थिएटर के मरजीवा अरुण पाण्डेय-6।
सत्यदेव त्रिपाठी।
अरुण के साथ कुछ यात्राएँ भी हुईं, जब हम जबलपुर से बाहर मिले। स्वाभाविक ही है कि वे यात्राएँ भी रंगकर्म के चलते ही हुईं- इसी की पूरक। मैं जब ‘काशी विद्यापीठ’ पढ़ाने पहुँचा, तो दो-तीन महीने के अंदर ही मार्च, 2010 में ‘साहित्य और बाज़ार’ पर बड़ा सेमिनार किया और अरुण को थिएटर में बढ़ते बाज़ार पर बोलने बुलाया। अरुण ने लिखित पर्चा पढ़ा और नाटक वाले आदमी का अन्दाज़ बिलकुल अनाटकीय- बल्कि अन्दाज़ ही न था। मुझे उम्मीद थी- बोलेंगे, लेकिन अब तक ऐसा कोई अवसर याद नहीं आ रहा, जब मैंने उन्हें कुछ देर मंच से बोलते सुना हो। वहाँ ऐसा हुआ कि मैं नयी जगह पर अपने आयोजन में व्यस्त और अरुण के तो बचपन का शहर बनारस… वे अपने दोस्तों से मिलने में मस्त! और दोस्तियाँ भी कैसी कि रावण बना बीहड़ दोस्त धमकी देता कि पतंग काटने का बदला मंच पर लूँगा, क्योंकि अरुण सीता बने थे। वे खुद न बतायें, तो आज के स्थूलकाय पक्खड़ अरुण को देखकर कोई कहेगा कि कभी ये इतने सुकुमार भी रहे होंगे कि सीता की भूमिका की होगी! बनारस की रामलीलाओं ने ही उनके थिएटर-कर्म का बीज-वपन किया है। फिर विद्यापीठ से दो किमी पर उनका अपना हरिश्चन्द कॉलेज और विद्यापीठ से दो मिनट पर स्थित मेरा आवास… फिर भी द्वार तक आके घर में न आ सके और मैं समझ सका– ‘मैं नहीं लौटा तुम्हारे द्वार से, पथ ही मुड़ गया था’। सो, यात्रा की सिर्फ़ गिनती हुई, कोई दस्तावेज न बना।
‘बड़ी उम्दा चीज़ तैयार होई’
दूसरी यात्रा दिल्ली की हुई। कभी नामवरजी को सुनते हुए मुझे पता चला कि बनारस में रहने के दौरान उस अंचल के तत्कालीन थिएटर को लेकर उनकी स्मृति में कुछ बुनियादी सामग्री है। बस, अरुण से राय की। थिएटर के लिए तो हमेशा उनकी ‘नसों में खून, दिल में जोश, आँखों में सजा सपना नया…’ होता है। तुरत दिल्ली चलने की हामी भर दी। नामवरजी से बात की, तो उन्होंने तीन दिनों अपने घर पर मिलकर बात करने की तारीख़ें दे दीं। हम परम प्रसन्न। तीन दिनों की बात से तो अरुण को पूरी किताब तैयार होने के सपने आने लगे। रामबख्शजी से सम्पर्क किया- ‘गोमती’ गेस्ट हाउस में कमरा बुक हो गया। हमने नियत तिथि पर पहुँच के फ़ोन किया, तो नामवरजी अचकचा उठे। हमारा भी माथा ठनका, लेकिन सुबह 10 बजे घर पे बुला लिया। फिर बड़ी विनम्रता व पछतावे के साथ उन्होंने खेद व्यक्त किया कि किसी बड़े आयोजन के लिए ‘हाँ’ कहते हुए उन्हें हमारी तारीख़ें याद न आयीं। लेकिन वह दिन पूरा हमें दिया। बातें सचमुच बड़ी उपयोगी और विरल थीं- भिखारी ठाकुर की मसर्रत भरी यादें व नाट्यकर्म के कुछ जीवंत संदर्भ व अद्भुत व्याख्यायें मिलीं। दिन सार्थक हुआ। नामवरजी भी बाक़ी बातें करने के लिए उत्सुक थे- पुन:-पुन: दुबारा आने के इसरार भरे आदेश दिये। ख़ास बात यह थी कि उन दिनों वे सपत्नीक थे। चाय के लिए पूछा, तो मैं जाके बना लाने के लिए तैयार हो गया, लेकिन बड़ी मसृणता से उन्होंने कहा- ‘बैठो, बन जाएगी’। खुद अंदर जाके तश्तरी (ट्रे) सहित उठा के ले भी आये। अरुण तो बाहर आकर बल्लियों उछल रहे थे- ‘भैया, फ़ोन करिहा। हमहन फिर चलल जाई- बड़ी उम्दा (उनका प्रिय शब्द) चीज़ तैयार होई’।
मन बुरी तरह बिदक गया
लौटना साथ में तय हुआ था जबलपुर होते हुए, लेकिन वहीं मुझे मां की बीमारी की खबर लगी। मैंने दूसरी रात फ़रक्का पकड़ ली। अरुण ने स्टेशन तक आके विदा किया। यह दुर्भाग्य है कि बहुत चाहकर भी अरुण के साथ हमारी कोई लम्बी यात्रा आज तक साथ में न हो पायी। रेल-यात्रा में निर्द्वंद्व गप का जो आनंद है, वह और कहीं नहीं। इसके कुछ दिनों बाद जब नामवरजी से समय लेने की याद दिलाने के लिए उन्होंने फ़ोन किया, तो मैंने हिम्मत करके कहा कि अब मैं नामवरजी से बात करने न जाऊँगा, तो अरुण बड़े निराश हुए। तब तक उन्हें पता न था शायद कि ‘नीति विरोध सोहात न मोहीं’ की तरह ज़रा भी बात इधर-उधर लटकी, तो मेरा मन बुरी तरह बिदक जाता है। समय देकर मुम्बई से दिल्ली बुलाये और यूँ भूल जाये कि हमारे आने तक याद न आये कि एक फ़ोन करके रोक ही दे। आप बहुत बड़े होंगे, पर क्या हमारे छह दिन इतने फ़ालतू हैं! हम इतने नाचीज़ हैं, तो समय दे ही क्यों- ‘दाता से सोम भला कि ठावें देय जवाब’। फिर अरुण से आगे कहा ‘मैं समय ले देता हूँ। आप जाके बात कर आइए- काम होगा, तो मुझे भी अच्छा लगेगा। लेकिन मुझे पता था कि अरुण भी यारों का यार है… इस तरह जायेगा हरगिज़ नहीं। हाँ, पहले दिन की बात को अरुण ने लिपिबद्ध किया और हम दोनो के नाम से छपाया भी, लेकिन मेरी रुचि उसमें से निकल गयी, तो आज मुझे यह भी याद नहीं कि किस पत्रिका में छपा- ‘अक्षरा’ थी या ‘आलोचना’ या कोई और।
रायगढ़ नाट्योत्सव की सहयात्रा
लेकिन इन दोनो यात्राओं के पहले हुई थी ‘इप्टा’, रायगढ़ के नाट्योत्सव में शरीक होने की सहयात्रा, जो हर दृष्टि से बड़ी मुफ़ीद रही। हबीब साहब के सात नाटकों के शोज़ का सात दिनों का उत्सव था। हम सप्ताह भर साथ रहे। हबीब साहब के समूह के लगभग सारे कलाकारों से भी अरुण का अपनापा देखा- यह भी कि किसी को गाँजा पिला रहे हैं, किसी को बीड़ी। और उनसे गीत सुन रहे हैं- गपिया रहे हैं। उसी में से एक ने हबीब साहब का कैरीकेचर बनाते हुए उन पर एक व्यंग्य कविता लिखी थी, वह भी निकाल लिया, जिसे मैं उन पर लिखे आलेख में उद्धृत कर पाया और जिसे पढ़ने का सबने खूब लुत्फ़ लिया। बाद में पता लगा की वह कविता हबीब साहब ने भी सुनी थी और मज़े लिये थे। तब देखा कि रंगकर्म करने-कराने का अरुण का दायरा व इसके लिए उनकी क्षमता वनिष्ठा सिर्फ़ ‘विवेचना’ व जबलपुर तक सीमित नहीं, सार्वदेशिक है। इप्टा, रायगढ़ के आयोजकों (अजय-उषा आठले) व पूरी टीम के साथ भी उनके सलूक-सौहार्द्र ऐसे ही- गोया उनके भी संचालक हों। वहाँ पहली बार रंगकर्मी के रहन-सहन का बिलकुल ज़मीनी अनुभव शब्दश: हुआ। रंगकर्म अरुण का भी तो शतश: ज़मीनी है, पर वहाँ उनके सज्जित (फ़र्निश्ड) घर में रहने से उतना बजाहिर ‘फ़ील’ नहीं होता। लेकिन यहाँ मिट्टी-निर्मित घर के कमरों में ज़मीन पर गद्दे बिछाके पूरा दल सोता। सिर्फ़ तनवीर-दम्पति को होटल मिला था। बाक़ी हम सब खुले में नल पर नहाते और वहीं चूल्हों पर नाश्ता-खाना बनता। इसलिए बच्चों सहित पूरे रंग समूह से एक दिन में सम्बंध घरेलू-से हो गये। और अरुण तो सारे बच्चों तक के साथ पहले से ही घुले-मिले थे। उनके साथ इनके उस्ताद व मित्र के मिले-जुले सहज रिश्ते, जिसमें न कोई आग्रह, न अपेक्षा… बस- सब कुछ देना व सब कुछ ग्रहण करना। ऐसे अरुण के साथ से मैंने हर बार बहुत कुछ सीखा है- विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बंधों की बावत अपने अंदर कुछ-कुछ नया उगा के (ग्रो होके) आया हूँ। अब आज के तथाकथित प्रगत (ऐडवांस) समय में ऐसा सम्भव नहीं, वरना मेरी चले तो नाट्योत्सवों की व्यवस्था स्थायी तौर पर ऐसी ही हो– सामूहिक और सार्वकालिक रूप से खुली। लेकिन आगे चलकर रायगढ़ ने भी अपने को ‘मॉडर्न’ बना लिया- होटेल-निवास आदि की अभिजात सुविधाओं वाली भी यात्राएँ वहां की हुईं। अरुण को वहाँ जब सम्मानित किया गया, मैं मंच पर मौजूद रहकर खूब गर्वान्वित हुआ। उस पहली यात्रा की लौटानी में याद आता है कि हम दोनो किसी जंक्शन तक साथ आये थे- सामान्य डब्बे में धंसकर खड़े-खड़े भी खूब गपियाते हुए।
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)