महात्मा गांधी।
यह हिन्दू-धर्म का सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य है कि वह कोई सत्तारोपित मत नहीं है। अतः अपने आपको किसी गलतफहमी से बचाने के लिए ही मैंने कहा है कि सत्य और अहिंसा मेरा धर्म है। यदि मुझसे हिन्दू-धर्म की व्याख्या करने के लिए कहा जाये तो मैं इतना ही कहूंगा-अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज। कोई मनुष्य ईश्वर में विश्वास न करते हुए भी अपने-आपको हिन्दू कह सकता है। सत्य की अथक खोज का ही दूसरा नाम हिन्दू-धर्म है। यदि आज वह मृतप्राय, निष्क्रिय अथवा विकासशील नहीं रह गया है तो इसलिए कि हम थककर बैठ गये हैं और ज्यों ही थकावट दूर हो जायेगी त्यों ही हिन्दू-धर्म संसार पर ऐसे प्रखर तेज के साथ छा जायेगा जैसा कदाचित् पहले कभी नहीं हुआ। अतः निश्चित रूप से हिन्दू-धर्म सबसे अधिक सहिष्णु धर्म है।
मैं हिन्दू क्यों हूं ?
एक अमेरिकी बहन जो अपने को हिन्दुस्तान का यावज्जीवन मित्र कहती है, लिखती हैं :
चूंकि हिन्दू-धर्म पूर्व के मुख्य धर्मों में से एक है, और चूंकि आपने ईसाई-धर्म और हिन्दू-धर्म का अध्ययन किया है, और उस अध्ययन के आधार पर अपने आपको हिन्दू घोषित किया है, मैं आपसे अपनी इस पसन्दगी का कारण पूछने की अनुमति चाहती हूं। हिन्दू और ईसाई दोनों ही मानते हैं कि मनुष्य की प्रधान आवश्यकता है ईश्वर को जानना, और सच्चे मन से उसकी पूजा करना। यह मानते हुए कि ईसा परमात्मा के प्रतिनिधि थे, अमेरिका के ईसाइयों ने अपने हजारों पुत्र और पुत्रियों को हिन्दुस्तान वालों को ईसा के बारे में बतलाने के लिए भेजा है। क्या आप कृपा करके बदले में ईसा की शिक्षाओं के साथ-साथ हिन्दू-धर्म की तुलना करेंगे और हिन्दू-धर्म की अपनी व्याख्या देंगे? इस कृपा के लिए मैं आपका हार्दिक आभार मानूंगी।
धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से…
कई मिशनरी सभाओं में अंग्रेज और अमेरिकी मिशनरियों से मैंने यह कहने का साहस किया है कि अगर वे ईसा के बारे में हिंदुस्तान को ‘बताने’ से बाज आते और ‘सरमन ऑन द माउंट’ में बताये गये ढंग से अपना जीवन बिताते, तो भारत उन पर शक करने के बदले अपनी सन्तानों के बीच उनके रहने की कद्र करता और उनकी अनुपस्थिति से लाभ उठाता। अपने विचार के कारण मैं अमेरिकी मित्रों को हिन्दू-धर्म के बारे में बतौर ‘बदले’ के कुछ ‘बता’ नहीं सकता। अपने धर्म के बारे में, विशेष रूप से धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से लोग दूसरों से कुछ कहें इसमें मेरा विश्वास नहीं है। विश्वास में किसी को कुछ बताने की गुंजाइश नहीं है। विश्वास पर तो आचरण करना होता है और तब वह अपना प्रचार स्वयं करता है।
मैं सिर्फ इतना कर सकता हूं
और सिवाय अपने जीवन के और किसी अन्य ढंग से हिन्दू-धर्म की व्याख्या करने के योग्य मैं अपने को नहीं मानता। और अगर मैं लिख कर हिन्दू-धर्म को समझा नहीं सकता तो ईसाई-धर्म से उसकी तुलना भी नहीं कर सकूंगा। इसलिए मैं तो सिर्फ इतना ही कर सकता हूं कि यथासम्भव संक्षेप में मैं बताऊं कि मैं हिन्दू क्यों हूं ?
सबसे अधिक सहिष्णु धर्म
मैं वंशानुगत गुणों के प्रभाव पर विश्वास रखता हूं, और मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ है इसलिए मैं हिन्दू हूं। अगर मुझे यह अपने नैतिक बोध या आध्यात्मिक विकास के विरुद्ध लगे तो मैं इसे छोड़ दूंगा। अध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैं जानता हूं उनमें मैंने इसे सबसे अधिक सहिष्णु पाया है। इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है, यह बात मुझे बहुत आकर्षित करती है क्योंकि इस कारण इसके अनुयायी को आत्माभिव्यक्ति का अधिक से अधिक अवसर मिलता है। हिन्दू-धर्म वर्जनशील नहीं है, अतः इसके अनुयायी न सिर्फ दूसरे धर्मों का आदर कर सकते हैं बल्कि वे सभी धर्मों की अच्छी बातों को पसन्द कर सकते हैं और अपना सकते हैं। अहिंसा सभी धर्मों में है मगर हिन्दू-धर्म में इसकी उच्चतम अभिव्यक्ति और प्रयोग हुआ है। (मैं जैन और बौद्ध धर्मों को हिन्दू-धर्म से अलग नहीं गिनता)। हिन्दू-धर्म न सिर्फ सभी मनुष्यों की एकात्मकता में विश्वास करता है बल्कि सभी जीवधारियों की एकात्मकता में विश्वास करता है।
गाय की पूजा
मेरी राय में हिन्दू-धर्म में गाय की पूजा मानवीयता के विकास की दिशा में उसका एक अनोखा योगदान है। सभी जीवों की एकात्मकता और इसलिए सभी प्रकार के जीवन की पवित्रता में इसके विश्वास का यह व्यावहारिक रूप है। भिन्न योनियों में जन्म लेने का महान विश्वास, इसी विश्वास का सीधा नतीजा है। अन्त में, वर्णाश्रम धर्म के सिद्धान्त की खोज सत्य की निरन्तर खोज का अत्यन्त सुन्दर परिणाम है।
(नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा प्रकाशित महात्मा गांधी की पुस्तक ‘हिन्दू धर्म क्या है’ से)