डॉ. राममनोहर लोहिया।
स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर चिंतक और समाजवादी राजनेता डॉ. राममनोहर लोहिया (23 मार्च 1910 – 12 अक्टूबर 1967) की जनमानस पर मजबूत पकड़ इसलिए थी कि वे सनातन भारतीयता में पगे थे। शिव और कृष्ण के साथ राम को भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्नों में शामिल करते हुए वह कहते हैं कि उनमें भारत की उदासी और रंगीन सपने एक साथ प्रतिबिम्बित होते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्ययमंत्री योगी आदित्यनाथ के शब्दों में, “डॉ. राममनोहर लोहिया ने भगवान शिव, राम और कृष्ण के बारे में सर्वाधिक पढ़ा, लिखा था।” लोहिया ने जिन संस्कारों को अपने निजी और सार्वजानिक जीवन में उतारा उन्हें शब्द देते हुए वह कहते हैं, ‘राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है।’ प्रस्तुत है डॉ. लोहिया का बहुचर्चित निबन्ध- राम, कृष्ण और शिव।
दुनिया के देशों में हिंदुस्तान किंवदंतियों के मामले में सबसे धनी है। हिंदुस्तान की किंवदंतियों ने सदियों से लोगों के दिमाग पर निरंतर असर डाला है। इतिहास के बड़े लोगों के बारे में, चाहे वे बुद्ध हों या अशोक, देश के चौथाई से अधिक लोग अनभिज्ञ हैं। दस में एक को उनके काम के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी होगी और सौ में एक या हजार में एक उनके कर्म और विचार के बारे में कुछ विस्तार से जानता हो तो अचरज की बात होगी। देश के तीन सबसे बड़े पौराणिक नाम – राम, कृष्ण और शिव – सबको मालूम हैं। उनके काम के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी प्राय: सभी को, कम से कम दो में एक को तो होगी ही। उनके विचार व कर्म, या उन्होंने कौन-से शब्द कब कहे, उसे विस्तारपूर्वक दस में एक जानता होगा। भारतीय आत्मा के लिए तो बेशक और कम से कम अब तक के भारतीय इतिहास की आत्मा के लिए और देश के सांस्कृतिक इतिहास के लिए, यह अपेक्षाकृत निरर्थक बात है कि भारतीय पुराण के ये महान लोग धरती पर पैदा हुए भी या नहीं।
राम और कृष्ण शायद इतिहास के व्यक्ति थे और शिव भी गंगा की धारा के लिए रास्ता बनानेवाले इंजीनियर रहे हों और साथ-साथ एक अद्वितीय प्रेमी भी। इनको इतिहास के परदे पर उतारने की कोशिश करना, और ऐसी कोशिश होती भी है, एक हास्यास्पद चीज होगी। संभावनाओं की साधारण कसौटी पर इनकी जीवन कहानी को कसना उचित नहीं। सत्य का इससे अधिक आभास क्या मिल सकता है कि पचास या शायद सौ शताब्दियों से भारत की हर पीढ़ी के दिमाग पर इनकी कहानी लिखी हुई है। इनकी कहानियाँ लगातार दुहराई गई हैं। बड़े कवियों ने अपनी प्रतिभा से इनका परिष्कार किया है और निखारा है तथा लाखों-करोड़ों लोगों के सुख और दु:ख इनमें धुले हुए हैं।
किसी कौम की किंवदंतियाँ उसके दु:ख और सपनों के साथ उसकी चाह, इच्छा और आकांक्षाओं का प्रतीक हैं, तथा साथ-साथ जीवन के तत्व उदासीनता और स्थानीय व संसारी इतिहास का भी। राम और कृष्ण और शिव भारत की उदासी और साथ-साथ रंगीन सपने हैं। उनकी कहानियों में एकसूत्रता ढूँढ़ना या उनके जीवन में अटूट नैतिकता का ताना-बाना बुनना या असंभव व गलत लगनेवाली चीजें अलग करना उनके जीवन का सब कुछ नष्ट करने जैसा होगा। केवल तर्क बचेगा। हमें बिना हिचक के मान लेना चाहिए कि राम और कृष्ण और शिव कभी पैदा नहीं हुए, कम से कम उस रूप में, जिसमें कहा जाता है। उनकी किंवदंतियाँ गलत और असंभव हैं। उनकी श्रृंखला भी कुछ मामले में बिखरी है जिसके फलस्वरूप कोई तार्किक अर्थ नहीं निकाला जा सकता। लेकिन यह स्वीकारोक्ति बिल्कुल अनावश्यक है। भारतीय आत्मा के इतिहास के लिए ये तीन नाम सबसे सच्चे हैं और पूरे कारवाँ में महानतम हैं। इतने ऊँचे और इतने अपूर्व हैं कि दूसरों के मुकाबले में गलत और असंभव दीखते हैं। जैसे पत्थरों और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है वैसे ही इनकी कहानियाँ लोगों के दिमागों पर अंकित हैं जो मिटाई नहीं जा सकतीं।
भारत की पहाड़ियों में देवी-देवताओं का निवास माना जाता है जिन्होंने कभी-कभी मनुष्य रूप में धरती पर आ कर बड़ी नदियों के साँपों को मारा है या पालतू बनाया है और भक्त गिलहरियों ने समुद्र बाँधा है। रेगिस्तानी इलाकों के दैवी विश्वास यहूदी, ईसाई और इस्लाम से सभी देवता मिट चुके हैं, सिवा एक के, जो ऊपर और पहुँच के बाहर हैं, तथा उनके पहाड़, मैदान और नदियाँ किंवदंतियों से शून्य हैं। केवल पढ़े-लिखे लोग या पुरानी गाथाओं की जानकारी रखनेवाले लोग माउंट ओलिपंस के देवताओं के बारे में जानते हैं। भारत में जंगलों पर अटूट विश्वास और चंद्रमा का जड़ी-बूटी, पहाड़, जल और जमीन के साथ हमेशा चलनेवाला खिलवाड़ देवताओं और उनके मानवीय रूपों को सजीव रखता है व इनमें निखार लाता है। किंवदंतियाँ कथा नहीं हैं। कथा शिक्षक होती है। कथा का कलाकृति होना या मनोरंजक होना उसका मुख्य गुण नहीं, उसका मुख्य काम तो सीख देना है। किंवदंतियाँ सीख दे सकती हैं, मनोरंजन भी कर सकती हैं, लेकिन इनका मुख्य काम दोनों में से एक भी नहीं है। कहानी मनोरंजन करती है। बालजाक और मोपाँसा और ओ. हेनरी ने अपनी कहानियों द्वारा लोगों का इतना मनोरंजन किया कि उनकी कौमों के दस में एक आदमी उनके बारे में अच्छी तरह जानता है। इससे उनके जीवन में बेशक गहराई और बड़प्पन आता है। बड़ा उपन्यास भी मनोरंजन करता है यद्यपि उसका असर उतना जाहिर तो नहीं लेकिन शायद गहरा अधिक होता है।
किंवदंती असंख्य चमत्कारी कहानियों से भरे प्राय: अनंत उपन्यास की तरह है। इनसे अगर सीख मिलती है तो केवल अपरोक्ष रूप से। ये सूरज, पहाड़ या फल-फूल जैसी हैं और हमारे जीवन का प्रमुख अंश हैं। आम और सतालू हमारे शरीर-तंतु बनाते हैं – वे हमारे रक्त और मांस में घुले हैं। किंवदंतियाँ लोगों के शरीर-तंतु की अवयव हैं – ये उनके रक्त-मांस से घुली-मिली होती हैं। इन किंवदंतियों को महान लोगों के जीवन के पवित्र नमूने के रूप में देखना एक हास्यास्पद मूर्खता होगी। लोग अगर इनको अपने आचार-विचार के नमूने के रूप में देखेंगे तो राम, कृष्ण और शिव की प्रतिष्ठा को नीचे गिराएँगे। वे पूरे भारत के तंतु और रक्त-मांस के हिस्से हैं। उनके संवाद और उक्तियाँ, उनके आचार और कर्म, उनके भिन्न-भिन्न मौकों पर किए काम और उसके साथ उनकी भ्रू-भंगिमा और उनके ठीक वही शब्द जो उन्होंने किसी खास मौके पर कहे थे, ये सब भारतीय लोगों की जानी-पहचानी चीजें हैं। ये सचमुच एक भारतीय की आस्था और कसौटी हैं, न केवल सचेत दिमागी कोशिश के रूप में बल्कि उस रूप में भी जैसे रक्त की शुद्धता पर स्वस्थ या रुग्ण होना या न होना निर्भर होता है।
किंवदंतियाँ एक तरह से महाकाव्य और कथा, कहानी और उपन्यास, नाटक और कविता की मिली-जुली उपज हैं। किंवदंतियों में अपरिमित शक्ति है और ये अपनी कौम के दिमाग का अंश बन जाती हैं। इन किंवदंतियों में अशिक्षित लोगों को भी सुसंस्कृत करने की ताकत होती है। लेकिन उनमें सड़ा देने की क्षमता भी होती है। थोड़ा अफसोस होता है कि ये किंवदंतियाँ बुनियाद में विश्ववादी होते हुए भी स्थानीय रंग में रँगी होती हैं। इससे लगभग वैसा ही अफसोस होता है, जैसा हर काल के, हर मनुष्य के, एक साथ और एक स्थान पर न रहने रहने से होता है। मनुष्य जाति को अलग-अलग जगहों पर बिखर कर रहना होता है और इन जगहों की नदियाँ और पहाड़, लाल या मोती देनेवाले समुद्र अलग हैं। विश्ववाद की जीभ स्थानीय ही होगी। यह समस्या स्त्री-पुरुष और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए बराबर बनी रहेगी। अगर विश्ववाणी से स्थानीय रंग दूर किया जाए तो इस प्रक्रिया में भावनाओं का चढ़ाव-उतार खत्म हो जाएगा, उनका रक्त सूख जाएगा और वह एक पीले साए के समान रह जाएगी। पिता राइन, गंगा मैया और पुनीत अमेजन सब एक चीजें हैं, लेकिन उनकी कहानी अलग-अलग है। शब्द के मतलब कुछ और भी होते हैं, सिवाय उनके नाम या जिसके लिए उसका इस्तेमाल होता है। इनका पूरा मतलब और मजा उस स्थान और उसके इतिहास से लगातार रिश्ता होने पर ही मिल सकता है। गंगा एक ऐसी नदी है जो पहाडि़यों और घाटियों में भटकती फिरती है, कलकल निनाद करती है, लेकिन उसकी गति एक भारी-भरकम शरीरवाली औरत के समान मंदगामिनी है। गंगा का नाम गम् धातु से बना है जिससे गमगम संगीत बनता है, जिसकी ध्वनि सितार की थिरकन के समान मधुर है। भारतीय शिल्प कला के लिए, घड़ियाल पर गंगा और कछुए पर उसकी छोटी बहन जमुना, एक रुचिकर विषय है। यदि अनामी मूर्तियों को शामिल न किया जाए, तो वे भारतीय महिलाओं के प्रस्तर रूप की सर्वश्रेष्ठ सुंदरियाँ हैं। गंगा और यमुना के बीच आदमी मंत्रमुग्ध-सा खड़ा रह जाता है कि ये कितनी समान हैं, फिर भी कितनी अलग। उनमें से किसी एक को चुनना बहुत मुश्किल है। ऐसी स्थानीय आभा से विश्ववाणी निकलती है। इनसे उबरने का एक रास्ता हो सकता है। दुनिया-भर की कौमों की किंवदंतियाँ और कहानियाँ इकठ्ठी की जाएँ, उसी खूबी और सच्चाई के साथ, और उनमें प्रयोजन या सीख डालने की कोशिश न की जाए। जो दुनिया का चक्कर लगाते हैं उनकी मनुष्य जाति के प्रति जिम्मेदारी होती है कि वे इनके बारे में जहाँ जाएँ, चर्चा करें। मिसाल के लिए हवाई द्वीप की मैडम पिलू की, जो अपनी उपस्थिति से दो-तीन दिन तक आदमी को मुग्ध कर लेती है, जो छूने की कोशिश करने पर अंतर्धान हो जाती है, जो चाहती है कि उसके क्रेटर में सिगरेट का धुआँ फेंका जाए और जो बदले में गंधक का धुआँ फेंकती है।
राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। सब का रास्ता अलग-अलग है। राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यक्तित्व में और शिव की असीमित व्यक्तित्व में लेकिन हरेक पूर्ण है। किसी एक का एक या दूसरे से अधिक या कम पूर्ण होने का कोई सवाल नहीं उठता। पूर्णता में विभेद कैसे हो सकता है? पूर्णता में केवल गुण और किस्म का विभेद होता है। हर आदमी अपनी पसंद कर सकता है या अपने जीवन के किसी विशेष क्षण से संबंधित गुण या पूर्णता चुन सकता है। कुछ लोगों के लिए यह भी संभव है कि पूर्णता की तीनों किस्में साथ-साथ चलें, मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व साथ-साथ रह सकते हैं। हिंदुस्तान के महान ऋषियों ने सचमुच इसकी कोशिश की है। वे शिव को राम के पास और कृष्ण को शिव के पास ले आए हैं और उन्होंने यमुना के तीर पर राम को होली खेलते बताया है। लोगों के पूर्णता के ये स्वप्न अलग किस्मों के होते हुए भी एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं, लेकिन अपना रूप भी अक्षुण्ण बनाए रखे हैं। राम और कृष्ण, विष्णु के दो मनुष्य रूप हैं जिनका अवतार धरती पर धर्म का नाश और अधर्म के बढ़ने पर होता है। राम धरती पर त्रेता में आए जब धर्म का रूप इतना अधिक नष्ट नहीं हुआ था। वह आठ कलाओं से बने थे, इसलिए मर्यादित पुरुष थे। कृष्ण द्वापर में आए जब अधर्म बढ़ती पर था। वे सोलहों कलाओं से बने हुए थे और इसलिए एक संपूर्ण पुरुष थे। जब विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया तो स्वर्ग में उनका सिंहासन बिल्कुल सूना था। लेकिन जब राम के रूप से आए तो विष्णु अंशत: स्वर्ग में थे और अंशत: धरती पर।
इन मर्यादित और उन्मुक्त पुरुषों के बारे में दो बहुमूल्य कहानियाँ कही जाती हैं। राम ने अपनी दृष्टि केवल एक महिला तक सीमित रखी, उस निगाह से किसी अन्य महिला की ओर कभी नहीं देखा। यह महिला सीता थी। उनकी कहानी बहुलांश राम की कहानी है जिनके काम सीता की शादी, अपहरण और कैद-मुक्ति और धरती (जिसकी वे पुत्री थी) की गोद में समा जाने के चारों ओर चलते हैं। जब सीता का अपहरण हुआ तो राम व्याकुल थे। वे रो-रो कर कंकड़, पत्थर और पेड़ों से पूछते थे कि क्या उन्होंने सीता को देखा है। चंद्रमा उन पर हँसता था। विष्णु को हजारों वर्ष तक चंद्रमा का हँसना याद रहा होगा। जब बाद में वे धरती पर कृष्ण के रूप में आए तो उनकी प्रेमिकाएँ असंख्य थीं। एक आधी रात को उन्होंने वृंदावन की सोलह हजार गोपियों के साथ रास नृत्य किया। यह महत्व की बात नहीं कि नृत्य में साठ या छह सौ गोपिकाएँ थीं और रासलीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे। सबको थिरकानेवाला स्वयं अचल था। आनंद अटूट और अभेद्य था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण ने चंद्रमा को ताना दिया कि हँसो। चंद्रमा गंभीर था। इन बहुमूल्य कहानियों में मर्यादित और उन्मुक्त व्यक्तित्व का रूप पूरा उभरा है और वे संपूर्ण हैं।
सीता का अपहरण अपने में मनुष्य जाति की कहानियों की महानतम घटनाओं में से एक है। इसके बारे में छोटी-से-छोटी बात लिखी गई है। यह मर्यादित, नियंत्रित और वैधानिक अस्तित्व की कहानी है। निर्वासन काल के परिभ्रमण में एक मौके पर जब सीता अकेली छूट गई थी तो राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने एक घेरा खींच कर सीता को उसके बाहर पैर न रखने के लिए कहा। राम का दुश्मन रावण उस समय तक अशक्त था जब तक कि एक विनम्र भिखमंगे के छद्मवेश में सीता को उसने उस घेरे के बाहर आने के लिए राजी नहीं कर लिया। मर्यादित पुरुष हमेशा नियमों के दायरे में रहता है। (जारी)
(अंग्रेजी मासिक मैनकाइंड, अगस्त 1955 से अनूदित/ सौजन्य महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)