के. विक्रम राव।
सचिन तेन्दुलकर के बारे में यह है। भारत रत्न हैं। सांसद भी मनोनीत हो गये थे। हफ्ता/ दस दिन पहले  दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ द्वारा प्रकाशित ‘यशस्वी’ भारतीयों की सूची में दमक उठे। इन सबका कीर्तिमान रहा कि उन्होंने अरबों रुपये विदेशों में निवेशित किया। टैक्स भुगतान में करोड़ों की वंचना की। गरीब देश के अमीर नागरिक हैं सचिन। भला हो खोजी पत्रकारों के वैश्विक संगठन का कि ऐसी भयावह खबर साया हुई। चूंकि सहनशीलता की परिपाटी इस प्राचीन देश की परम्परा रही अत: प्रतिरोध का स्वर अभी तक दमित ही रहा।

 

प्रथम दृष्टया इन प्रतिष्ठित कर-वंचक महारथियों का अपराध केवल आर्थिक ही प्रतीत होता है। वस्तुत: राष्ट्रद्रोह और जनद्रोही है। मगर अब तक रोष का तिनका भी नहीं हिला। जिस देश में लाखों घर में चूल्हा केवल एक बार जलता हो वहां की प्रजा को उग्र होना चाहिये था। जैसे सदियों पूर्व पेरिस की जनता थी। तब अंतिम महारानी मारियो एन्तोनेत्तो (16 अक्टूबर 1793) थीं। उन्होंने भूखी विद्रोही प्रजा के आक्रोश का कारण पूछा। दरबारियों ने बताया कि डबल रोटी नहीं मिल रही है। महारानी ने समाधान सुझाया, ‘तो केक खाने को कहो।’ फिर जनता ने उनका गला काट डाला। राजशाही की इति हो गयी। भारत में अभी ऐसी दशा आने में वक्त लगेगा।

Sachin Tendulkar's 5 Big Awards

तटस्थ दर्शक

इस देश में पंचमी पर विषधर को भी दूध पिलाते है।  इतने सहिष्णु! कलिंग युद्ध के बाद चण्डाशोक तो बौद्ध हो गये थे और प्रियदर्शी बन गये थे। जलियांवाला बाग के जुल्म के बाद भी भारतीय क्लीव ही बने रहे। अमूमन अहिंसक रहे। ब्रिटिश साम्राज्य के संस्थापक राबर्ट क्लाइव ने एक दफा अपने लंदनवासी मित्र को लिखा था, ‘हम भारत पर युगों तक निश्चिंत रह कर राज कर सकते हैं। यहां लाल रंग देखकर जनता भीरु, कायर बन जाती है।’ सच में ऐसा ही होता रहा। साम्राज्य की रक्षा में भारतीय ही मददगार रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में, ”झांसी में किले पर जब फिरंगी के हमले हो रहे थे तो अंग्रेज और रानी के सैनिकों से अधिक लोग मैदान में तटस्थ दर्शक बने रहे थे।” ऐसा नजारा था।

देशद्रोही करवंचक

लौटें अब इन देशद्रोही करवंचकों पर। एक श्रमजीवी पत्रकार के नाते सर्वप्रथम इन खोजी विदेशी पत्रकारों को अपना लाल सलाम करते हुए मैं कहना चाहता हूं कि आर्थिक द्रोहियों के लिये कारागार ही सबसे उपयुक्त स्थान है। चाहे जितना बड़ा अपराधी हो। पांच जेलों में रहकर इमर्जेंसी में तानाशाही से लड़ते आज मेरा मानना है कि भारत के जेल मानव-कृत रौरव नरक से भी बदतर है। इन गणमान्य करचोरों का वहीं उपयुक्त वास है। अब बुद्धिमान लोग कहेंगे कि साक्ष्य कानून में ऐसी सजा नहीं होती। तो गिरफ्तार भी तो ये अपराधी नहीं हो रहे रहे है? सभी छुट्टा हैं। आजाद हैं। लचर न्याय व्यवस्था के लाभार्थी हैं। इसीलिये रोटी चुराने पर भूखे और धनी को समान दण्ड मिलता है।

आदर्श मंत्र मौन

Sachin Tendulkar's 5 Big Awards

प्रश्न उठ सकता है कि जब इतने नामीगिरामी लोग ”इंडियन एक्सप्रेस” की सूची में चमक रहे हैं तो केवल सचिन ही क्यों उल्लेखनीय हो गये? इसका कारण है। भारत राष्ट्र ने इस महापुरुष को कौन सा लाभ नहीं दिया? भले ही सचिन दसवीं फेल हों। पांच लाख रुपये वाले अर्जुन पुरस्कार से नवाजे गये जब वे मात्र इक्कीस वर्ष के थे। वह खेल का शीर्ष पारितोष था। फिर मिला राष्ट्र का शीर्षतम खेल पुरस्कार ”ध्यानचन्द” (पहले राजीव गांधी) खेल रत्न। और उसके बाद पुरस्कारों का तांता लग गया। पद्मश्री, पद्म विभूषण और आया भारत रत्न (16 नवम्बर 2013) जब वे केवल उंतालिस के थे। साल भर पूर्व ही भारत की सबसे श्रेष्ठतम बहस की पंचायत (राज्यसभा) में मनोनीत हुए। हालांकि पूरी सत्र की अवधि सचिन सदन में एक शब्द भी नहीं बोले। यह भी उनका रिकार्ड रहा! मगर एक अच्छाई रही कि राज्यसभा से मिली 90 लाख की राशि सचिन ने प्रधानमंत्री कोष में दे दी थी। सरदार मनमोहन सिंह भी दस वर्ष तक संसद में रहे तथा मौन को आदर्श मंत्र मान कर चले थे। एक दौर था जब मोहम्मद अजहरुद्दीन को सचिन ने झूठा साबित किया। जब वे बोले थे कि ”छोटे के नसीब में जीत नहीं बदी है।” अजहर के बाद सचिन ही कप्तान बन बैठे। सचिन को भारत ने सब कुछ दिया, मगर एवज में राष्ट्र को क्या मिला?  टैक्स भुगतान को टालकर खरबों की हेराफेरी में राष्ट्रकोष की अवैध लूट ?

सीखचों के पीछे बुढ़ाते नौजवान

सदा कई समाचार पढ़ने को मिलते है कि अभियुक्त कि सालों तक जमानत नामंजूर होती है फिर भी हजारों निर्दोष बेवजह सींखचों के पीछे जीवन गुजारते रहे, बुढ़ाते रहे। जमानत शीघ्र नहीं मिलती है। कानून का बुनियादी आदर्श है: ”भले ही सौ अपराधी छूट जाएं, पर एक भी निर्दोष को कैद में नहीं रहना चाहिये।” हालांकि ठीक उलटा हो रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)