प्रदीप सिंह।
कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र को खत्म करने की शुरुआत देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ही की थी। उनके विचारों से अलग विचार रखने वाले या उनके विचारों से जो मतभेद रखते थे उनका सफाया वे नफरत की हद तक जाकर करते थे। उन्हें अपने विरोधियों का विचार कतई मंजूर नहीं था। उनको मिटाने की हद तक जाकर वे उनका विरोध करते थे। इनमें सिर्फ दो ही लोग थे जो अपवाद थे। एक सरदार पटेल और दूसरे राजा जी। सरदार पटेल के सामने उनकी चलती नहीं थी।वे भले ही उप प्रधानमंत्री थे लेकिन उन्होंने खुद को कभी भी प्रधानमंत्री से कम नहीं समझा। खुद को कभी नेहरू से कम योग्य तो समझा ही नहीं।वे हमेशा यह मानकर चले कि नेहरू में परिपक्वता की, राजनीतिक समझ की कमी है।देश के मुद्दों के बारे में उनकी समझ ठीक नहीं है। लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है कि सरदार पटेल ज्यादासमय तक जीवित नहीं रहे।
ये जो बहस चलती है कि सरदार पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो ये हो जाता, वो जाता होता, मैं तो कहता हूं कि अगर वे उप प्रधानंत्री ही रहे होते और ज्यादा नहीं तो सिर्फ पांच साल और जीवित रह जाते तो भारत का नक्शा अलग होता। भारत की राजनीति अलग होती। भारत में जिस तरह से शासन और प्रशासन चलता है उसका तौर-तरीका अलग होता। एकता, अखंडता और राष्ट्रीयता का बोध अलग होता। शिक्षा व्यवस्था अलग होती। पता नहीं और क्या-क्या अलग होता लेकिन ये जो नेहरूवादी सोच है जिसने देश का बहुत नुकसान किया है, वह नहीं होता। इतिहासकारों के माध्यम से, बुद्धिजीवियों का एक पाला-पोसा वर्ग तैयार करके उनकी सच्चाई को छिपाया और दबाया गया। उसको सामने नहीं आने दिया गया, बल्कि उसको लगातार महिमामंडित किया गया। यह बात है 1950 और 1951 की।1950 का एक हिस्सा है जब सरदार पटेल जीवित थे और दूसरा हिस्सा है 1951 का जब सरदार पटेल का देहांत हो गया था। सरदार पटेल के रहते और उनके जाने के बाद नेहरू की स्थिति में उनके फैसले में उनके काम करने के तरीके में किस तरह का बदलाव आया?
पार्टी उम्मीदवार के खिलाफ उतारा अपना उम्मीदवार
1950 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना था। तब सरदार पटेल जीवित थे। उन्होंने पार्टी की ओर से अध्यक्ष पद के लिए पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम प्रस्तावित किया और उन्होंने नॉमिनेशन कर दिया। पुरुषोत्तम दास टंडन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के ही रहने वाले थे जो नेहरू की कर्मभूमि और जन्मभूमि थी। टंडन को नेहरू फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे। नेहरू का आरोप था कि यह व्यक्ति धार्मिक पुनरुत्थानवादी है, सांप्रदायिक है और हिंदी की बहुत ज्यादा वकालत करता है। उनके विरोध के ये तीन बड़े मुद्दे थे। मगर उनको सरदार पटेल का पूरा समर्थन था। इसके बावजूद नेहरू की यह राय थी। जैसे ही पुरुषोत्तम दास टंडन की उम्मीदवारी की घोषणा हुई नेहरू बौखला गए। उन्होंने कोशिश की कि वेअपनी उम्मीदवारी वापस ले लें। आखिर में नेहरू ने टंडन जी को खुद चिट्ठी लिखी कि आप अपना नाम वापस ले लीजिए। उन्होंने मना कर दिया। तब नेहरू के सामने और कोई विकल्प नहीं बचा। उन्होंने टंडन जी के सामने जेबी कृपलानी को चुनाव लड़ने के लिए खड़ा कर दिया। उसके बाद कांग्रेस के अंदर, तमाम नेताओं से, नेहरू और पटेल के बीच में खतों का सिलसिला शुरू हुआ। नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन के बीच चिट्ठी का आदान-प्रदान हुआ और धीरे-धीरे तल्खी बढ़ती गई।
शुरू हुई नेहरू बनाम पटेल की लड़ाई
नेहरू ने जब जेबी कृपलानी को खड़ा किया तो सरदार पटेल को इससे बड़ा धक्का लगा क्योंकि पार्टी में टंडन जी के नाम को लेकर बातचीत हो चुकी थी। फखरुद्दीन अली अहमद जो उस समय असम प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे,उन्होंने कहा कि असम कांग्रेस वहीं वोट करेगी जहां नेहरू जी चाहेंगे।शायद नेहरू का साथ देने का ही इनाम मिला कि वे केंद्र में मंत्री बने और फिर राष्ट्रपति भी बने। सरदार पटेल ने उन्हें चिट्ठी लिखी और कहा,“फखरुद्दीन तुम जो चाहो, जैसा चाहो करो, लेकिन एक बात याद रखना कि नेहरू कभी अपने मित्रों की मदद नहीं कर सकते और अपने दुश्मनों का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। लेकिन मैं अपने दोस्तों को कभी भूलता नहीं और दुश्मनों को कभी माफ नहीं करता।”इसके बाद नेहरू बनाम पटेल की खुली लड़ाई शुरू हो गई और प्रतीक थे एक तरफ पुरुषोत्तम दास टंडन और दूसरी तरफ जेबी कृपलानी। पुरुषोत्तम दास टंडन चुनाव जीत गए। उनको 1306 वोट मिले और जेबी कृपलानी को 1092 वोट। नेहरू को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने पहले कहा कि वे पुरुषोत्तम दास टंडन की बनाई वर्किंग कमेटी के सदस्य नहीं बनना चाहेंगे। फिर उनके करीबियों ने उन्हें समझाया कि यह ठीक नहीं होगा, इससे आपकी स्थिति और कमजोर हो जाएगी। तबवे कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य बनने को तैयार हुए। चुनाव का नतीजा आया अगस्त 1950 में और दिसंबर 1950 में दुर्भाग्य से सरदार पटेल का देहांत हो गया।
पार्टी पर अपनी मर्जी थोपना चाहते थे
नेहरू को लगा कि सरदार पटेल के देहांत के बाद भी पुरुषोत्तम दास टंडन का रवैया बदला नहीं है। उन्होंने उनको समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने।तब नेहरू को लगा कि अगर टंडन अध्यक्ष रहेंगे तो उनकी जो रिवाइवलिस्ट पॉलिसी है, जो कम्युनल पॉलिसी है, तो फिर उनके लिए सरकार और पार्टी में रहने का क्या मतलब रह जाएगा। उन्होंने पार्टी से इस्तीफा देने का विचार किया। उनके सलाहकारों ने कहा कि अलग पार्टी बना लीजिए। हालांकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता। मैं केवल संकेतों के आधार पर कह रहा हूं क्योंकि नेहरू ने कहा था कि कांग्रेस को छोड़ना, कांग्रेस का इस समय खत्म होना देश के लिए अच्छा नहीं होगा। इसका मतलब वे कांग्रेस से बाहर भी विकल्प तलाश रहे थे या उस पर चर्चा हुई थी। नेहरू की परेशानी दिन- प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। टंडन को वह किसी भी हालत में बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे।उन्हें हाशिये पर डालने के लिए नेहरू ने एआईसीसी (ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी) से अपनी नीतियों के आधार पर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करवाया लेकिन टंडन जी ने उनको लागू करने से मना कर दिया। नेहरू की परेशानी और बढ़ गई। जब ऐसा हुआ तो नेहरू ने टंडन जी से यह कहा कि संगठन के कामकाज के तरीके से पार्टी अलोकप्रिय होती जा रही है। इस पर पुरुषोत्तम दास टंडन का जवाब था कि पार्टी सरकार के फैसलों के कारण अलोकप्रिय हो रही है, संगठन के कारण नहीं। आपने खाद्यान्न पर जो कोटा सिस्टम लगाया है उसकी वजह से, आपकी जो जिद है कि किसी भी हालत में हिंदू कोड बिल पास होना चाहिए उसकी वजह से पार्टीअलोकप्रिय हो रही है। यह सुनने के बाद नेहरू समझ गए कि अब एक ही तरीका है कि टंडन को राजनीतिक रूप से हाशिये पर धकेल दिया जाए।
इस्तीफे की चाल से बनाया दबाव
उन्हें हटाए बिना नेहरू को आगे का रास्ता साफ होता नहीं दिख रहा था। नेहरू का दबाव देखकर, उनके साथियों का दबाव देखकर पुरुषोत्तम दास टंडन ने कहा कि वे इस्तीफा देने को तैयार हैं। अगर वेइस्तीफा देते तो उसके बाद क्या रिएक्शन होता, इसका अंदाजा लगाना उन लोगों के लिए मुश्किल हो रहा था। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की जानकारी के बिना नेहरू ने अपने करीबी नेताओं की बैठक बुलाई। उस बैठक में यह तय हुआ कि नेहरू कांग्रेस वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दें। फिर यह संदेश जाएगा कि जिस वर्किंग कमेटी के सदस्य जवाहरलाल नेहरू नहीं हैं उस वर्किंग कमेटी के होने का क्या मतलब है। अब आप देखिए कि नेहरू ने किस तरह से काम किया। राजगोपालाचारी यानी राजा जी जो नेहरू के सबसे करीबी लोगों में से थे, जिनको नेहरू सबसे योग्य व्यक्ति मानतेथे, जिनको देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, उनको भी उस बैठक में नहीं बुलाया। क्योंकि नेहरू को डर था कि वे न्याय की, सिद्धांत की, डेमोक्रेसी की बात करेंगे। चुने हुए अध्यक्ष को दरकिनार करने का समर्थन नहीं करेंगे इसलिए इस बैठक के बारे में उनको कोई जानकारी ही नहीं दी गई। नेहरू ने पहले पार्टी के संसदीय बोर्ड से इस्तीफा दिया, फिर कुछ दिन बाद पार्टी के सेंट्रल इलेक्शन कमेटी से इस्तीफा दे दिया। योजना थी कि उसके बाद पार्टी की वर्किंग कमेटी से इस्तीफा देंगे लेकिन इसी बीच एक घटना घट गई। रफी अहमद किदवई जो नेहरू के बहुत करीबी और खासमखास थे,ने टंडन जी से नाराजगी के कारण कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। वे भी उत्तर प्रदेश से ही आते थे। उनकी और टंडन जी की बिल्कुल नहीं पटती थी।बाद में वे जेबी कृपलानी के साथ चले गए जिन्होंने एक अलग पार्टी बनाई थी किसान मजदूर प्रजा पार्टी। वह किस्सा अलग है कि किस तरह से कृपलानी जी को भी नेहरू जी ने बाद में हाशिये पर धकेल दिया। उन्होंने कांग्रेस पार्टी ही छोड़ दी, नेहरू के खिलाफ हो गए और जब तक जीवित रहे नेहरू के खिलाफ ही रहे।
(जारी….)