अनिल शुक्ल ।
लखनऊ का हज़रतगंज और हज़रतगंज का मेफेयर, सोने में सुहागा की कहावत चरितार्थ करते थे। वास्तव में हज़रतगंज लखनऊ की शानदार पगड़ी थी और मेफेयर उसमें जतन से जड़ा गया हीरा।

आज से दो सौ सात साल पहले जब नवाब सआदत अली ने एक यूरोपियन स्टाइल बाज़ार बनाने की शुरुवात की थी तो उन्हें इल्म भी नहीं होगा कि लगभग सौ साल बाद एक ऐसी ईमारत बनेगी जो की उर्दू अदब और अंग्रेजी रॉयल्टी की गंगा-जमुनी तहजीब बन कर लखनऊ की शान बढ़ाएगी। मेफेयर सिनेमा 1996 में अचानक बंद ज़रूर हो गया पर इस बिल्डिंग का स्टेटस अब तक आइकोनिक ही रहा है।

सिंधी रिफ्यूजी ने बनाया लखनऊ का लैंडमार्क

मेफेयर को लखनऊ का लैंडमार्क बनाने में न तो किसी नवाब का हाथ था न ही किसी अंग्रेज का बल्कि एक रिफ्यूजी का जो की आज के पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाके से लखनऊ आया था। वो एक सिन्धी था और उसका नाम था सेठ ज्ञानचंद थडानी। उन्हीं दिनों दो और सिन्धी प्रवासी लखनऊ आये। सीवी अडवाणी और हीरानंद मनसुखानी। लगभग साथ-साथ आये इन तीन लोगों ने लखनऊ को वो कुछ दिया जिस पर आज भी शहरियों को नाज़ है।
अडवाणी ने आजकल के गांधी आश्रम में किताबों की दूकान खोली जो बाद में मेफेयर बिल्डिंग में जा बसी, मनसुखानी ने रेशम का व्यापार किया और थडानी ने लखनऊ कैंटोनमेंट में चल रहे प्रिंस ऑफ़ वेल्स सिनेमा और रेजिमेंटल सिनेमा का प्रबंधन सभाला। ये बात 1930 की है।
थोड़े समय में ही थडानी समझ गये की सिनेमा हॉल खोलना लाभप्रद होगा। उस समय हज़रतगंज के एक छोर पर अंग्रेजों के लिये रिंग थिएटर और बॉलरूम (आज का जीपीओ) था और उसके आगे कुछ कोठिया और इमारतें थीं जैसे जहांगीराबाद पैलेस, जहांगीराबाद मेन्शन, कोठी नूर बख्श, ईस्ट इंडिया रेलवे, इलाहाबाद बैंक, सेंट्रल बैंक और पोस्ट मास्टर जनरल का ऑफिस।

चर्च के ठीक सामने पड़ी जमीन खाली

आज का कैथेड्रल, जो की सेंट जोसफ चर्च है, वह भी गोमती नदी की तरफ का बड़ा लैंडमार्क था। चर्च के ठीक सामने एक जमीन खाली पड़ी हुई थी जहां पर घना पेड़ हुआ करता था। शुरुआती दौर में जो साहेब और मेमसाहिब गंज घुमने आते थे अक्सर इन पेड़ों के नीचे थोड़ी देर बैठ कर सुस्ता लिया करते थे।

पहली फिल्म लॉरेल और हार्डी

थडानी साहिब की निगाह इस ज़मीन पर पड़ी और उन्होंने जहांगीराबाद के राजा एइजाज़ रसूल खान से इसे 99 साल की लीज पर ले ली। शुरू में उनका विरोध हुआ क्योंकि ज़मीन चर्च के ठीक सामने थी और वहां सिनेमा बनाना ईसाई तपके के कुछ लोगों को लाज़मी नहीं लगता था पर थडानी ने अंत में सब को मना लिया। 1937 में मेफेयर सिनेमा बन कर तैयार हो गया और उसमें दिखाई जाने वाली पहली फिल्म लॉरेल और हार्डी थी।
शुरू में थडानी साहिब सिनेमा का नाम मेत्रोपोल रखना चाहते थे पर अंतिम समय पर उन्होंने मेफेयर के नाम से रजिस्ट्री करवाई। मेफेयर बिल्डिंग में सिर्फ सिनेमा ही नहीं था बल्कि फर्स्ट फ्लोर पर एक डांस हॉल था और ग्राउंड फ्लोर पर हॉल से सटा हुआ रेस्तरां भी था। दोनों का नाम मेफेयर ही था। डांस हॉल बाद में चल कर ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी में तब्दील हो गया और  मेफेयर रेस्तरां क्वालिटी रेस्तरां हो गया।

सिर्फ अंग्रेजी फिल्में लगती थीं 1972 तक

मेफेयर 1937 से लेकर 1972 तक सिर्फ अंग्रेजी फिल्में दिखाता था। हॉल छोटा था, सिर्फ 500 सीटें, पर एक्सपीरियंस बहुत भव्य था। पाश्चात्य शालीनता इसकी पहचान थी। बिल्डिंग के अंदर घुसते ही लंदन में स्थित सिनेमा सा माहौल मिलता था। अंग्रेजी फिल्मों और उसके नायक और नायिकाओं के फ्रेम में लगे पोस्टर और फोटो बेहद ही आकर्षक लगते थे। वहां से ड्रेस सर्किल जाने के लिये चौड़ी अंग्रेजी महल नुमा सीढ़ियां थीं जिन पर चढ़ना ही एक स्टाइल स्टेटमेंट हुआ करता था।

घामड़ दर्शक भी बाबू साहब हो जाते थे

भव्य, शालीन और शांत वास्तव में मेफेयर का माहौल खुद में इतना भव्य, शालीन और शांत था कि ऊंची आवाजों पर वो भरी पड़ता था। घामड़ से घामड़ दर्शक भी मेफेयर में आ कर बाबू साहिब हो जाते थे, उसके  कल्चर के मुरीद हो जाते थे। सन्डे की सुबह मॉर्निंग शो देखना और फिर क्वालिटी में बैठ कर कॉफ़ी, पेस्ट्री, पैटी खाना और अंग्रेज दा किस्म के दोस्तों, यारो से हाय-हेलो करना लखनऊ की जेन्ट्री का विशेष शौक बन गया था।

मेफेयर की शोहरत

मेफेयर की शोहरत इतनी थी कि शौकत मिर्ज़ा, जो कि कमाल अमरोही की फिल्म पाकीज़ा के सह निर्माता थे, 1972 में खुद चल कर गुल्लू थडानी (सेठ ज्ञान चाँद के बेटे) के घर गये और पाकीजा को मेफेयर में ही रिलीज़ करने की इल्तिजा की। गुल्लू हिंदी फिल्में मेफेयर में नहीं चलाना चाहते थे (उसके लिये उनके पिता ने बगल में बसंत सिनेमा बनवाया था) पर मिर्ज़ा साहिब ने उनको मना लिया।
चार फरवरी 1972 को पाकीज़ा मेफेयर में लगी और पहले शो से ही हिट हो गयी। गुल्लू ने सिर्फ एक हफ्ते का मिर्ज़ा से करार किया था पर पाकीज़ा मेफेयर में दो साल चली। टिकट के लिये लाइन लाल बाग तक जाती थी।

सिर्फ तीन फिल्में चलीं आठ साल

राज कपूर के विशेष अनुरोध पर नवम्बर 1973 में बॉबी ने पाकीज़ा को मेफेयर से उतारा और चार साल पांच महीने चली। तब तक सत्यम शिवम सुन्दरम राज कपूर बना चुके थे। 22 मार्च 1978 में उसने बॉबी की जगह ली और ये फिल्म एक साल छ महीने चली। कुल मिलाकर, मेफेयर में सिर्फ तीन फिल्में 8 साल चली।

वहां जाना ही ठाठ की बात

पिछले सालों में कई लग्ज़री मल्टीप्लेक्स देश में बन चुके हैं पर मेफेयर जैसा अनुभव अब तक कोई भी नहीं दे पाया है। मेफेयर एक्सक्लूसिव था, कोजी था, सोफियाना था, तहज़ीबदार था, जहां जाना ही ठाठ की बात होती थी। आज वो नहीं है।
मेफेयर गुज़र चुका है पर उसके दीवाने अभी जिंदा हैं।
(साभार: लखनऊ कनेक्शन वर्ल्डवाइड)