प्रदीप सिंह।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब प्रकाश पर्व पर तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की तो आम प्रतिक्रिया थी कि सच हार गया और झूठ जीत गया। सुप्रीम कोर्ट की बनाई विशेषज्ञ समिति के सदस्य अनिल घनवट की मानें तो सच को हराने में जाने-अनजाने अदालत का रवैया भी सहायक बना। अब सवाल है कि यह आखिरकार हुआ क्यों? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए एक दूसरे प्रश्न के उत्तर पर गौर करना होगा। सवाल है कि सरकार के सामने क्या कोई और विकल्प था? जो गतिरोध बना हुआ था, उसका फायदा किसे मिल रहा था?


सर्वोच्च अदालत का क्रांतिकारी काम

India's Modi says will repeal controversial farm laws | Agriculture News | Al Jazeera

‘आंख के अंधे नाम नयनसुख’ वालों को छोड़ दें तो पूरे देश में बहुमत इस पर सहमत था और है कि तीन कृषि कानून किसान, कृषि और देश की अर्थव्यवस्था के हित में थे। तो पहले बात करते हैं कि सरकार के सामने क्या कोई और भी विकल्प था? तीनों कृषि कानूनों का मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो सर्वोच्च अदालत ने क्रांतिकारी काम किया। कानूनों की संवैधानिक वैधता जांचे बिना उनके अमल पर रोक लगा दी। उसी समय एटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने चेताया था कि गलत परंपरा डाली जा रही है। सुप्रीम कोर्ट पंचाट नहीं है। वह संवैधानिक अदालत है। उसे अपने अधिकार के दायरे में ही रहकर काम करना चाहिए, पर अदालत ने तय किया कि वह कानून की वैधता जांचे बिना ऐसा करेगी। उसने किसान संगठनों को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया, पर वे नहीं गए। अदालत ने विशेषज्ञों की कमेटी बनाई। किसानों ने उसके सामने जाने से भी मना कर दिया। कमेटी ने आठ महीने पहले रिपोर्ट सौंप दी, लेकिन अदालत को उस पर सुनवाई करना या उसे सार्वजनिक करना जरूरी नहीं लगा। अनिल घनवट को बोलना पड़ा कि रिपोर्ट सार्वजनिक हो जाती तो बहुत सी गलतफहमियां दूर हो जातीं।

समस्या के समाधान में किसान मोर्चे की रुचि नहीं

India's Prime Minister Modi to repeal controversial farm laws following more than a year of protests - CNN

 

संयुक्त किसान मोर्चे के नेता सरकार से 11 दौर की बातचीत में स्पष्ट संकेत दे चुके थे कि समस्या के समाधान में उनकी कोई रुचि नहीं है। तीनों कृषि कानूनों पर सबसे खतरनाक खेल पंजाब में खेला गया। सिखों और खासतौर से जट सिखों के मन में बैठा दिया गया कि ये कानून उन्हें बर्बाद करने के लिए लाए गए हैं। आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने में मदद करके सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने भी इसे हवा ही दी। फिर कनाडा, अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य देशों में बैठे खालिस्तानी तत्वों ने पूरी ताकत लगा दी। पिछले सात साल से मोदी से मात खा रहे विपक्षी दलों को किसान यूनियन के नेताओं में अपना तारणहार नजर आया। उनके लिए यह यूरेका-यूरेका (मिल गया-मिल गया) वाला पल था। सारे मोदी विरोधी राजनीतिक और गैर राजनीतिक तत्व आंख बंद करके इस आंदोलन के पीछे खड़े हो गए।

हिंसक अल्पसंख्या खामोश बहुसंख्या पर भारी

जिनके हित के लिए ये कानून बनाए गए, वे खामोश थे। हिंसक अल्पसंख्या खामोश बहुसंख्या पर भारी पड़ी। अस्सी फीसद से ज्यादा छोटे-मझोले किसानों के हित के लिए यह कानून बनाया गया था, पर सरकार को साफ नजर आ रहा था कि जिन लोगों के हित के लिए यह कानून बना है, उन्हें इसका फायदा तो तब मिलेगा जब ये कानून लागू होंगे। इसके लिए न तो संयुक्त किसान मोर्चे के नेता तैयार थे और न ही सुप्रीम कोर्ट। जब तक मामला अदालत में है, तब तक सरकार इन तीनों कृषि कानूनों के बारे में कुछ कर ही नहीं सकती थी। लागू कर पाए बिना इनके राजनीतिक विरोध को सरकार रोज-रोज ङोल रही थी। जिस प्रधानमंत्री ने किसानों के हित में सबसे ज्यादा काम किया, उसकी छवि किसान विरोधी बनाने की कोशिश हो रही थी। उन्हें असंवेदनशील बताया जा रहा था। पंजाब में भाजपा के नेता घर से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। हरियाणा में मुख्यमंत्री तक को अपना संवैधानिक दायित्व नहीं निभाने दिया जा रहा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़े चुनावी नुकसान की फर्जी खबरें चलाई जा रही थीं।

पूरे विपक्ष की हवा निकल गई

ऐसे में प्रधानमंत्री के सामने कानून वापस लेने के अलावा कोई विकल्प बचा ही नहीं था। कानून वापस लेकर मोदी ने अपने विरोधियों और समर्थकों, दोनों को चौंका दिया। समर्थकों को इस घोषणा को पचाने में दिक्कत हो रही है तो विरोधी निहत्थे हो गए हैं। मोदी की इस एक घोषणा से पूरे विपक्ष की हवा निकल गई। जिस मुद्दे को ब्रह्मास्त्र की तरह लिए घूम रहे थे, वह मुद्दा ही खत्म हो गया। न्यनूतम समर्थन मूल्य सहित कुछ और मुद्दों को लेकर आंदोलन को चलाते रहने की घोषणा, थूक लगाकर चूहे को जिंदा रखने की कहावत चरितार्थ करने जैसी है। किसान संगठनों के नेता कुछ भी कहें कि एमएसपी की मांग बहुत पुरानी है, लेकिन सच यह है कि किसान आंदोलन तीन कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ था और उनकी वापसी के साथ इसका औचित्य भी खत्म हो गया। अभी तक हठधर्मी का जो आरोप किसान यूनियन प्रधानमंत्री पर लगा रही थीं, वह खुद उन पर चस्पा हो गया है।

कानून वापसी से नुकसान

कहते हैं कि कोई चीज जब पास होती है तो उसका महत्व समझ नहीं आता, पर जब चली जाए तो उसकी कमी खलती है। तीनों कृषि कानूनों के साथ यही हो रहा है। देश भर से कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि इन कानूनों के वापस होने से बहुत बड़ा नुकसान होगा। शेतकारी संगठन के अनिल घनवट कह रहे हैं कि उनका संगठन जल्द ही इन कानूनों की वापसी की मांग लेकर एक लाख किसानों को दिल्ली लेकर आएगा।

राजनीतिक एटीएम

ढाई प्रदेशों (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) के बड़े किसानों का आंदोलन एक और संदेश देता है कि किसी भी घटना को स्थायी मान लेना नासमझी होती है। विपक्षी दलों को लग रहा था कि किसान आंदोलन उनके लिए राजनीतिक एटीएम जैसा है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने उस एटीएम को ही बंद कर दिया। पांच राज्यों और खासतौर से उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड के चुनाव से ठीक पहले विपक्ष के हाथ से उसका सबसे बड़ा मुद्दा चला गया। इसीलिए कहते हैं कि उधार के सिंदूर से मांग भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)