श्रद्धांजलि : बिरजू महाराज ( 4 फरवरी 1937- 17 जनवरी 2022)

मालिनी अवस्थी।
कथक-सम्राट, भारतीय शास्त्रीय नृत्य के किम्वदंती पुरुष, सुर-लय-ताल के अप्रतिम साधक, पद्मविभूषण पंडित बिरजू महाराज- हर विशेषण बहुत छोटा है। 83 वर्षों तक पृथ्वी को अपनी अद्भुत कला से तरंगित और समृद्ध करके गंधर्व वापस अपने लोक गए।
आज ड्योढ़ी में महाराज जी की तस्वीर पर माला चढ़ाते हुए मन व्यथित है। सामने दीप जल रहा है… यहीं इसी ड्योढ़ी में उनके पूर्वजों की लगाई लौ का दीपक जैसा उन्होंने आजीवन प्रज्जवलित कर के रखा… उसकी रौशनी से कत्थक रौशन हो गया… लखनऊ रौशन हो गया…!


जहां गए, लखनऊ साथ साथ चला

पंडित बिरजू महाराज जी जहां भी गए लखनऊ उनके साथ साथ चला। अंत समय में भी उनके मन में लखनऊ ही बसा था। कालिका बिंदादीन घराने की गौरवशाली परंपरा के अमर संवाहक और जीते जी धरोहर बन चुके पंडित बिरजू महाराज जी लखनऊ आकर अपनी बचपन की स्मृतियों में गुम हो जाते थे।
यहां आते ही वे झाऊ लाल के पुल गुइन रोड में पुरखों की ड्योढ़ी के छोटे से “बिरजू” बन जाते थे। यहाँ आकर बातचीत मेँ स्वयं ऐसे खुल जाते… अपनी मां को याद करते। उनकी पुकार, उनकी सीख को याद करते। रियाज़ पर शाबाशी मिलने पर पिता अच्छन महाराज जी के दिये पांच पैसे की रबड़ी का ईनाम याद करते। याद करते हुए भावुक हो जाते।
जीवन के अंतिम वर्षों में महाराज जी लखनऊ आकर रहना चाहते थे। लखनऊ में शिष्यों को सिखाना चाहते थे। कोरोना के कारण वे दो वर्ष घर से नही निकले, बीच में कई बार अस्वस्थ भी रहे और जब पहली बार आये, तो अपने शहर लखनऊ आये। मुझे इस बात का सन्तोष है कि विगत महीने वे जब अपने घर लखनऊ आये, तो यहां उनका भावभीना सम्मान हुआ। सभी उनका आशीष लेने आये- मंत्री, अधिकारी, प्रशंसक, श्रोता, शिष्य, कलाकार- सब उनका आशीष लेने आये।
मंच पर कुर्सी पर माइक थाम कर आश्वस्त बैठे महाराज जी की मुखमुद्रा उस दिन परम शांति और सन्तोष की थी। वे बोलते रहे, समय उन्हें सुनता रहा, उनके सम्मान में सब खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे जिनकी उन्हें आदत सी हो चुकी थी… उनका दिव्य चेहरा सृजन की आभा से दमक रहा था…
और आज, महाराज जी अनंत में विलीन हो गए। संगीत की लय थम गई। अप्पा जी (गिरिजा देवी) के जाने के बाद, आज फिर एक बार लग रहा है जैसे मैं अनाथ हो गई।
बड़ा भाग्य था मेरा, जो महाराज जी का अपार आशीर्वाद व स्नेह मिला।

क्या सम्बन्ध था उनसे मेरा

कहने को क्या सम्बन्ध था उनसे मेरा… लेकिन ऐसे विलक्षण साधक के, मेरे जैसे न जाने कितने ही एकलव्य होंगे। और जब एक दिन यूट्यूब पर मेरा नृत्य देख उन्होंने फोन करके कहा- कहाँ किससे सीखा? गाती तो हो, लेकिन ये भाव, गत, निकास, ठाठ ये सब हमारे घराने की खासियत है, ये कहाँ से सीखा,” मैं यह सुन कर अवाक! मैंने बताया- कभी किसी से नहीं सीखा लेकिन मुझे गाना दिखाई पड़ता है, आप को, बड़ों को सभी को देखा है, बहुत हृदय में संजो कर देखा है बस।
महाराज जी ने अपना ऐसा आशीर्वाद दिया कि मैं आनंद विभोर हो कई दिनों तक मगन रही…
आज कितनी ही स्मृतियाँ हैं, क्या बखानू, क्या तजूँ। कहाँ से शुरू करूँ…

पहला दृश्य

1986 में की बात है रविंद्रालय सभागार। सामने मंच पर भातखंडे संस्थान की ओर से ताल वाद्य कचहरी का कार्यक्रम चल रहा था पंडित रमाकांत पाठक जी, पंडित रंगनाथ मिश्र जी, अहमद मियां, पंडित रामचंद्र भट आदि सब अपने साज़ के साथ विराजमान थे। महाराज जी की भी शाम को यहीं प्रस्तुति थी लेकिन वे सबको सुनने के लिए तैयार होकर सभागार में बतौर दर्शक प्रथम पंक्ति पर मौजूद थे। ताल वाद्य कचहरी अपने चरम पर थी कि अचानक पंडित रंगनाथ जी ने मंच से महाराज जी को ऊपर आने का न्योता दिया।
बिरजू महाराज जी ने हंसकर टाल दिया,तब तक प्रधानाचार्य डॉ. सुरेंद्र शंकर अवस्थी जी महाराज जी का हाथ पकड़कर मंच पर ले गए, और बोले “अब जाकर पूरा हुआ, चलो बजाओ…”
महाराज जी मंच से बोले, पखावज, मृदंग, तबला, ढोलक सब तो यहां है और उत्कृष्ट कलाकार भी। मैं क्या करूंगा। तब तक ग्रीन रूम से आवाज़ आई- अरे नाल है यहाँ। बस, फिर क्या था!
पंडित बिरजू महाराज जी, नाल लेकर बैठ गए और क्या बजाए… क्या अद्भुत नजारा था! महाराज जी की विलक्षण प्रतिभा और सहजता के दर्शन तो हुए ही, समकक्ष कलाकारों के आपसी प्रेम उदारता के दर्शन हुए।
छात्रा जीवन में यह समझ आ गया कि
कलाकार असीम होता है, सहज होता है, उसमें आडंबर की कहीं कोई गुंजाइश नहीं।

दूसरा दृश्य

लगभग दस वर्ष पुरानी बात है एक टेलीविजन चैनल द्वारा नोएडा में सम्मान समारोह आयोजित किया गया जिसमें कुछ प्रसिद्ध कलाकारों का सम्मान किया जाना था। श्रद्धेय पंडित बिरजू महाराज जी वहां मौजूद थे, कुछ मुंबई के नामचीन कलाकारों का भी सम्मान होना था। उसी सम्मान श्रृंखला में मैं भी उपस्थित थी। कार्यक्रम आरंभ हुआ और सम्मान के क्रम में जो भी कलाकार सम्मान लेने आता, चैनल के प्रस्तोता उनसे कुछ ना कुछ गाने की अथवा प्रस्तुत करने की फरमाइश करते। मुंबई से आए नामचीन कलाकारों से कई बार विनय अनुनय किए जाने के बावजूद उन्होंने गाने से इंकार कर दिया बल्कि एक कलाकार ने जो आज देश के अत्यंत प्रसिद्ध कलाकार हैं, माइक पर यह भी कह दिया, आपने हमें सम्मान के लिए बुलाया था, गाने के लिए नहीं! गाने की कंडीशन शर्ते अलग होती हैं।
ख़ैर, महाराज जी को जब सम्मान के लिए बुलाया गया तो पहले से सहमे हुए प्रस्तोता ने उनके पांव छुए, सम्मान दिया और फिर आगे बढ़ने लगे।
महाराज जी ने उन्हें टोका, कहा, “अरे भाई, आप हमें नहीं कहेंगे कुछ करने को? अब देखिए, उम्र जरूर हो गई है लेकिन ये सारी दुनिया मुझे जिस विद्या के लिए जानती है- उसे तो ज़रूर दिखा कर जाऊंगा। आया हूँ तो मंच रच कर जाऊँगा।”
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच महाराज जी ने माइक पर एक कवित्त पढ़ कर उस पर भाव दिखा कर उस क्षण को ऐतिहासिक बना दिया। कला के प्रति उनका समर्पण और उनकी सहजता  विनम्रता ने उस दिन सभी को ऐसी सीख दी… समझा दिया कि कलाकार का धर्म क्या है! ऐसे थे बिरजू महाराज जी।

तीसरा दृश्य

लखनऊ में ड्योढ़ी पर बसंत मनाया जा रहा था। महाराज जी शाश्वती जी और समस्त शिष्य समाज। महाराज जी ने मुझसे होली सुनाने को कहा, और स्वयं हारमोनियम पर बैठ गए। मैं गा रही थी… एक के बाद एक होली, फागें… उन्होंने शिष्यों को नृत्य करने का आदेश दिया। क्या समां बंधा। गेंदा और गुलाब की पंखुड़ियों की उड़ान के साथ बसंत मना। एक बार फिर, महाराज जी के इस स्नेहिल रूप को आशीष मान अपने हृदय में समेट लिया मैंने।

अप्पा जी के साथ निर्मल ठिठोली

चित्र तो कितने ही हैं। अप्पा जी के साथ उनके भाव, अप्पा जी के साथ उनकी निर्मल ठिठोली, गुरु केलुचरण महापात्रा जी के साथ अद्भुत जुगलबंदी, मुम्बई में ठुमरी उत्सव में उनका गायन, भाव, लखनऊ की कितनी स्मृतियाँ, पद्मसम्मान मिलने पर आशीष देने उनका आना, और सबसे बढ़कर,  वीडियो कॉल पर उनसे अंतहीन बातें…


कभी मेरा कोई कार्यक्रम देखते, या कोई बात याद आती, महाराज जी सीधे वीडियो कॉल मिलाते… उनकी भोली मुस्कान देख मैं उस स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए तस्वीर ले लेती। एक युग का अवसान हो गया। स्मृतियाँ बहुत हैं। सोचती हूँ,  युगान्तकारी व्यक्तित्व ऐसे ही होते हैं- पंडित बिरजू महाराज जी जैसे। उनकी साधना को शत शत नमन।
(लेखिका प्रख्यात लोक गायिका हैं। आलेख सोशल मीडिया से)