थिएटर के मरजीवा अरुण पाण्डेय-4

सत्यदेव त्रिपाठी।

‘हरे राम हरे कृष्ण’ की पहली भेंट के बाद ‘विवेचना’ के सालाना उत्सव के लिए जबलपुर की पहली जवाई में ही ऐसा अनुभव हुआ जैसे अपनी किसी रिश्तेदारी के शादी-व्याह जैसे आयोजन में आये हों… और तब से दर्जन भर बार जाना हुआ, लेकिन उस भाव में कोई कमी नहीं आयी। सब कुछ वैसे ही अपनापे की लज्जत से भरा हुआ… जबलपुर स्टेशन पर आधी रात को लेने चार लोग आये- स्वयं अरुण, नवीन चौबे, हिमांशु रॉय व बाँकेबिहारी ब्यौहार।


कच्चे धागे के साथ जिसे बांध दिया जाये…

ऐसी अगवानी और कहीं हुई हो- याद नहीं आती। जैसा कि कहा गया, जबलपुर में स्थायी रूप से रहना होता अरुण के घर में। क्या खाने का मन है, पूछकर मीनूजी खाना बनवातीं और फिर कुछ खास बना देतीं अपने हाथ से। हर बेला एक-दो-चार आगंतुक जुड़ ही जाते, जिसका सनातन अन्दाज़ मीनूजी को रहता। जबलपुर में दादा कहने की संस्कृति ज़बरदस्त है और मेरे देखते बीसों साल हो गये, बदल नहीं रही। याने अरुण के ‘भैया’ के अलावा बच्चों से बड़ों तक सभी का गोया राष्ट्रीय सम्बोधन ‘दादा’ भी इतना अपनापा भरा कि अन्य सभी जगहों -खासकर मुम्बई- का ‘त्रिपाठीजी’ बड़ा बेतुका लगने लगा। यह आज भी चल रहा है। इसी रौ में अरुण का बारम्बार आग्रह होता- ‘भइया, भौजियो के लेके अउता एक बेर…’ लेकिन वह तो ‘उनकी भउजी’ (कल्पनाजी) की बाहर न निकलने- ख़ासकर आयोजनो आदि में शरीक न होने- की अंतर्मुखी मूल वृत्ति से सम्भव होना ही न था, वरना ये नाट्य-यात्राएँ बिलकुल न रहकर पारिवारिक सम्मिलन हो जाता। फिर भी ऐसा होने से बचा कहाँ! पहली बार जब चलने लगा था, मीनूजी ने दो कुर्त्ते सामने रख दिये- ‘पाण्डेयजी ने ख़ास आपके लिए सिलवाके रखे हैं’… तो हो गया न बड़ी अपनापे वाली रिश्तेदारी का सच्चा सिला। इस पर मैं तो पानी-पानी… लेते बनता न था और ‘ना’ कहना तो कैसे होता! ‘भइ गति साँप-छछून्दर केरी’ वाला हाल था। बल्कि कहें कि तुलसी की इस पंक्ति से ज्यादा सटीक वह है, जो मेरी निरक्षर माँ जोड़ (इम्प्रोवाइज कर) देती- ‘लीलत-उगिलत प्रीति घनेरी’। लेना पड़ा, लेकिन धीरे-धीरे बड़ी तटस्थता के साथ इस भेंट-भाव को मैंने परम्परा नहीं बनने दिया। लेकिन इन सबके पीछे कार्यरत अरुण के गहन संवेदन-सिक्त मानुष भाव, जो नाट्यकर्म से बना है और जिसने नाट्यकर्म को इतना मानवीय बनाया है, ने बिना भेंट-उपहार लिये-दिये व बिना ‘भउजी’ को लाये भी वही कर दिया है कि ऐसे ‘कच्चे धागे के साथ जिसे बांध दिया जाये, वह बैरी क्या छूटे, वहीं पर जिये वहीं मर जाये’।

चार काकाओं की याद

उत्सव के दौरान देखने को मिला कि अगवानी के लिए आये उक्त चारो ‘विवेचना’ के चार स्तम्भ हैं। और मुझे अपने ख़ानदान के चार काकाओं की याद आयी, जो बहनों की शादियों से लेकर ख़ानदान के अन्य सभी आयोजनों में अपने-अपने हिस्से के दायित्व को यूँ सम्भाल लेते थे कि किसी को कुछ पता ही ना चले। यहाँ भी कोई एक दूसरे से ज्यादा बात करते दिखता नहीं था, लेकिन आपसी समझ ज़बरदस्त और ग़ज़ब की सहयोगी सहभागिता (कोऑर्डिनेशन)। सब देखते हुए बिना बताए ही समझ में आ गया कि सबकी सहमति से मंचेय नाटकों के चयन के बाद अपने नाटक की तैयारी एवं उत्सव में आमंत्रित नाटकों के मंचन की व्यवस्था का सारा दारोमदार अरुण के समर्थ कंधों पर होता। जनसम्पर्क का सारा कार्य नवीनजी देखते। अति महत्त्व का आर्थिक मामला हिमांशु रॉय के ज़िम्मे होता। मंचन के पूर्वापर का मंच-संचालन व गोष्ठियों के आयोजन के कार्य बाँके बिहारीजी सम्भालते। इनके अनुदेशों-इशारों पर पूरा नाट्य-दल गतिशील रहता। सर्वाधिक स्पृहणीय लगा था मुझे नाटक देखने के लिए आते शहर के मानिंदों-बुजुर्गों को दिया जाता माकूल सम्मान, जिसमें आचार की भारतीय पद्धति जीवंत होती।

कुल मिलाकर सारा प्रबंधन इतना सुचारु (स्मूथ) होता कि ‘ता रख न सके कोई किसी ‘काम’ पे अंगुश्त’!

हिंदी में मंचेय नाटकों के अभाव के मिथक को तोड़ता रंगकर्म

अरुण की मुरीद बनकर लौटीं नीना गुप्ता

यहीं अरुणजी के नाट्य-नियोजन -ख़ासकर मंच तैयार करने- के ग़ज़ब के कौशल का एक उदाहरण दे दूँ। उत्सवों में बड़े-बड़े सेट मंगाने और भाड़ा-किराया खर्च करने-कराने के बदले वे अपने मौजूद साधनों में उसी प्रभाव का मंच तैयार करके दे देते हैं और उन्हें अपने मौजूद उपकरणों की बहुविध उपयोगिता व शहर में ऐसे सामानों की सुलभता का पूरा पता होता है। इस कौशलपूर्ण विधान पे नाटक करके लोग ख़ुशी-ख़ुशी जाते। यह सब देखकर मैंने कहीं लिखा था कि मुम्बई में जया बच्चन के एक दिन के पूर्वाभ्यास (रिहर्सल) पर जितना पैसा खर्च होता है, उतना भर दे दिया जाये, तो अरुण पांडेय एक नाटक बना सकते हैं। उन दिनों स्टार कलाकारों का चलन शुरू हुआ था। छोटी जगहों पर उनकी माँगें ज्यादा भी होती थीं, जिसका शहर और इसीलिए वहाँ के रंगकर्म पर असर भी पड़ता था और इसीलिए अरुण जैसे नाटक वालों को न चाहते हुए भी ‘जनता की माँग’ पर वैसा करना पड़ता था। इसी रौ में एक बार मैंने नीना गुप्ता को जबलपुर आने के लिए तैयार कर दिया था। नाटक के नशे में वे ट्रेन से जा रही थीं, पर उस रात ट्रेन कैंसिल हो गयी। दूसरे दिन नागपुर तक हवाई यात्रा हुई। तब जबलपुर में हवाई अड्डा न था। ‘सूर्य की अंतिम किरण…’ का सेट ले जाने की समस्या थी। अरुण ने चित्र देखकर कहा- ‘आप आ जाइए, सेट मैं बनवा दूँगा’। नीनाजी को संदेह तो बहुत था, पर मेरी ललकार और ले जाने के खर्च व ज़हमत के चलते जोखम उठाने की हिम्मत (डेयरिंग) की। मैं न आया था, पर अरुण-निर्मित सेट ऐसा कामयाब रहा कि नीनाजी अरुण की मुरीद बनकर लौटीं।

नाटक ही अरुण का जीवन, पर जीवन नाटक नहीं

दो-चार वाक्य बोल देते तो क्या नुक्सान हो जाता…

नाट्योत्सव में हर दिन नाश्ते के बाद व दोपहर के भोजन के पहले चर्चा-गोष्ठियाँ होतीं, जो मैं महाराष्ट्र में बहव: देख-कर चुका था। सो, यह मेरे लिए बड़े शौक़ का सबब होता। फ़र्क़ यह ज़रूर है कि वहाँ प्राय: विगत शाम हुए नाटक पर केंद्रित होती चर्चा, जिसमें निर्देशक भी बैठता और सवालों के उत्तर देता। इसके बदले ‘विवेचना’ में नाट्य से सम्बंधित विषयों पर चर्चा होती। और कहना होगा की विवेचना’ में चर्चा अच्छी होती। लेकिन ख़ास बात यह कि यहाँ हर नाटक के मंचन के बाद पूरी टीम के साथ मंच पर बुलाकर भी कुछ-कुछ कहा-कहलवाया जाता, जो सदा से मेरी प्रकृति व सोच के विरुद्ध रहा। नाटक देख के या कोई किताब पढ़ के तुरत उस पर कुछ बोलने को मैं ‘अधकचरे अध्ययन का अकस्मात् वमन कहता’। इसीलिए मुम्बई में ‘जनसत्ता’ शुरू होने के बाद कुछ दिनों में जब नियमित साप्ताहिक समीक्षा लिखने की बात हुई, तो तत्कालीन सम्पादक श्रीयुत अच्युतानंद मिश्र से निवेदन करके मैंने बुधवार का दिन तय कराया था, ताकि शनि-रवि को हुए ख़ास नाटकों पर सोचने-पचाने के लिए कम से कम दो दिन तो मिले। लेकिन यह जबलपुर के रंग-समाज का प्रेम ही है कि उनके स्नेहाधिकार भरे इसरारों के वशीभूत अपनी सारी सोच-समझ को परे रखकर नाटक के तुरत बाद मेरी वाचा को फूटना पड़ा। इसका भी एक वास्ता नितांत पारिवारिक है। नाटक के बाद रात को घर में खाते हुए नाटक की चर्चा होनी स्वाभाविक होती, जिस दौरान कभी मंच से ज़बरदस्ती मेरे कुछ कहे को पिताजी ने ऐसा सराहा कि गोया मैं न बोलता, तो नाटक का जो असर उन पर पड़ा, वह न पड़ता। निश्चितत: यह पिताजी की सदाशयता रही, पर बक़ौल मोहन राकेश ‘प्रतिभा तो एक तिहाई व्यक्तित्त्व का निर्माण करती है- बाक़ी दो तिहाई तो लोगों की सराहना से हो जाता है’– और वह पिता हो, तो बात ही क्या! शायद नाटक के बाद तुरत बोलने में पिताजी के सहार और उस पर मीनूजी की फुहार ने ही मुझे तुरत बोलने लायक़ बना दिया हो। इस प्रसंग का एक उपसंहार भी है कि जबलपुर में देखे सारे नाटकों में अब तक का अरुणजी का जो अंतिम नाटक देखा है कबीर पर, उस पर एकाधिक इसरार-आग्रह के बाद भी मैं मंच से कुछ न बोला। दूसरे दिन गोष्ठी में खुलकर जो बोला- फिर लिखा भी, वही उस रात न बोलने का कारण भी था। और इस पर मंच से उतरने के बाद मेरे न बोलने को लेकर मीनूजी की गाढ़ी स्मित के साथ उपालम्भ भरी टिप्पणी अपनी बेहद मार्मिकता में अविस्मरणीय है- ‘हमारे लिए दो-चार वाक्य बोल देते नाटक पर, तो क्या कुछ नुक्सान हो जाता आपका?’

पूर्ण मनुष्य बनाने की कार्यशाला

लेकिन इन सबके बीच मूल बात यह है कि समीक्षक की सहभागिता का जो संतोष जबलपुर में मिलता, जो कद्र होती है, वैसा और कहीं होता नहीं दिखा। और यह अरुण-रचित ‘विवेचना’ का प्रेम ही नहीं, एक समूची नाट्य-संस्कृति है, जो सचमुच उदाहरणीय है। कहीं-कहीं तो खूब बड़े आयोजन में पहले दिन मंच पर बुलाकर फूल-माला से स्वागत व दो-चार वाक्यों के शुभेच्छा जैसे औपचारिक सम्बोधन करा लेने के बाद सिर्फ़ नाटक देखना और दिन में ख़ाली बैठे रहना ही होता। ऐसे में जबलपुर का आयोजन ख़ास तौर पर यादगार रहता है। दिन भर कुछ न कुछ चलता रहता है। कोई न कोई साथ होता है। टीमों के अभ्यास ही देखते रहते। वैसे अपनी टीम के साथ अरुण को देखना भी एक नाट्यानुभव है। जब किसी नये नाटक की तैयारी या नियोजित शो के लिए अभ्यास का प्रयोजन नहीं भी होता है, अपनी टीम के साथ शामों को अभ्यास-स्थल पर होना उनकी आदत में शुमार है। एक बार ऐसा भी अवसर बना, जब मैं किसी और कार्यक्रम में जबलपुर गया। अरुण से तो मिलना ही था, लेकिन समय की क़िल्लत कुछ ऐसी हुई कि शाम का ही वक्त बचा, और हम अभ्यास-स्थल (कोई विद्यालय था) पर ही मिले। बड़ा मज़ा आया, जब बच्चों ने विविध प्रकार का कुछ करके दिखाया- काव्यपाठ, किसी कविता की प्रस्तुति, संवाद या नाटक के दृश्य, एकल व समूह गान आदि। भेंट भी नाट्यमय रही- अरुण के जीवन की तरह। पता चला कि नाट्य पर लिखे विवेचनात्मक लेखों के पाठ भी वहाँ होते हैं। इस क्रम में डॉ श्रीराम लागू पर लिखे मेरे लम्बे लेख का पाठ भी हुआ था, ऐसा बताया गया। याने उनका प्रशिक्षण एक मुकम्मल रंगकर्मी ही नहीं, एक सुशिक्षित, सुरुचि-सम्पन्न पूर्ण मनुष्य बनाने की कार्यशाला होती है- मात्र शो करके निकल जाने की खानापूर्त्ति नहीं। लेकिन कहना होगा कि यह मुम्बई जैसे महानगर में सम्भव नहीं, लेकिन छोटे शहरों में भी अमूमन सुलभ नहीं।

हिंदी में मंचेय नाटकों के अभाव के मिथक को तोड़ता रंगकर्म

व्यक्तित्त्व का सबसे पारदर्शी आईना- पुस्तकालय

‘विवेचना’ में कुछेक बार तो उत्सव के आख़िरी शो के बाद बच्चे गाते-बजाते बैठ गये और सुबह हो गयी। अरुण को भी मैंने जबलपुर और उसके अलावा भी जागृति के जोश भरे गीत गाते-गवाते सुना है- पीछे कोरस में बच्चे दुहराते। ऐसे खुलेपन-मस्ती व सामुदायिकता का मुख्य कारण है- पाश्चात्य सभ्यता, शहरीपन व तथाकथित आधुनिकता (जिन्हें फैलाने में एनएसडी का बहुत बड़ा योगदान है) से दूरी व भारतीय लोकजीवन से गहरी सम्पृक्ति। ख़ुदा करे, यह कभी ख़त्म न हो- ‘विवेचना रंगमंडल’ वैसा ही रहे। रातों को खाने पर अरुण साथ होते और देर रात तक गप्पें होतीं। उनका अध्ययन कक्ष ही प्रायः मेरा शयन कक्ष बनता, जहां ढेरों पुस्तकें व पत्रिकाएँ सुलभ होतीं। कई बार मन होता कि काश एकाध दिन कोई न मिलता, कहीं जाना न होता और इन किताबों के साथ दिन बीतता… पर ऊपर उल्लिखित बेहद नाट्यधर्मी आयोजनों, जिसका रसिया मेरा मन भी है, के कसाव में ऐसा हो न पाता। लिहाज़ा दो-एक किताबें हर बार लेके आता। अरुण का पुस्तकालय उनके व्यक्तित्त्व का सबसे पारदर्शी आईना है। उन्हें जानना हो जिसे, वह और कुछ भले करे, उनके पुस्तकालय में ज़रूर चला जाये। उनके गहरे बामपंथी सोच का ठीक पता मुझे पहली जवाई में घर जाके ही लगा, जो उनके काम को देखते-देखते धीरे-धीरे पुष्ट होता गया। वरना तो उनकी पारिवारिकता-मावीयता-व्यावहारिकता व आचारधर्मिता में वह छिपी रह जाती। उम्र में बड़े होने का जो आदर मुझे अरुण व विवेचना से मिला, वह मेरे लिए अनमोल निधि है। यूँ मुम्बई में विकसित मेरा एक व्यावहारिक मन इन सबसे कुछ अनखाता भी, लेकिन घुट्टी में बसे गँवईं मन को यह सब खूब भाता।

(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)