खाते में सिर्फ एक सीट, अब तक का सबसे कमजोर प्रदर्शन।
कमल जयंत।
यूपी में 2022 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को सबसे बड़ा नुकसान हुआ है। इस चुनाव में बसपा के आधार वोट बैंक पर भी सेंध लगी है। दलितों ने बसपा से किनारा किया है- बसपा का मूल वोट बैंक समझे जाने वाले चमार-जाटव बिरादरी के लोगों ने भी बसपा से दूरी बनायीं है। इस बिरादरी का लगभग 50 फीसदी वोट बसपा से अलग होकर सपा और भाजपा में शिफ्ट हुआ है। इस चुनाव में बसपा का ना केवल वोट बैंक आठ फीसदी कम हुआ है बल्कि सीटें भी इकाई की पहली संख्या पर सिमट गईं। हालाँकि पिछले विधानसभा चुनाव में ही बसपा को 19 सीटें पाकर ही संतोष करना पड़ा था, लेकिन चुनाव आते-आते बसपा के पास महज तीन विधायक ही बचे। इस चुनाव में तो बसपा महज एक सीट जीत सकी।
साख बचाने की चुनौती
इस चुनाव में जिस तरह से बसपा का आधार वोट बैंक उससे छिटका है यह जरूर चिंता का विषय है। बसपा प्रमुख मायावती को अपना आधार वोट पार्टी में दोबारा वापस लाने के लिए काफी मेहनत करनी होगी। अब बसपा नेतृत्व के लिए अपने आधार वोट बैंक के साथ अपनी साख बचाने की भी चुनौती होगी। वैसे राज्य में किसी भी चरण में बसपा कहीं भी मैदान में लड़ती नहीं दिखी, जिसकी वजह से दलितों में मायावती को लेकर काफी निराशा व्याप्त है। उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी लगभग 23 फीसदी है और इनमें भी सबसे अधिक संख्या चमार-जाटव बिरादरी की है। दलितों में इस वर्ग की आबादी लगभग 55 से 60 फीसदी है। इस समाज का वोट पहले की तरह इस बार परंपरागत तरीके से बसपा के साथ खड़ा नहीं दिखाई दिया। दलित समाज को इस बार चुनाव में बसपा से ज्यादा संविधान बचाने की चिंता दिखी। बसपा प्रमुख की इस चुनाव में निष्क्रियता का नतीजा रहा कि दलित वोट विभाजित हो गया और सपा गठबंधन के साथ ही ये वोट भाजपा के पक्ष में भी गया। इसी का नतीजा रहा कि भाजपा को देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में दोबारा प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला।
सपा से गठबंधन टूटने से निराशा
दलितों के वोट को विभाजित होने से रोकने और इसे बसपा के पक्ष में बनाये रखने के लिए पिछले तमाम चुनावों की अपेक्षा इस बार बसपा ने सुरक्षित और सामान्य सीटों पर ज्यादा चमार-जाटव प्रत्याशी मैदान में उतारे। ये समाज बहुजन नायक कांशीराम जी की नीतियों से प्रभावित होकर बसपा के गठन के समय से ही पार्टी के साथ मजबूती से जुड़ गया और 2019 में हुए लोकसभा के चुनाव तक बसपा के साथ काफी मजबूती से जुड़ा रहा। यहाँ तक कि तमाम दलित उत्पीड़न की घटनाओं और दलित एक्ट की बहाली की मांग को लेकर दलितों के आन्दोलन से भी बसपा के अलग रहने के बावजूद दलितों की अन्य जातियों के साथ ही चमार-जाटव बिरादरी के लोग बसपा के साथ जुड़े रहे। मायावती के ‘बहुजन’ से ‘सर्वजन’ का सियासी सफ़र तय करने के दौरान भी ये वर्ग बसपा के साथ मजबूती से जुड़ा रहा। इसके पीछे इस वर्ग का ये मानना था कि बसपा प्रमुख सर्वसमाज की बात जरूर कर रहीं हैं, लेकिन सरकार बनने के बाद वह दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज को मिलाकर बनने वाले 85 फीसदी बहुजन समाज के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहतीं हैं। यही वजह रही कि बसपा का कट्टर समर्थक चमार-जाटव समाज 2017 में यूपी में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा के साथ खड़ा रहा। उसे राज्य में बसपा की सरकार बनने का भरोसा था और साथ ही उसके सामने बसपा का कोई विकल्प भी नहीं दिख रहा था। लेकिन वर्ष 2019 में जिस तरह से बसपा प्रमुख ने लोकसभा चुनाव के बाद सपा से गठबंधन तोडा, उसको लेकर इस वर्ग में भी निराशा व्याप्त हुई, क्योंकि इस गठबंधन ने दलितों और पिछड़ा वर्ग को एक साथ लाने में काफी मदद की। इन दोनों दलों के बीच गठबंधन तो टूट गया, लेकिन सामाजिक गठबंधन बरकरार रहा, जिसे ये वर्ग आगे भी बनाये रखने का भी प्रयास कर रहा है।
कुछ यहाँ कुछ वहां…
हालाँकि इस चुनाव में बहुजन समाज को एकजुट रखने का प्रयास सफल होता नहीं दिखा। इसी का नतीजा रहा कि तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा के खिलाफ मजबूती से लड़ रहे सपा प्रमुख अखिलेश यादव पिछली बार के मुकाबले दो गुनी से अधिक सीटें पाने में सफल रहे। लेकिन वह दलितों, अति पिछड़ा वर्ग को समझाने में बहुत सफल नहीं हुए। वहीँ दूसरी तरफ बसपा प्रमुख मायावती ने जिस तरह से अपने को निष्क्रिय रखा, यहाँ तक कि उनकी चुनावी सभाएं भी काफी कम हुई, जिससे दलितों में बसपा को लेकर निराशा पैदा हुई। बसपा से निराश दलितों का ये वोट सपा गठबंधन के साथ ही भाजपा के साथ भी चला गया। दलितों में गैर चमार-जाटव जिसमें धोबी, खटिक, बाल्मीकि, कोरी, धानुक, आदि जातियों का तो एकतरफा वोट भाजपा के पक्ष में गया। वहीँ पासी समाज जरूर भाजपा के साथ ही सपा गठबंधन के पक्ष में खड़ा दिखाई दिया।
मोहभंग के कारण
बसपा के वोट बैंक के खिसकने के कारणों पर नजर डालें तो वर्ष 2019 में हुए लोकसभा के चुनाव के बाद से मायावती दलितों पर हुए उत्पीड़न को लेकर आंदोलित नहीं रही, जिसके कारण बसपा का मूल वोट बैंक इस चुनाव में लगभग 50 फीसदी तक खिसक गया। विधानसभा चुनाव के दौरान केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने जिस तरह से बसपा को कमजोर ना आंकने की सलाह दी, उससे भी बसपा का मूल वोट बैंक को यह लगने लगा कि बसपा और भाजपा के बीच कोई गुप्त समझौता है और ये दोनों अंदर ही अंदर मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन शाह के बयान के बाद जिस तरह से बहन जी ने उनके प्रति अपना आभार व्यक्त किया, उसके बाद से दलित वर्ग के लोग बसपा के पक्ष में जाने के बजाय उससे और दूर हो गए। दलितों का नेतृत्व करने के लिए मायावती ने पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चन्द्र मिश्र को आगे किया और चुनावी घोषणा से ठीक पहले बहन जी ने 84 सुरक्षित सीटों पर दलितों और ब्राह्मणों में समन्वय स्थापित कराने के लिए सतीश मिश्रा को भेजा। इस बात से भी दलितों में सतीश मिश्रा के साथ ही बसपा नेतृत्व के खिलाफ भी आक्रोश व्याप्त हो गया। इस वर्ग का कहना है कि बहुजन नायक कांशीराम जी ने मनुवाद और ब्राह्मणवाद से निजात दिलाने के लिए इस व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था। लेकिन जिस तरह से मायावती ने दलितों की अगुवाई के लिए खुद आगे ना आकर सतीश मिश्रा को आगे किया उससे दलित समाज को लगने लगा कि अब बसपा नेतृत्व ने संविधान बचाने की लड़ाई से अपने को दूर कर लिया।
मायावती मूल मकसद से भटकीं
‘बहुजन भारत’ के अध्यक्ष एवं यूपी के पूर्व प्रमुख सचिव (गृह) कुंवर फ़तेह बहादुर का कहना है कि बसपा नेतृत्व अपने मूल मकसद से भटक गया है। इस वजह से पार्टी के आदर्शों से जुड़े इस समाज का भरोसा भी बसपा प्रमुख पर कम हुआ। जिसका परिणाम विधानसभा चुनाव के नतीजों में देखने को मिला। इस चुनाव में दलितों में चमार-जाटव बिरादरी का वोट बचाने की बसपा के सामने चुनौती थी, लेकिन बसपा अपने मूल वोट बैंक को बचाने में सफल नहीं हो सकी। ये वोट सपा गठबंधन के पक्ष में ज्यादा जाता दिखाई दिया, हालाँकि वोटों के बंटवारे का सीधा फायदा भाजपा को मिला। सवर्णों के वोट में कोई बंटवारा नहीं हुआ और ये ये वोट एकतरफा भाजपा के पक्ष में गया। उनका कहना है कि ये बहुजन समाज के लोगों का दुर्भाग्य है कि वंचित-शोषित दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समाज को एकजुट करने के लिए बहुजन नायक कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया और पार्टी गठन के तुरंत बाद 1989 में यूपी में 13 विधानसभा और दो लोकसभा की सीटें जीती थी, लेकिन बसपा प्रमुख की बहुजन से छोड़कर सर्वसमाज की नीतियों को लागू करने का ही नतीजा रहा, 2022 में बसपा को सिर्फ एक सीट मिली। साथ ही उसके वोट बैंक में भी भारी कमी आई। कुंवर फ़तेह बहादुर का कहना है कि मायावती ने दलितों के उत्पीड़न को लेकर हुए किसी भी आन्दोलन में कोई शिरकत नहीं की, और ना ही पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यकों की परेशानी को लेकर कोई लड़ाई लड़ी। इसी का नतीजा है कि बसपा के पक्ष में शुरुआती दौर में एकजुट हुआ ये वर्ग पार्टी से लगभग पूरी तरह से दूर हो गया। उनका कहना है कि अब नए सिरे से बहुजन समाज को एकजुट करने के लिए एक बड़ा आन्दोलन चलाने की जरूरत है।
एक जाति की पार्टी बना दिया
बसपा के सामने अपने पुराने वोट बैंक को दोबारा पार्टी से जोड़ने की चुनौती है। लेकिन बसपा की नीतियों को देखते हुए ये वर्ग- जिसमें दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज शामिल है- जुड़ता नहीं दिख रहा है। बसपा प्रमुख ने अपने को बहुजन से सर्वजन की ओर परिवर्तित करने के साथ ही बसपा को केवल एक जाति की पार्टी बना दिया, जिसकी वजह से दलितों में गैर जाटव बिरादरी के लोगों के साथ ही पिछड़ा वर्ग की लगभग सभी जातियां और अल्पसंख्यकों में खासतौर पर मुस्लिम बसपा से दूर हो गया। इसका भारी नुकसान इस चुनाव में दिख रहा है। इसके अलावा मायावती ने बहुजन नायक कांशीराम जी के मूवमेंट से अपने को अलग करने के साथ ही इस वर्ग पर हुए अत्याचार के खिलाफ हुए आन्दोलन से भी अपने को दूर रखा। यही वजह रही कि इस बड़े वर्ग ने बसपा से किनारा कर संविधान और आरक्षण की रक्षा की बात करने वाली सपा की ओर रुख कर लिया। यह बात अलग है कि सपा गठबंधन को इस बार सरकार बनाने में सफलता नहीं मिली। भाजपा को शिकस्त देने के लिए संविधान और आरक्षण बचाने की लड़ाई लड़ रही सपा को बहुजन नायक कांशीराम जी के एजेंडे पर वापस आना होगा- तभी इन ताकतों से मुकाबला किया जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)