प्रदीप सिंह।
लेखक, विचारक और इतिहासकार सीताराम गोयल ने कई दशक पहले लिखा- ‘जितनी भी आक्रमणकारी विचारधाराएं हैं- इस्लाम, ईसाइयत, कम्युनिज्म- जवाहरलाल नेहरू इन सबके प्रतीक हैं। अगर भारत में भारतीयता को जीवित रहना है तो नेहरूइज्म को खत्म होना पड़ेगा।‘ …और नरेंद्र मोदी की सरकार आज उसी दिशा में काम कर रही है। आप सरकार के कामकाज को देखिए, तो देश पर नेहरूइज्म/ नेहरूवाद की जो जकड़न है, उससे निकालने और तोड़ने की कोशिश हो रही है। इस बात की ओर इशारा केवल सीताराम गोयल ने किया हो, ऐसा नहीं है। इसकी ओर इशारा भारत के दूसरे वित्तमंत्री जॉन मथाई ने भी किया, जो नेहरू केबिनेट में रह नहीं पाए। उनको नेहरू से मतभेद के चलते बाहर जाना पड़ा। उन्होंने इस्तीफा देने के बाद बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस की और नेहरू की आलोचना करते हुए कहा कि जो प्लानिंग कमीशन बनाया गया है, उसकी कोई जरूरत नहीं है। वह दरअसल फाइनेंस मिनिस्ट्री के अधिकार को कम करने वाला है। इससे देश का कोई भला नहीं होने वाला। उन्होंने नेहरू जी के बारे में और भी बहुत कुछ कहा।
अम्बेडकर ने खोली नेहरू की पोल
उसके अलावा डॉ. भीमराव अंबेडकर- जो कानूनमंत्री थे, जिन्हें देश का संविधान निर्माता कहा जाता है- ने भी नेहरू केबिनेट से उनके कामकाज के तरीके से आजिज आकर इस्तीफा दिया। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। उन्होंने संसद में जो मंत्री को इस्तीफा देने के बाद वक्तव्य देने का अधिकार होता है उस संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते हुए संसद में बयान दिया। उन्होंने कहा कि मुझे नहीं मालूम कि मंत्रिमंडल में काम का बंटवारा किस तरह से होता है? क्या वो क्षमता के आधार पर होता है? क्या वह वफादारी के आधार पर होता है, क्या वह दोस्ती के आधार पर होता है या ऐसे लोगों को दिया जाता है, जिनको मेनिपुलेट किया जा सके, जो आपके कहने में यानी आपके वश में हों।
आप अंदाजा लगाइये कि ये कब की बात हो रही है। ये पचास के दशक की बात हो रही है। अंबेडकर ने कहा कि कैबिनेट कैबिनेट, कमेटियों में लिए गए फैसलों के रजिस्ट्रेशन और उनकी जानकारी देने भर का ऑफिस बन कर रह गया है। मैं इनमें से किसी कमेटी में नहीं हूं। उनको तब ज्यादा एतराज ये था कि उनके पास जो मंत्रालय थे, उनकी कमेटियों में भी वे नहीं थे। कैसे फैसले लिए जाते हैं- ये उनको नहीं पता था। तो इससे परेशान होकर उन्होंने कहा कि ऐसी कैबिनेट में मैं काम नहीं कर सकता हूं और इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा कि इन कमेटियों में जो कामकाज होता है, वो आयरन क्लैट पर्दे के पीछे, मतलब लोहे की दीवार के पीछे- होता है, किसी को पता नहीं चलता। जो लोग आज नरेंद्र मोदी पर अधिनायकवाद का आरोप लगा रहे हैं, उन्हें कम से कम डॉ. अंबेडकर और जॉन मथाई- दोनों उस समय कांग्रेसी थे- को पढ़ना चाहिए। उस समय बीजेपी और आरएसएस के लोग भी नहीं थे। जो नेहरू को इतने बड़े डेमोक्रेट नेता के रूप में पेश करते हैं, उनको इन दोनों लोगों को जरूर पढ़ना चाहिए। इससे थोड़ी उनकी आंखें खुलेंगी, जानकारी बढ़ेगी। ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जिन्हें जानकारी से मतलब नहीं, तथ्यों से मतलब नहीं, सत्य से मतलब नहीं होता। उन्होंने एक चीज तय कर ली है वो बोलते जाते हैं।
अब आप कहेंगे कि इसका संदर्भ क्या है? आज यह बात क्यों हो रही है? आज इसकी बात इसलिए हो रही है कि अभी नेहरू जी की जन्मजयंती 14 नवंबर बीता है। उस दिन उनका जन्म हुआ था। उसको देश बाल दिवस के रूप में मनाता है। क्यों मनाता है, ये कांग्रेस के लोग जानते होंगे। कहा जाता है कि नेहरू जी को बच्चों से बड़ा प्रेम था। तो कौन हैं, जिनको बच्चों से प्रेम नहीं होता है? क्या शास्त्री जी को नहीं था या उनके बाद जो प्रधानमंत्री हुए उनको नहीं था? लेकिन यह अलग विषय है।
जो बड़े लोग हैं- महापुरुष हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में योगदान रहा है, सरकार में संवैधानिक पदों पर रहे हैं- ऐसे बहुत से लोगों के पोर्ट्रेट संसद के सेंट्रल हॉल में लगे हुए हैं। उनमें नेहरू जी का भी पोर्ट्रेट है। इन सब लोगों की जयंती पर वहां एक प्रोटोकॉल है कि सब लोग जुटते हैं। उसमें सत्तारूढ़ दल के भी लोग होते हैं, विपक्ष के लोग भी होते हैं। वे श्रद्धांजलि भी अर्पित करते हैं। बहुत छोटा-सा कार्यक्रम होता है। इस बार नेहरू जी की जन्मजयंती पर सेंट्रल हॉल में कांग्रेस के लोग भी जुटे। लेकिन प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति नहीं गए। इन तीनों के न जाने पर कांग्रेस पार्टी ने मुद्दा बना लिया। कहा कि यह नेहरू जी का अपमान है। उनकी जन्मजयंती पर सेंट्रल हॉल में सत्तारूढ़ दल से इन तीन संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को आना चाहिए था- नहीं आए तो क्यों नहीं आए?
मोदी की सोच नेहरू से अलग
ये बात कांग्रेस पार्टी को समझनी पड़ेगी कि मोदी और उनकी सरकार जो नेहरूयन पॉलिसी थी- सोच और विचारधारा थी- उसको ही खत्म करने के लिए आए हैं। उसके खिलाफ ही काम कर रहे हैं। तो उसके पोषक कैसे बन सकते हैं? दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकती हैं।
अच्छी बात ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को छिपाते नहीं हैं। उनमें और अटल बिहारी वाजपेयी में फर्क यह है कि अटल जी, नेहरू जी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे, उनके जीवन पर उनका बड़ा प्रभाव था। ये सब जानते हैं, इसमें कुछ छिपी हुई बात नहीं है। जब वे प्रधानमंत्री थे तो संसद के गलियारे में नेहरू जी की एक फोटो लगी हुई थी। एक दिन वह जा रहे थे तो ठीक उसके दूसरे दिन आए तो वह फोटो हटा दी गई थी। उन्होंने वहां तैनात स्टाफ को बुलवाया और कहा कि फोटो फिर से लगनी चाहिए। नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं करेंगे। आप उनको कांग्रेस विरोधी कह सकते हैं, डिक्टेटर कह सकते हैं, जनतंत्र विरोधी कह सकते हैं- कुछ भी कह सकते हैं- लेकिन उनको मालूम है कि उनको किस रास्ते पर चलना है और किस रास्ते पर चल रहे हैं। उन्हें कोई दुविधा नहीं है। ऐसा नहीं कि थोड़ी देर इधर चलेंगे, थोड़ी देर उधर चलेंगे। रास्ता एकदम साफ है। रास्ता है भारतवर्ष का, वो रास्ता है सनातन धर्म का। उसी रास्ते पर चल रहे हैं। और उसके लिए जो नेहरूयन थॉट/विचार है, उससे निपटना, उससे देश को निकालना जरूरी है। ये हर देश में होता है, सिर्फ अपने यहां नहीं हुआ।
परिवर्तन की सूचना
याद कीजिए, जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो वहां से कम्यूनिज्म खत्म हुआ। स्टालिन की, लेनिन-मार्क्स की जितनी मूर्तियां थीं, सब तोड़ दी गईं। सरकार ने नहीं तोड़ीं। जनता ने तोड़ दीं। ये तीनों लोग सोवियत संघ में आक्रमणकारी नहीं थे, बाहर से नहीं आए थे, वहीं के थे। मूर्तियां तोड़ दी गईं। लेनिनग्राद और स्टालिनग्राद का नाम बदलकर पुराना नाम रख दिया गया। सोवियत संघ के राष्ट्रगान में स्टालिन का नाम था, उसे भी हटा दिया गया। ये सब बातें परिवर्तन की सूचक होती हैं। ये बताती हैं कि अब बदलाव हो गया है, अब धारा इस ओर बह रही है। अपने यहां ऐसा नहीं होता है।
ये जो मुगलों का ढोल पीट रहे…
अपने यहां नेहरू जी को तो छोड़िए, मुगलों की प्रशंसा करने वाले, उनकी बीन बजाने वाले, उनका ढोल बजाने वाले आज भी हैं। आजादी के समय तो थे ही, जिन्होंने सड़कों के नाम, संस्थाओं के नाम मुगलों के नाम पर रखे। लेकिन आज ऐसा कहने के लिए बड़ा साहस चाहिए। मणिशंकर अय्यर ने जो बोला है उसके लिए बेशर्मी की पराकाष्ठा होनी चाहिए, तभी आप इस तरह की बात बोल सकते हैं कि मुगलों ने देश के लिए बहुत अच्छा किया और देश की भलाई के लिए काम किया …और जाने क्या-क्या बोला- मैं उसको दोहराना नहीं चाहता। लेकिन मणिशंकर अय्यर, सलमान खुर्शीद…ये मोहरे हैं। इनसे बुलवाया जाता है, ये कठपुतलियां हैं। ये कोई अपने आप नहीं बोलते। आप देखिए, इतने लंबे समय से चुप थे- अभी बुलवाया गया है, तो एक साजिश, एक रणनीति के तहत बुलवाया गया है और बुलवाया जा रहा है। कांग्रेस में ही जी-23 के लोगों को देखिए, उससे बाहर-अंदर-बाहर होने वाले पी चिदंबरम को देखिए- बाकी लोगों को देखिए- इस पर किसी ने कुछ नहीं बोला है। नेहरू जी की जन्मजयंती पर सेंट्रल हॉल में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति, यानी उपराष्ट्रपति नहीं गए। इसकी आलोचना किसने की- अधीर रंजन चौधरी ने, जयराम रमेश ने …बयान उनके आए। भई आप नेहरू जी को इतना महत्व, इतना सम्मान देते हैं, इतना गर्व है, ऐसी अनुभूति है- तो सवाल ये है कि राहुल गांधी कहां थे? सांसद हैं, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं और अभी चिंतन कर रहे हैं कि वे फिर से अध्यक्ष बनें या नहीं बनें। छुट्टी मनाने तो वो 14 नवंबर के बाद भी जा सकते थे। 14 नवंबर को सेंट्रल हॉल में क्या राहुल गांधी थे? मुझे नहीं मालूम। मैंने फोटो तो देखी नहीं, अगर होते तो फोटो में जरूर नजर आए होते।
ढहती जा रही कांग्रेस
तो इस नेहरूइज्म और नेहरूवाद को खत्म करने के लिए क्या होना चाहिए? इसी के लिए- इसी योजना-रणनीति के तहत- नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद घोषणा की कि कांग्रेस-मुक्त भारत बनना चाहिए। कांग्रेस को जब तक आप अप्रासंगिक नहीं बना देंगे, इर्रेलेवेंट नहीं बना देंगे, तब तक यह काम पूरा नहीं हो सकता। और उस दिशा में पिछले सात साल में बहुत तेजी से काम हुआ है। कांग्रेस एक-एक करके राज्यों से ढहती जा रही है। 2014 में केन्द्र में गिरी तो उसके बाद से उठ नहीं पा रही है। तो उस दिशा में एक तो काम ये हो रहा है।
कांग्रेस के कामकाज का तरीका
दूसरा- जो गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दल हैं, उनमें से ज्यादातर अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि कांग्रेस उनके लिए एक भस्मासुर की तरह है। कांग्रेस के साथ गए तो अपने हाथ जला लेंगे। तो कांग्रेस से गठबंधन हो, कांग्रेस का साथ हो, ये चाहने वाले दलों की संख्या पिछले सात साल में बहुत तेजी से घटी। जो कांग्रेस का साथ चाहते हों ऐसे राजनीतिक दलों की संख्या लगातार घटती जा रही है, बल्कि खासतौर से 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से जो ट्रेंड है, उसमें तो अब ये दल कांग्रेस के खिलाफ खड़े होने लगे हैं। कांग्रेस को चुनौती देने लगे हैं। क्षेत्रीय दल पहले से ही दे रहे थे। अब ये नए दल, जो कांग्रेस के साथ थे या कांग्रेस के प्रति जिनकी सहानुभूति थी, वो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़े होने को तैयार हो गए हैं। कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। तो इस दिशा में काम बढ़ रहा है। आप देखिए कि किस तरह से आजादी के आंदोलन की वारिस पार्टी धीरे-धीरे पिछले कुछ दशकों में देश की सुरक्षा के लिए खतरा बनती जा रही है- इस तरह का माहौल बन रहा है। इस तरह का नेरेटिव बन चुका है। ऐसा लोगों को लगना शुरू हो गया है। उसका कारण कुछ और नहीं- सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस के कामकाज का तरीका, उसके बयान हैं। ऐसा क्यों होता है कि पाकिस्तान या चीन से जब तनाव होता है तो कांग्रेस की ओर से जो बयान आते हैं वो हमारे दुश्मनों को मदद पहुंचाने वाले होते हैं? क्यों ऐसा होता है कि हमारी फौज – हमारी थलसेना, वायुसेना कोई एक्शन लेती है तो उस पर कांग्रेस पार्टी के नेता संदेह व्यक्त करते हैं। उनको अपनी सेना पर भरोसा नहीं है, पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष के बयान पर ज्यादा भरोसा है। तो ये सवाल इन सब चीजों से उठते हैं। जिस तरह से दस साल में 2004 से 2014 तक सेंट्रल कैबिनेट को पूरी तरह से इर्रेलेवेंट बना दिया गया, अप्रासंगिक बना दिया गया, वो केवल एनएससी से पास प्रस्ताव को मंजूरी देने का मंच बनकर रह गया। इन सब बातों ने देश का बड़ा नुकसान किया है। नरेंद्र मोदी की सरकार उसी को बदलने की कोशिश पूरी ताकत से कर रही है और उसको सफलता भी मिल रही है। हालांकि मुझे लगता है जितनी तेजी से मिलनी चाहिए थी, शायद उतनी तेजी से नहीं मिल रही है- लेकिन लोगों को बात धीरे-धीरे समझ में आ रही है।
दोस्तों-रिश्तेदारों पर नेहरू की दरियादिली
नेहरू के गुणगान, परिवारवाद की बात होती है तो ज्यादातर लोगों के जेहन में इंदिरा गांधी का नाम आता है, जब उन्होंने संजय गांधी को आगे बढ़ाना शुरू किया। आप उस समय को याद कीजिए जब आजादी के बाद पहले प्रधानमंत्री बने जवाहर लाल नेहरू। वीके कृष्ण मेनन, बीएम कौर, आरके नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी लंबी सूची है। जो किसी न किसी रूप में जवाहर लाल नेहरू के रिश्तेदार थे या दोस्त थे। महत्वपूर्ण पदों पर उनको बैठाया गया तो परिवारवाद और वंशवाद की शुरुआत वहां से हुई। प्रधानमंत्री ये जो बार-बार इम्फेसिस (जोर) देते हैं कि इससे पहले जो सरकारें थीं, वो चाहे दिल्ली की हो, चाहे लखनऊ की- वो एक परिवार के लिए काम करती थी- परिवार के लोगों के भले के लिए काम करती थी। उन्हीं का विकास करने के लिए काम करती थी। ये परिवारवाद की जड़ पर हमला है। भारतीय जनता पार्टी ने ये तय किया कि पार्टी में एक ही परिवार के दो लोगों को पद नहीं मिलेगा। एकाध एक्सेप्शन की बात छोड़ दीजिए, मोटे तौर पर ये नियम पिछले सात साल से लागू हो गया है। तो ये सब काम उसी दिशा में हो रहे हैं। आप इन कामों को अलग-अलग देखेंगे तो शायद पूरी तस्वीर सामने नहीं आएगी, इन सबको जोड़कर देखेंगे तो पूरी तस्वीर सामने आएगी।
ये बदलाव देश के भले के लिए
तो नेहरू जयंती पर सेंट्रल हॉल में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का न जाना, ये कोई इत्तफाक नहीं है। ये जो सरकार की, भारतीय जनता पार्टी की नीति है, उस पर सधे कदमों से चलने का प्रयास है। इसको उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। आप देखेंगे कि कांग्रेस ने इस बात की जो आलोचना की, उसे समर्थन कहां से मिला। कहीं से नहीं मिला। कल्पना कीजिए, आज से दस साल पहले ऐसा हुआ होता तो पूरे देश में हंगामा हो गया होता। अब देश का मन बदल रहा है- सोच बदल रही है। लोग ज्यादा जागरूक हो रहे हैं- सही चीजों को सही संदर्भ में समझने लगे हैं। मुझे लगता है कि इसका स्वागत किया जाना चाहिए। ये बदलाव देश के भले के लिए है। गांधी जी ने नेहरू के बारे में जो बात कही थी, वह ध्यान देने योग्य है। जब गाँधी जी ने 1946 में नेहरू जी को सरदार पटेल पर वरीयता दी और प्रधानमंत्री बनाया तो पत्रकार दुर्गादास ने उनसे पूछा कि आपने नेहरू को प्रधानमंत्री क्यों बनाया, सरदार पटेल को क्यों नहीं बनाया। तो गाँधी जी ने कहा कि हमारे बीच में एक ही अंग्रेज है. वह है नेहरू। तो आप इससे समझ लीजिए। उसके बाद जो जॉन मथाई कह रहे हैं- जो डॉ. अंबेडकर कह रहे हैं- उसके बाद जो लोगों ने कहा और जो अब हो रहा है। डॉ. लोहिया ने भी कहा था कि एंग्लो-इंडियन लाइफ स्टाइल को अपना लिया है नेहरू जी ने। उसकी वजह से जो भी भारतीय है, जो भी भारतीयता से जुड़ा हुआ है, उसको वितृष्णा की नजरों से देखा जाता है। उसका तिरस्कार किया जाता है। तो वो समय बदल रहा है। अब जो भारतीय है, जो भारतीयता से जुड़ा हुआ है, सनातन से जुड़ा हुआ है, उसके सम्मान का समय आ गया है। तो इस समय का स्वागत कीजिए।