प्रदीप सिंह।
अभी तीन कृषि कानून वापस हुए हैं। कहा जा रहा है कि कानून वापसी का पोलिटिकल असर क्या होगा- ऐसा क्यों और कैसे हुआ? …पर, उस पर बात से पहले इस बारे में इस पर थोड़ा विस्तार से बात करना जरूरी है कि कुछ दूसरे मुद्दों या क्षेत्रों में इसका जो असर या ट्रेंड है- वो क्या कहता है और किस तरह के संकेत देता है? ये मेरी नजर में बहुत ही खतरनाक ट्रेंड है कि मेजोरिटी (बहुसंख्यक) पर माइनोरिटी (अल्पसंख्यक) भारी पड़ सकती है। इसको किसानों, किसान आंदोलन- किसान नेताओं– यूनियनों- के संदर्भ में मत देखिए… पूरे देश के संदर्भ में देखिए कि क्या स्थिति बन गई है। याद कीजिए सीएए के खिलाफ जो आंदोलन शुरू हुआ था- उसमें क्या हुआ था? उसमें भी देश से लेकर विदेश तक नरेटिव क्या बनाया गया था? पिछले सात सालों में नरेटिव हमेशा बनाया जा रहा है विक्टिम मोड का। चाहे मुसलमानों की बात हो, किसानों की बात हो- बताया जाता है कि ये परेशान, प्रताड़ित व पीड़ित हैं। और किससे? सत्तारूढ़ दल के द्वारा।


झूठ की बुनियाद पर….

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यह एक नरेटिव बनाया जाता है। और इत्तफाक की बात है, चाहे सीएए के खिलाफ आंदोलन हो- या किसानों का- दोनों झूठ की बुनियाद पर बने थे। आपको पता है कि सीएए से हिन्दुस्तान के किसी मुसलमान का कोई ताल्लुक दूर-दूर तक नहीं है। लेकिन मुद्दा क्या बनाया गया? …कि बीजेपी और उसकी केन्द्र की सरकार ऐसा कानून लाई है जिससे इस देश से मुसलमानों को बाहर निकाला जा सके, या उनको दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया जा सके। दिल्ली के शाहीनबाग में ये आंदोलन चला। देशभर में कई जगह शाहीनबाग बने। उन शाहीनबाग को लेकर सोशल मीडिया- खासतौर से जो लेफ्ट लिबरल बिरादरी है- वो देश से विदेश तक किस तरह का नरेटिव बना रही थी? उस दौरान जो लोग आंदोलन चला रहे थे, उनके लिए हिंसा हथियार था। उसकी परिणति हुई दिल्ली के दंगों के रूप में। दिल्ली का दंगा सुनियोजित षड्यंत्र था। अब अदालत में ये सारी बातें खुलकर आ रही हैं कि किस तरह से उसकी व्यूहरचना की गई और किस तरह से उसको अंजाम दिया गया। दुख की बात ये है कि लोग सरकार के खिलाफ बोले, इसी सत्तारूढ़ दल के खिलाफ बोले।

अदालतों का रवैया

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राजनीतिक दलों का विरोध कोई समस्या नहीं है। समस्या ये हुई कि अदालत का रवैया भी उदासीन रहा और उनके पक्ष में जाता हुआ दिखा। याद कीजिए सीएए के आंदोलन को। उस पूरे आंदोलन के दौरान हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का रवैया किस तरह का रहा? हम किसी अदालत या किसी जज की नीयत पर कोई सवाल नहीं उठा रहे। हमारा आशय यह भी कतई नहीं कि वो आंदोलन का समर्थन कर रहे थे। लेकिन आंदोलन को रोकने, गलत को गलत और सही को सही कहने की- ये तो उम्मीद की ही जा सकती है। चाहे जूडीशियरी हो या कोई अन्य संवैधानिक संस्था- अगर इस देश के लोग उससे ये उम्मीद करते हैं तो उसमें क्या बुराई है। लेकिन शाहीनबाग के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से कमेटी बनाई …वो कमेटी जिस तरह से बात करने गई- लग रहा था कि जैसे दो देशों के बीच बातचीत हो रही है। और बातचीत किस चीज पर हो रही थी? वो लोगों के आने-जाने का रास्ता बंद करके बैठे हुए थे और उनमें से किसी को कोई तकलीफ नहीं थी। खाने-पीने का प्रबंध और जिस तरह की बाकी चीजें आ रही थीं – समर्थन मिल रहा था – कुल मिलाकर मुद्दा ये था कि इसको नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ एक बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाए। इसको हिंदू बनाम मुस्लिम बनाया जाए। और उसमें वो काफी हद तक कामयाब हो गए। अगर शाहीनबाग नहीं होने दिया जाता- अदालत ने वहां बैठे लोगों को पुलिस फोर्स लगाकर जबरन हटाने का आदेश दिया होता- तो दिल्ली का दंगा नहीं होता। सरकार के सामने समस्या ये थी कि वो अगर अपनी तरफ से फोर्स का इस्तेमाल करती तो नया विक्टिम मोड का कार्ड आता। ऐसे में सरकार के हाथ बंधे हुए थे… लेकिन एक सीमा तक ही- क्योंकि ये लोग झूठ के धरातल पर खड़े थे, इसलिए इनके पास न कोई नैतिक बल था, न कोई जन समर्थन था। इस मुद्दे पर समर्थन करने वालों का अपना दायरा था। सीधे-सीधे कहें तो मुस्लिम समुदाय से बाहर इस आंदोलन को कोई समर्थन नहीं था। कोई हिंदू संगठन या आम हिंदू समर्थन में नहीं था, क्योंकि उनको मालूम था कि ये झूठ है- इसमें कोई सच्चाई नहीं है।

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एक सा पैटर्न

अब आप किसान आंदोलन से तुलना कीजिए। उसमें भी वैसा ही हुआ। किसान आंदोलन में भी एक झूठ खड़ा किया गया कि ये तीनों कृषि कानून किसानों के विरोध में हैं। कोई भी आज तक नहीं बता पाया कि इन कानूनों में किसानों का क्या विरोध है- कैसे ये विरोध में हैं और कैसे नुकसान पहुंचाने वाले हैं? लेकिन ये नरेटिव बना दिया गया। कुछ समय पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत कुमार डोभाल ने एक बात कही थी कि- आने वाले दिनों में असली लड़ाई इसी वर्ग से लड़ी जाएगी। इसी वर्ग से मतलब है- नागर समाज, सिविल सोसाइटी- जो इस तरह के नरेटिव बनाती-गढ़ती है। वो नरेटिव ऐसा बनाएगी जिससे लगेगा कि आप देश के ही एक हिस्से या आबादी के एक हिस्से के खिलाफ बहुत बड़ा षड्यंत्र कर रहे हैं। ऐसे में मानवाधिकार का मामला उठेगा। धार्मिक स्वतंत्रता, वैचारिक स्वतंत्रता, बोलने की आजादी का मामला- ये तमाम तरह के सवाल उठाए जाएंगे। ये सभी नहीं उठ पाएंगे तो हिंदूइज्म बनाम हिंदुत्व की लड़ाई उठेगी। फिर किताब लिखवाई जाएगी। सामने सलमान खुर्शीद आएंगे। फिर उनके समर्थन में मणिशंकर अय्यर मुगलों की प्रशंसा करने के लिए आएंगे। ये लड़ाई का नया स्वरूप है। आगे लड़ाई इस रूप में होने वाली है। और लड़ाई से इसी तरीके से- इसी मुद्दे पर- इसी आधार पर- इसी तौर पर निपटना, लड़ना पड़ेगा …जब तक आप इस बारे में जागरूक नहीं होंगे।

अगर लागू होते कृषि कानून

इस तथाकथित किसान आंदोलन के मामले में क्या हुआ? एक वायलेंट, अराजक और वाचाल माइनोरिटी ने मेजोरिटी के हक पर डाका डाल दिया। ये तीन कृषि कानून अगर लागू होते तो 80 फीसदी से ज्यादा किसानों का लाभ होता। उससे उनको वंचित करा दिया। सरकार को पीछे हटना पड़ा। अब सरकार उसको स्ट्रेटजिक रिट्रीट कहे, दरियादिली कहे और शांति व्यवस्था कायम करने की बात कहे- बहुत सी मजबूरियां हैं- बहुत से कारण हैं…. वो सब हो सकते हैं। लेकिन उसका नतीजा या जो संदेश है, वो ये है कि- अगर मेजोरिटी चुप रहेगी तो उसको माइनोरिटी के अत्याचार का सामना करना पड़ेगा, सहना पड़ेगा, बर्दाश्त करना पड़ेगा। यही सबक है इस आंदोलन का। यही सबक दिया था सीएए के विरोध में हुए आंदोलन ने भी। उस समय भी हमने उसको नजरअंदाज किया।

नया बखेड़ा

उसके बाद कृषि कानूनों को लेकर नया बखेड़ा खड़ा किया गया। प्रधानमंत्री ने कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी थी। उन्होंने पूरे देश से माफी भी मांग ली कि कुछ किसानों को वो समझा नहीं पाए, ये उनकी कमी है। इसके बावजूद आंदोलन खत्म होने की घोषणा नहीं हुई, क्योंकि आंदोलन को खत्म करना नहीं है। अगर ये तीन कृषि कानून आंदोलन का आधार होते- तो वो तो खत्म हो गए। सरकार ने घोषणा कर दी थी कि संसद के इसी सत्र में इन कानूनों को वापस ले लेगी- और ले भी लिए। इससे लगता है कि आंदोलन खत्म करने का उनका इरादा पहले दिन से ही नहीं था। प्रधानमंत्री की इस घोषणा के बाद किसान यूनियन के नेताओं के बयान से और साफ हो गया कि उनका मुद्दा ये तीन कृषि कानून नहीं थे। अब नया मुद्दा आया है कि एमएसपी को कानून बनाओ। दुनिया की कोई सरकार क्या, अगर कल राकेश टिकैत और गुरनाम सिंह चढ़ूनी भी प्रधानमंत्री हो जाएं तो वो भी एमएसपी को कानूनी जामा नहीं पहना सकते। अगर एमएसपी पर सारी खरीद का फैसला हो जाए तो सरकार के पास टैक्स और दूसरे स्रोतों से जितना पैसा आता है, वह सब सिर्फ गेहूं और धान की खरीद में ही चला जाएगा। बाकी सड़क, स्कूल, अस्पताल, पुल, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, बंदरगाह आदि कुछ भी बनाने के लिए पैसा नहीं बचेगा। तो कौन सी सरकार ऐसा कर सकती है? कोई नहीं। मांग कर रहे लोगों को भी यह मालूम है। इसलिए ऐसी मांग रखी जो पूरी न की जा सके। उस मांग को रखोगे तो आंदोलन चलता रहेगा। आंदोलन को बंद करना उनका मकसद नहीं है।

कमेटी कमेटी का खेल

जैसा सीएए आंदोलन के दौरान हुआ कृषि कानूनों को लेकर किसान यूनियन के आंदोलन के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी बनाई। कमेटी ने रिपोर्ट दे दी। लेकिन आज तक पता नहीं है कि उस रिपोर्ट में क्या है? हालांकि अब उस रिपोर्ट का कोई मतलब नहीं रह गया है। कथित किसान नेतक सरकार की बात नहीं मानेंगे- ये तो एक बार समझ में आता है। लेकिन वो सुप्रीम कोर्ट को भी सुनने को तैयार नहीं हैं …और- सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कर पाया। अगर कोई सरकारी कर्मचारी होता तो गिरफ्तार करके बुलवा लिया जाता। सुप्रीम कोर्ट के पास अधिकार है। लेकिन इस मामले में किसानों के वकील पहले दिन ही भाग गए। फिर उसके बाद अपीयर होने और अपना पक्ष रखने को कहा गया। उन्होंने मना कर दिया। कमेटी के सामने अपनी बात रखने को कहा गया तो भी मना कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं किया।

कुछ कहिए- वरना चुप रहकर बर्दाश्त कीजिए

ये लड़ाई आम लोगों को लड़नी पड़ेगी। ये लड़ाई न तो कोई सरकार लड़ पाएगी न अदालत इसमें कोई मदद कर पाएगी। अगर आपको अपने को बचाना है- अगर आपको सुनिश्चित करना है कि आप जिसे सही मानते हैं वो सही बना रहे- तो आपको आवाज उठानी पड़ेगी। नहीं तो माइनोरिटी अपनी अराजकता, हिंसा और आक्रामकता से आपके हक को मार लेगी …और- आप कुछ नहीं कर पाएंगे। आपको चुपचाप बर्दाश्त करना पड़ेगा। ये आक्रामक अल्पसंख्यक का नया खेल शुरू हुआ है। आने वाले दिनों में ये गतिविधि, ये प्रवृत्ति रुकने की बजाय बढ़ने वाली है। इसलिए अपने हित की रक्षा करनी है तो खड़े हो जाइए- आवाज उठाइये। अगर चुप रहेंगे तो सहने के लिए, दमन के लिए, प्रताड़ित होने के लिए तैयार रहिए। चॉइस आपकी है – जो आप फैसला करें, वैसा आपके साथ होगा।