय राजधानी को हिला देने वाले दंगे साफतौर पर पल भर में नहीं हुए, और वीडियो फुटेज में मौजूद प्रदर्शनकारियों का आचरण, जिसे अभियोजन पक्ष द्वारा रिकॉर्ड में रखा गया है, स्पष्ट रूप से दिखाता है कि यह सरकार के कामकाज को अस्त-व्यस्त करने के साथ-साथ शहर में लोगों के सामान्य जीवन को बाधित करने का एक सुनियोजित प्रयास था।
पुलिस विवश
जस्टिस प्रसाद ने यह भी कहा कि सीसीटीवी कैमरों का योजनाबद्ध रूप से कनेक्शन काटने और उन्हें नष्ट करने का कृत्य भी शहर में कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने की एक पूर्व-नियोजित साजिश को दिखाता है। यह इस तथ्य से भी साफ है कि असंख्य दंगाई लाठी, डंडों, बल्लों के साथ सड़कों पर पुलिसकर्मियों के खिलाफ उतरे थे और पुलिस बल संख्या में कई गुना ज्यादा दंगाइयों के सामने विवश हो गए थे।
तलवार का इस्तेमाल
विरोध प्रदर्शन के दौरान आरोपी मोहम्मद इब्राहिम कथित तौर पर तलवार लिए हुए था। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, उसके वकील ने तर्क दिया था कि रतन लाल की चोट की जो रिपोर्ट आई थी, उसके अनुसार, उनकी मृत्यु तलवार से नहीं हुई थी। आरोपी इब्राहिम ने केवल अपनी और अपने परिवार की रक्षा के लिए तलवार चलाई थी। कोर्ट ने इस तर्क पर टिप्पणी दी कि उसे अपराध स्थल पर नहीं देखा जा सका था, लेकिन वह भीड़ का हिस्सा था। वह जानबूझकर अपने इलाके से 1.6 किमी दूर एक तलवार के साथ गया था, जिसका इस्तेमाल केवल हिंसा भड़काने और नुकसान पहुंचाने के लिए किया जा सकता था।
कोर्ट की टिप्पणी पर उंगली उठाना मुश्किल
तथाकथित सेकुलर और बुद्धिजीवी अब यह भी नहीं कह सकते कि कोर्ट की ये टिप्पणी पूर्वग्रहपूर्ण है, क्योंकि इन्हीं जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद ने दिल्ली दंगों के पांच आरोपियों को यह टिप्पणी करते हुए जमानत दी थी कि विरोध प्रदर्शन के एक कार्य को उन लोगों की कैद को सही ठहराने के एक हथियार के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है, जिन्होंने अपने इस अधिकार का प्रयोग किया था।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दुरुपयोग
जस्टिस प्रसाद ने अपने आदेश में यह भी कहा कि इस न्यायालय ने पहले एक लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व पर विचार प्रकट किया था। लेकिन यह स्पष्ट रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दुरुपयोग इस तरह से नहीं किया जा सकता है, जो सभ्य समाज के ताने-बाने को अस्थिर करने और दूसरे व्यक्तियों को चोट पहुंचाने का प्रयास करता है।