थिएटर के मरजीवा अरुण पाण्डेय-7 (समापन क़िस्त)।
सत्यदेव त्रिपाठी।
रायगढ़ के इस उत्सव के बरक्स देखें, तो आज के नाट्योत्सवों में कुछेक समीक्षक(!) तक ऐसे स्टार हो गये हैं कि फ़्लाइट से आने के बाद किस होटल में ठहरेंगे, कौन सी ब्रैण्ड का पीएँगे और किस होटल का मटन खाएँगे आदि भी पहले से तय करके आते हैं। फिर शो के दौरान सभागार से बाहर मोबाइल पर लगे रहते हैं और अख़बार में जो छपता है, उसके लिए पंडित ह.प्र. द्विवेदी के शब्दों में कहें, तो ‘पुस्तक छुई तक नहीं और आलोचना ऐसी लिख दी कि ‘त्रैलोक्य विकम्पित’! लेकिन इस वृत्ति के चलने एवं ऐसे अतिचारों के पीछे एक बाज़ार-तंत्र सक्रिय है, जिसमें अफ़सरशाही से लेकर दलाल तक की कड़ियाँ जुड़ी हैं। इसी की एक कड़ी को एक बार मैंने अरुण के यहाँ देखा। यह उसी ‘आषाढ़ का एक दिन’ के पहले शो का अवसर था, जिसे पढ़ाने मैं तीन दिनों के लिए गया और उतनी मधुर यादें लेकर आया था। उसे जबलपुर के साथ मेरे रंग सम्बंधों का चरमोत्कर्ष सोपान कह सकते हैं, क्योंकि शो देखने के लिए आहूत वाली यात्रा में मिली उस कड़ी के बाद कुछ दिनों के लिए बात कुछ बदल-बदल गयी।
निहुरे-निहुरे कहुं ऊँट की चोरी
लेकिन मैं तो इस बार मधुरता की और उमंगें सँजो के आया था। शो की इस तामीर में कुछ मेरा भी योगदान था, जिसे देखने का हुलास कुछ और भी था। उसमें और चार चाँद लगाते हुए सतना से मेरे परम मित्र व सरनाम सिने-चिंतक प्रह्लाद अग्रवाल भी जुड़ गये थे, जो जबलपुर के ही मूल निवासी हैं। सतना से उन्हीं की कार में सुहानी यात्रा करके हम एक दिन पहले ही पहुँच गये थे। मल्लिका बनी बालिका की तबियत खराबी की खबर पाकर थिएटर भी गये। मुख्य भूमिका के रूप में यह उसका पहला ही मौक़ा था। सो, तबियत की बदहाली के बावजूद बच्ची के उत्साह व दृढ़ संकल्प में रत्ती भर भी कमी न थी। हम निश्चिंत-से होके, सभी कलाकारों को शुभेच्छाएं देके व बक़ब करके निकले। रात को देर तक भटके। प्रह्लादजी अपने भाइयों के इसरारों को नज़रंदाज़ करके सोने के लिए मेरे साथ अरुण के घर ही आ गये। सुबह हम दोनो को किसी शिक्षा संस्थान के समारोह में अतिथि होना था। हम नाश्ता करके आयोजन के वाहन का इंतज़ार कर रहे थे कि अरुण-नवीन उस कड़ी को हवाई अड्डे से लिए हुए घर में दाखिल हुए। शाम से साथ रहते हुए भी आगमन की मुझे भनक तक न लगी थी। सहसा देखके लगा कि शायद भनक लगने न दी गयी हो। इस बालिशता पर हँसी भी आयी- ‘निहुरे-निहुरे कहुं ऊँट की चोरी’! इस युति के परिणाम में थोड़े दिनों बाद ‘विवेचना रंग मंडल’ में ‘सिने आस्वाद’ का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। लेकिन मुझे तो उनके नमूदार होते ही गोया लिफ़ाफ़ा देखते ही मजबून समझ में आ गया था। इन सब बातों से अरुण अनजान न थे। ऐसे खाँटी प्रतिबद्ध से ऐसी उम्मीद कदापि न थी– ब्रूटस, यू टू! वरना तो इस युग में ऐसी चिंताओं-विस्मयों से रूबरू होना आम है। इसे सहने के संतोष के लिए क़तील शिफ़ाई का एक शेर मेरे लिए सुमिरनी है-
‘तोड़ गये पैमाने वफ़ा, इस दौर में कैसे-कैसे लोग/ ये मत समझ कतील कि बस इक यार तेरा हरजाई है।’ बहरहाल, शो अच्छा हुआ। मंच पर बुलाया गया– उस कड़ी को भी। बोलने की इच्छा बिलकुल न थी। और अपवाद स्वरूप उस दिन आग्रह भी नहीं, बल्कि पूछा गया- बोलना चाहेंगे। ‘ना’ में सर हिला दिया- ‘जान बची लाखों पाये’ और ‘लौट के बुद्धू घर को आए’- मंच से उतर कर सीधे। तय कर लिया- ‘ऊधौ, अब न बसौं यहि गाँव’। शायद संयोग पहले से ही जानता था कि देर रात को ज़रूरत पड़ेगी… सो, वाहन सहित प्रह्लादजी को भेज दिया था।
लेकिन एक ही कार्यक्रम से समझ में आ गया और फिर अपने अरुण ‘मियाँ ठौर के ठौर’। वह कड़ी वहीं से छूट भी गयी। मैं नज़र लगाये था कि यह वारदात फिर होती है या नहीं। फिर एक-दो सालों के अंतराल पर सब जस का तस हो गया। तन से ही थोड़ा दूर हुए थे- मन तो उतने ही क़रीब था। इस बात को लेकर ‘कहिहैं सब तेरो हियो, मेरे हिय की बात’ के सिवा कभी हमारी कोई बात नहीं हुई और सुबह का भूला शाम तक घर आ जाये, तो भूला नही कहा जाता। लेकिन युधिष्ठिर के ‘नरो वा कुंजरो’ जैसा एक स्खलन (मेरी जानकारी में) अरुण का होना था।
पीने के बाद होश में आना हराम…
और अब इस संस्मरण का समापन जबलपुर की जानिब से… अरुण के शहरे जबलपुर के एक रसिया ने अपने सैलानी सुर में उनके व्यक्तित्त्व को ग़ालिब का अन्दाज़ देते हुए कहा है- ‘तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता’। यह बात कहने में बड़ी अच्छी, सुनने पर बड़ी हिट लगती है, लेकिन मैं जितना अरुण को जानता हूँ- शराब उसके कलाकार की प्रेरणा (उद्भव) नहीं, उपसंहार है। वह पीके नाटक नहीं करता। नाटक तो यूँ भी उसमें भरा हुआ है। जब नाटक शुरू किया, पीता न था- बनारस के बड़े पक्के ब्राह्मण ख़ानदान से है, जिसके तीन पितृव्य या पितामह (चाचा या दादा) कर्मकाण्डी हुआ करते थे। अब पीता है- नाटक कर लेने के बाद (इधर कुछ सालों में बदला है, तो नहीं कह सकता)। और पीने के बाद फिर होश में आने तक किसी काम का नहीं रहता। कलाकार का अपने शहर को बनाने में एक अहम योगदान होता है। दिल्ली जो है, उसके बनने में कौन कहेगा कि ग़ालिब का योगदान नहीं! आज के जबलपुर में अरुण का योगदान क्या बताने की बात है! लेकिन कलाकार के बनने में शहर का योगदान भी कम नहीं- कौन कहेगा कि ग़ालिब के शायर और शराबी बनने में उनके शहर (मुहम्मद ज़ौक़ और बादशाह) का योग नहीं! जब तीन दिनों अरुण मेरे साथ दिल्ली में था, मैंने अपने न पीने व दोस्तों के साथ महफ़िली निभाने के लिए जाम थाम लेने की आदत का ज़िक्र करके दो पेग से ज्यादा पीने न दिया। यह काम जबलपुर भी कर सकता था। और उस अरुण को भी मैंने देखा है, जो पीता था, लेकिन होश नहीं खोता था- ‘पीने के बाद होश में आना हराम है’ वाली बादाख़्वारी के कारणों का मुझे पता से ज्यादा क़यास है, जो उसके शहर से ही बावस्ता है।
ख़ूबसूरत छबि टूटी
जिस ‘विवेचना’ को अरुण ने अपना जीवन बना लिया और जिसे उसने अपने जीवन का सर्वोत्तम देकर एक वक्त में उस प्रस्थान बिंदु तक पहुँचा दिया था, जहां से वह ‘नया थिएटर’ व ‘कोरस’ जैसे मुक़ाम तक पहुँचने की यात्राएँ कर सकता था। लेकिन जैसा कि आम है, परिवार हो या संस्थाएँ, टूटती हैं प्रायः आर्थिक कारणों से, लेकिन निर्णायक होते हैं काग़ज़– फ़ाइलें। और मुख्य कर्त्ता होकर भी अरुण ने ये दोनो अपने पास न रखे। बात विश्वास की थी… और पहले वही टूटता है- फिर बाकी का टूटना क्या! लिहाज़ा दाम तो गया ही, नाम भी न मिला। अरुण को ‘विवेचना रंगमंडल’ बनाना पड़ा। लेकिन नाम में क्या रखा है-‘लुत्फ़ है लफ़्ज़-ए-कहानी में…’! और ‘विवेचना रंगमंडल’ अपनी कहानी आप कह रहा है। लेकिन उस मोड़ पर न अनुदान के पैसे आये होते, न विवेचना टूटती। इसके ब्योरे आज तक किसी ने सरे आम नहीं दिये- जानते सभी हैं, पर न कहने का दुनियावी चलन है। विवेचना के साथ मेरे मन में जमी चार काकाओं वाली ख़ूबसूरत छबि टूटी। दुख सभी को हुआ बहुत, लेकिन अरुण तो अवसाद (डिप्रेशन) में ही चला गया। किसी से बात ही करनी बंद कर दी थी– शायद बात करने लायक़ कुछ बचा न था। कहीं शून्य में ताकते बैठा रह जाता था। उन दिनों उसका सबसे ज़्यादा वक्त शौचालय में बीतता। जिस दुनिया से छला जाकर वह एक चोटी से अतल घाटी में गिर-घिर गया था, उससे दूर रहने का एकांत उसे कमोड पर ही मिलता। उसी अवसाद में वह अरुण, जो पीके बाहोश बना रहता था- बेहोश होने के लिए पीने लगा। यही उसकी बादाख़्वारी का इतिहास है- पीता नहीं है, पिलायी गयी है। छोटे भाई विवेक के नेतृत्व में परिवार न होता, तो इस अवसाद से उबरना न हो पाता। विवेक के मित्र आशीष द्विवेदी ने भी ‘आपद्गतं च न जहाति ददाति काले’ के सन्मित्र को सच कर दिखाया… और यह सब प्रच्छन्न रूप से मेरी नज़रों से गुजरा है। कवि के शब्दों में अरुण की तरफ़ से मैं कह सकता हूँ- ‘हाय बॉबी, सिर्फ़ तुम भाई न हो, तुम दाहिनी हो बाँह मेरी’।
कला-देवता व कालदेवता से गुज़ारिश करूँगा
लेकिन शहर तो हमेशा बहती गंगा में हाथ धोता है। अरुण के साथ पीया-पिलाया भी और फिर उस दौरान रातों को उसके ‘जुनूँ में बकता हूँ जाने क्या-क्या’ को सुबह तीन में तेरह मिला के उक्त ‘बादाख़्वार होता…’ की गवाही में ‘दुश्मनों की क़तार’ खड़ी कर दी। दुश्मन तो ग़ालिब ने भी ललकार के बनाये- ‘बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता’, लेकिन उसमें लहर को सर झुका के ऊपर से बहा देने का हुनर भी था। तभी तो ‘बगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है’ कहके अपने किये पर सरेआईना राख भी डाल देता था और पशे आईना वो आग आँच भी देती रहती थी। तो अपना अरुण ऐसा ‘वली’ है, जिसे राख डालना आया भी नहीं और भाया भी नहीं। फिर इसीलिए जैसे ग़ालिब को आख़िरी दिनों में वह दर्जा मिला भी और उसे पाके वे झींके भी- ‘वो दिन गये कि कहते थे नौकर नहीं नहीं हूँ मैं’… वैसा अरुण के साथ न होगा। मुझे यक़ीन है कि न वह वैसा (दरबारी) बन पायेगा, न उसे झींकना पड़ेगा- ‘ये हौसला मुझको तेरी आँखों ने दिया है’… उन बड़ी-बड़ी आँखों ने रात की कथा के दिनी परिणामों को बिना पलकें झपकाये एक टक देखा है और रात वाली ज़ुबान ने उफ़ तक नहीं किया है। और इन सब रूपों में वह सचमुच ‘वली’ है। इसीलिए चचा ग़ालिब से मुआफ़ी के साथ मैं अरुण के लिए कहूँगा- ‘तुझे हम वली हैं समझे, गोकि बादाख़्वार है तू’। और कला-देवता व कालदेवता से गुज़ारिश करूँगा कि वे तुझे ऐसा ही ‘वली’ बनाये रखें… आमीन!
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)