धौंसपट्टी और प्रचार की चीनी रणनीति।
प्रमोद जोशी।
चीन के साथ पूर्वी लद्दाख में गतिरोध के दो साल और 13 दौर की बातचीत के बाद भी कोई मामला जस का तस है। समाधान आसान नहीं लगता। चीन पर महाशक्ति बनने का नशा सवार है और भारत उसकी धौंसपट्टी में आएगा नहीं। चीन विस्तारवादी आक्रामक रणनीति पर चल रहा है, दूसरी तरफ वह घिरता भी जा रहा है, क्योंकि उसके मित्रों की संख्या सीमित है। तीन-चार दशक की तेज आर्थिक प्रगति के कारण उसके पास अच्छी पूँजी है, पर अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी है। वास्तविक-युद्ध से वह घबराता है।
हाल में तीन घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनसे चीन की भारत से जुड़ी रणनीति पर रोशनी पड़ती है। अरुणाचल प्रदेश की 15 जगहों के चीन ने नए नामों की घोषणा की है। दूसरे नए साल पर चीनी सेना का एक ध्वजारोहण, जिसके बारे में दावा किया गया है कि वह गलवान घाटी में किया गया था। तीसरे पैंगोंग त्सो पर चीनी सेना ने एक पुल बनाना शुरू किया है, जिसके बन जाने पर आवागमन में आसानी होगी।
मानसिक-प्रचार
इन तीनों में केवल पुल का सामरिक महत्व है। शेष दो बातें मानसिक-प्रचार का हिस्सा हैं, जिनका कोई मतलब नहीं है। चीनी प्रचार-तंत्र भारत की आंतरिक राजनीति का लाभ उठाता है। गलवान के कथित ध्वजारोहण की खबर मिलते ही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया-‘गलवान पर हमारा तिरंगा ही अच्छा लगता है। चीन को जवाब देना होगा। मोदी जी, चुप्पी तोड़ो!’ इस ट्वीट के बाद कुछ और लोगों ने ट्वीट किए, यह जाने बगैर कि यह ध्वजारोहण कहाँ हुआ था और इसका वीडियो जारी करने के पीछे चीन का उद्देश्य क्या है।
चीन हमारे अंतर्विरोधों से खेलता है और हमारे लोग उसकी इच्छा पूरी करते हैं। सामान्यतः रक्षा और विदेश-नीति को राजनीति का विषय बनाना अनुचित है, पर राजनीति समय के साथ बदल चुकी है। भारत-चीन विवाद यों भी बहुत जटिल हैं। 1962 के पहले और बाद की स्थिति को लेकर तमाम बातें अस्पष्ट हैं। ऐसे मसले यूपीए के दौर में उठते रहे हैं। पूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष श्याम सरन ने सन 2013 में कहा था कि चीन ने 640 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया है। सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया और तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी ने संसद में इसकी सफाई दे दी। श्याम शरण ने भी अपनी बात वापस ले ली, पर यह सवाल तो बना ही रहा कि किस गलतफहमी में उन्होंने कब्जे की बात कही थी।
आरोप लगाने वालों को देखना चाहिए कि उनके शासन के दौरान चीन ने कितनी जमीन पर कब्जा किया था। ऐसे नक्शे नहीं हैं, जिनसे पता लगे कि वास्तविक नियंत्रण किसका कहाँ तक है। बेहतर तो यही है कि इसे राजनीति का विषय नहीं बनाया जाए। कोई भी सरकार और सेना विदेशी कब्जे को स्वीकार नहीं करेगी। युद्ध के विकल्प को तभी अपनाया जाता है, जब बातचीत से रास्ता नहीं निकलता हो। सवाल है कि क्या हम युद्ध चाहते हैं?
चीनी राष्ट्रवाद
ताजा वीडियो चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स के हैंडल से जारी किया गया है। अखबार के संपादक ने एक और ट्वीट इस आशय का जारी किया। अखबार ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें कहा गया है कि इस साल 1 जनवरी को देशभर में पाँच सितारों वाले राष्ट्रीय ध्वज को फहराया गया है, जिसके साथ मंगल ग्रह से भेजी गई शुभकामनाएं दर्ज हैं। यह चीनी राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है।
चीन की आंतरिक राजनीति पर भी नजर डालें। इस साल कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस हो रही है। इस दौरान शी चिनफिंग तीसरी बार राष्ट्रपति चुने जाएंगे। उन्हें माओ-जे-दुंग की तरह महामानव बनाने और चीन को दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति साबित करने के प्रयास चल रहे हैं। इस चक्कर में हांगकांग के स्वतंत्रता-आंदोलन के दमन और ताइवान को जबरन चीन का हिस्सा बनाने की धमकियाँ दी जा रही हैं। शी चिनफिंग ने नए साल के राष्ट्रीय प्रसारण में और बातों के अलावा ताइवान पर निशाना साधा था।
चीनी व्यवस्था प्रतिस्पर्धी देशों के सिस्टम्स, मीडिया और उनके राजनीतिक अंतर्विरोधों का लाभ उठाने की कोशिश करती है। बाहरी मीडिया को चीन अपने देश में प्रवेश की अनुमति नहीं देता और अपनी छवि का विस्तार करने की कोशिश करता है। कमजोर और छोटे देश उसके आर्थिक-प्रलोभनों में फिसल जाते हैं, पर प्रतिस्पर्धी देशों को वह प्रचार और साइबर-युद्ध से प्रभावित करता है। भारत भी उसके निशाने पर है।
महाशक्ति की मनोकामना
यह रणनीति पचास के दशक से ही काम कर रही है, पर पिछले एक-डेढ़ दशक में इसका विस्तार हुआ है। अप्रेल 2009 में जब चीन के ग्लोबल टाइम्स का अंग्रेजी संस्करण शुरू हुआ, तब से इसे देखा जा सकता है। यूट्यूब से लेकर ट्विटर तक में इसकी सक्रियता से इसे समझ सकते है। हालांकि यह अखबार 1993 से चीनी भाषा में चल रहा था, पर इक्कीसवीं सदी में चीन की जरूरतें बढ़ गईं। सन 2009 में हू जिनताओ राष्ट्रपति थे, पर यह स्पष्ट, होने लगा था कि उनके बाद शी चिनफिंग आने वाले हैं। नवंबर 2012 में शी चिनफिंग के आगमन के बाद वैश्विक-प्रसार के चीनी इरादे सामने आने लगे, जिनकी शुरुआत 2013 में ‘वन बेल्ट, वन रोड’ कार्यक्रम से शुरू हुई।
हाल में न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस आशय की एक रिपोर्ट प्रकाशित की है कि चीन किस तरीके से प्रचार का सहारा ले रहा है। उदाहरण के लिए इसमें यूट्यूब पर प्रसारित होने वाले ‘ली एंड ओली बैरेट शो’ का हवाला दिया है। इस शो में चीन की भव्यता, श्रेष्ठता का विवरण होता है, साथ ही चीन की आलोचना करने वालों को जवाब भी पिता-पुत्र की यह जोड़ी देती है। ली और ओली बैरेट ब्रिटिश नागरिक हैं, पर अब वे चीन के शेंज़ेन में रहने लगे हैं। ली पिता हैं और ओली पुत्र। जून 2019 में उन्होंने यूट्यूब पर अपना चैनल शुरू किया था। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उनके 3.29 लाख से ज्यादा सब्स्क्राइबर हैं। आमतौर पर उनके शो को 40-50 हजार से लेकर लाख-सवा लाख तक दर्शक देखते हैं। ली अब चीन के ग्लोबल टेलीविजन नेटवर्क के लिए स्ट्रिंगर का काम भी कर रहे हैं। दोनों की इस शो के सहारे अच्छी कमाई हो रही है। चीन सरकार उन्हें सुविधाएं भी मुहैया कराती है, जो सामान्यतः विदेशी पत्रकारों को उपलब्ध नहीं है।
मीडिया का सहारा
करोड़ों डॉलर की कीमत अदा करके अमेरिकी अखबारों में चायना डेली के पेज प्रकाशित हुए हैं। इन अखबारों में वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉलस्ट्रीट जरनल और फाइनेंशियल टाइम्स से लेकर टाइम और फॉरेन पालिसी जैसी पत्रिकाएं शामिल हैं। चायना डेली चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र है। ऐसे विज्ञापन भारतीय अखबारों में भी देखे जा सकते हैं। प्रश्न विज्ञापनों का नहीं, प्रभाव और नीतियों का है। जैसे ही आप लाखों-करोड़ों के विज्ञापन दाता के रूप में प्रसिद्ध होते हैं, तब मीडिया हाउसों की दिलचस्पी विज्ञापनों की ओर बढ़ती है। इससे मीडिया का दृष्टिकोण प्रभावित होता है।
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार चीन सरकार सोशल मीडिया पर सक्रिय प्रभावशाली लोगों की प्रचुर सहायता कर रही है। दूसरी तरफ चीन सरकार स्वतंत्र विचार-अभिव्यक्ति को दबाने के मामले में पहले से ज्यादा कठोर रुख अपना रही है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस इन दिनों चल रही है। उसकी पृष्ठभूमि में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर ने हाल में चीन में विचार-अभिव्यक्ति की दुर्दशा पर जो रिपोर्ट जारी की है, उससे निराशा पैदा होती है।
दिसंबर के महीने में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘डेमोक्रेसी समिट’ का आयोजन किया, जिसके जवाब में शी चिनफिंग ने कहा कि असली लोकतंत्र चीन में है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र चीन में है। बहरहाल चीन के अंतर्विरोध शिनजियांग में वीगुर प्रतिरोध, तिब्बत और अब हांगकांग के स्वतंत्रता-आंदोलनों में दिखाई पड़ रहे हैं।
हांगकांग का प्रतिरोध
अस्सी के दशक में देंग श्याओपिंग ने जब चीन में विदेशी निवेश के द्वार खोले, तब हांगकांग में बनने वाली तमाम वस्तुओं का उत्पादन चीन आ गया। देंग की दिलचस्पी हांगकांग की सम्प्रभुता में थी। सन 1984 में उन्होंने ब्रिटेन से इस सिलसिले में बात की और एक रूपरेखा तैयार की। उन्होंने इसे नाम दिया, ‘एक देश, दो प्रणालियाँ।’ हांगकांग चीन का हिस्सा बना, पर 1997 में देंग के निधन के कुछ समय बाद। इस समझौते के तहत हांगकांग की मुद्रा और सांविधानिक-न्यायिक प्रणाली 50 साल तक वही बनी रहेगी, जो 1997 के पहले थी। यानी कि 2047 तक उसका वही स्वरूप बना रहेगा।
चीन के पास धैर्य नहीं है। वह अपनी सम्प्रभुता को लेकर बेचैन है। हांगकांग की जनता का भय पारदर्शिता को लेकर है। इसमें अभिव्यक्ति और पारस्परिक संवाद की स्वतंत्रता शामिल है। इस पारदर्शिता के साथ छेड़छाड़ शुरू हो गई है। हाल में चुनाव प्रणाली में व्यापक बदलाव लागू करने के चुनाव हुए हैं, जिनमें चीन समर्थकों के जीतने का दावा किया गया है। सरकार का कहना है कि परिवर्तित मतदान व्यवस्था से सिर्फ़ ‘राष्ट्रभक्त’ लोगों को ही चुनाव में उम्मीदवार बनने का मौक़ा दिया जाएगा और ये लोग ही राजनीतिक सत्ता के पदों पर आसीन हो सकेंगे। वोटर के सामने केवल कम्युनिस्ट चीन-समर्थक प्रत्याशी ही थे। ज़ाहिर है कि यह लोकतंत्र नहीं है।
विकास की विसंगतियाँ
चीन अब विसंगतियों के मोड़ पर खड़ा है। उसके पूँजीवादी विकास के समांतर सामाजिक-परिवर्तन नहीं हुए हैं, जिनमें विचार और सूचना की स्वतंत्रता शामिल है। समृद्धि के सहारे चीन ने गरीबों की दशा सुधारी है, पर पुरानी व्यवस्था के बिखर जाने का खतरा है। जागरूक मध्यवर्ग आज नहीं तो कल हिसाब माँगेगा। ऐसे में शी चिनफिंग का सत्ता पर नियंत्रण बढ़ा रहे हैं। उन्होंने सत्ता-परिवर्तन के उस मिकैनिज्म को तोड़ दिया है, जो माओ-जे-दुंग के बाद बना था। पुरानी व्यवस्था की वापसी के प्रयास में वे सत्ता को अपने हाथों में केन्द्रित करते जा रहे हैं। सांविधानिक व्यवस्था के तहत उन्हें अनिश्चित अवधि के लिए राष्ट्रपति बनने की अनुमति मिल गई है। दूसरा कार्यकाल पूरा होने के बाद वे हटाए नहीं जाएंगे।
इस साल पार्टी की 20वीं कांग्रेस में वे तीसरे कार्यकाल के लिए चुन लिए जाएंगे, पर यहीं से खराबी शुरू होगी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक-विरोध या असहमतियाँ सामने नहीं आती हैं, पर चीन अब चौराहे पर खड़ा है और उसके आर्थिक-विकास में अवरोध आने का खतरा है। शायद इस बार कुछ बड़े पदाधिकारियों पर गाज गिरे। लम्बे अरसे तक वे जमे रहे, तो सत्ता का हस्तांतरण मुश्किल होगा। माओ-जे-दुंग के बाद सत्ता-परिवर्तन में दिक्कत हुई थी। चीन जैसे महादेश में राजनीतिक बदलाव आसान नहीं है, पर संभव यह भी है कि हमें दरारें नजर नहीं आ रही हैं।
(लेखक ‘डिफेंस मॉनिटर’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से साभार)