डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
गीता प्रेस के सम्पादकीय विभाग में अनेक विद्वानों ने काम किया। वैसे तो इनकी बहुत लम्बी सूची है। परन्तु कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं –श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी, श्री मुनिलाल गुप्त, श्री नन्द दुलारे वाजपेयी, श्री चन्द्र शेखर पाण्डेय, श्री लक्ष्मी नारायण गर्दे, डॉ. भुवनेश्वर नाथ मिश्र माधव, श्री राम नारायणदत्त शास्त्री, श्री सुदर्शन सिंह चक्र, श्री गौरी शंकर द्विवेदी, श्री चंद्रदीप त्रिपाठी, श्री जानकीनाथजी शर्मा, आदि। इनमें से दो लोगों ने संन्यास ग्रहण कर लिया था। श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी और श्री मुनिलाल गुप्त सन्यासी हो गए थे और बाद में इनका नाम बदलकर स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती और स्वामी सनातनदेवजी हो गया था। इन सब लोगों की अलग-अलग क्षेत्रों में विशेषज्ञता थी, परन्तु इन सभी की संस्कृत और हिन्दी में विशेष निपुणता थी। इन सभी की विद्वता पर एक-एक ग्रन्थ किखा जा सकता है और कुछ पर तो ग्रन्थ लिखे भी गए हैं।
श्री शान्तनु विहारी द्विवेदीजी ने श्रीमद्भागवत का हिन्दी में अनुवाद किया था। श्री मुनिलाल गुप्तजी ने उपनिषदों का हिन्दी में अनुवाद किया था। श्री राम नारायणदत्त शास्त्रीजी ने अनेक उपनिषदों का और महाभारत का अनुवाद किया था। रामचरित मानस के सम्पादन में आचार्यनन्द दुलारे वाजपेयीजी की विशेष भूमिका रही। ‘कल्याण’ में आने से पूर्व श्री लक्ष्मी नारायण गर्दे ‘श्रीकृष्ण सन्देश’ का सम्पादन करते थे। गीता प्रेस के लिए उन्होंने अंग्रेजी, गुजराती, मराठी पुस्तकों और लेखों का अनुवाद किया। आचार्यनन्द दुलारे वाजपेयी (1906-1967) बाद में विक्रम विश्व विद्यालय, उज्जैन के वाइस चांसलर भी रहे थे।
इसके पहले कि पण्डित जानकीनाथ शर्मा पर बात शुरू की जाए, यह बताना भी उचित होगा उनके गीता प्रेस में आने के समय हालात क्या थे। जब उन्होने गीता प्रेस में अपनी सेवाएँ प्रारम्भ की थीं, तब ‘कल्याण’ का ‘संक्षिप्त महाभारत अंक’ निकल रहा था। यह बात वर्ष 1942 की है।
शान्तनु विहारीजी ने संन्यास ले लिया
श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी ने ‘संक्षिप्त महाभारत अंक’ निकलने के कुछ माह पहले संन्यास लिया था। वह उसके 18 पर्वों में से केवल दो पर्व का ही अनुवाद कर पाए थे। संक्षिप्त महाभारत अंक जुलाई 1942 में प्रकाशित हुआ था। जब श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी ने संन्यास लिया था, तब उनकी आयु 29-30 वर्ष रही होगी। उनका जन्म 1911 में हुआ था।
संक्षिप्त महाभारत का प्रकाशन भी किसी महायुद्ध से कम न था
संक्षिप्त महाभारत दो खण्डों में प्रकाशित हुआ। पहला खण्ड 900 से अधिक पृष्ठों का था। और दोनों खण्ड मिला कर 1600 से अधिक पृष्ठ थे। दूसरे खण्ड के प्रारम्भ में गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयालजी गोयन्दका ने लिखा:
“अनुवाद का कार्य पूज्य पं. शान्तुनविहारीजी (स्वामी श्रीअखन्डानन्द सरस्वती) के द्वारा प्रारम्भ हुआ था; परन्तु दो पर्वों का ही अनुवाद हो सका; फिर संन्यास ग्रहण कर लेने के कारण वे इस कार्य को आगे नहीं चला सके। इसलिए पं. श्री रामनारायणदत्तजी शास्त्री तथा श्रीयुत मुनिलालजी (स्वामी सनातनदेवजी) ने मिलकर शेष अनुवाद कार्य किया।“
उन दिनों संक्षिप्त महाभारत छापना कोई आसान काम नहीं था
संक्षिप्त महाभारत पर कल्याण का यह विशेषांक जब सन् 1942 में प्रकाशित हुआ था, तब दुनिया में द्वितीय महायुद्ध (1939-1945) चल रहा था। भारत में तमाम चीजों की कमी हो गई थी। आजकल के सुविधाभोगी शायद इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि तब बिजली एक-एक महीने तक नहीं आती थी। आजकल तो यदि कुछ घंटे भी बिजली चली जाए, तो हाय तौबा मच जाती है। सन् 1942-43 में किसी को यह भी पता नहीं था कि यह महायुद्ध कब समाप्त होगा। संक्षिप्त महाभारत के प्रथम खण्ड के प्रथम पृष्ठ पर ही द्वितीय महायुद्ध की चर्चा की गई है। इसके दूसरे पृष्ठ पर लिखा है:
“जिन दिनों महाभारत अंक की छपाई हो रही थी तभी अकस्मात बिजली घर में क्रूड ऑयल की कमी होने जाने से बिजली मिलनी बन्द हो गई, जिससे प्रेस का कार्य एक प्रकार से बन्द हो गया और लगभग एक महीने तक बन्द सा रहा। …”
इसी प्रथम खण्ड के दूसरे और तीसरे पृष्ठ पर कागज की कमी अर्थात शार्टेज की भी चर्चा की गई है। “आर्ट पेपर तो मिल ही नहीं रहा था इस कारण इसमें कुछ रंगीन चित्र नहीं छापे जा सके। “कुछ आर्ट पेपर पहले का बचा हुआ रखा था, उसमें से जितने भी रंगीन चित्र दिये जा सकते थे, उतने दिये गए।“
सम्पूर्ण महाभारत छह खण्डों में
बाद में जब स्थितियाँ थोड़ा सामान्य हो गईं, तब गीता प्रेस ने सम्पूर्ण महाभारत छ्ह खण्डों में प्रकाशित किया। सम्पूर्ण महाभारत जब प्रकाशित हुआ तब उसमें साढ़े छह हजार से अधिक पृष्ठ थे।
‘कल्याण’ पर ईश्वर की कृपा
‘कल्याण’ पर ईश्वर की यह कृपा रही है कि श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी के संन्यास लेने के बाद उसके सम्पादकीय विभाग को श्री जानकीनाथ शर्मा की सेवाएं उपलब्ध हो गईं। वह रोहतास, बिहार के रहने वाले थे।
‘कल्याण’ में कार्यरत श्री राधेश्याम शुक्ला जी को शर्माजीने कई बार यह बताया था कि उन्होंने तब ‘कल्याण’ में अपनी सेवाएं प्रारम्भ की थीं जब ‘संक्षिप्त महाभारत अंक’ निकल रहा था। यह बात श्री शुक्लाजी ने इस लेख के लेखक को दिए गए अपने इंटरव्यू में दिसम्बर 2021 को बताई। श्री शुक्लाजी (जन्म 1 जुलाई 1951) सन् 1975 से ‘कल्याण’ में काम कर रहे हैं। रिटायरमेंट के बाद भी वह ‘कल्याण’ में कार्यरत हैं।
शर्माजी की याददाश्त विलक्षण थी
पण्डित जानकीनाथ शर्मा एक अद्भुत किस्म के व्यक्ति थे। उन्हें भगवद्गीता, रामायण, रामचरित मानस, महाभारत, विभिन्न उपनिषद, पुराण, आदि कण्ठस्त थे। उनकी विलक्षण याददाश्त थी। यह लेख प्रधानत: उन लोगों से हुई बातचीत पर आधारित है, जो गीता प्रेस में पण्डित जानकीनाथजी के सहयोगी रहे। इन लोगों में शामिल हैं श्री हरिकृष्ण दुजारीजी, श्री राधेश्याम शुक्लाजी और श्री मेघ सिंहजी। दुजारीजी की आयु लगभग 85 वर्ष है। वह गीता वाटिका में रहते हैं। पण्डित जानकीनाथ शर्मा का आवास गीता वाटिका के पास ही था। शर्माजी ने जब ‘कल्याण’ में कार्य प्रारम्भ किया तो उस समय उसका सम्पादकीय विभाग गीता वाटिका में ही था। दुजारीजी ने बताया कि ‘कल्याण’ में आने से पूर्व जांनकीनाथजी स्वामी करपात्रीजी की पत्रिका में सम्पादक थे। दुजारीजी बताते हैं कि वे एक चलते-फिरते इन्साइक्लोपीडिया (विश्व कोश) थे।
शर्माजी ने प्रधानाचार्य का पद ठुकराया
श्री राधेश्याम शुक्लाजी ने बताया कि एक बार पण्डित जानकीनाथ शर्मा के पास स्वामी करपात्रीजी का पत्र आया। करपात्रीजी का प्रस्ताव था कि पण्डितजी दिल्ली में धर्म संघ के एक विद्यालय में प्रधानाचार्य का पद ग्रहण करें। वह प्रस्ताव शर्माजी को आकर्षित नहीं कर पाया और उन्होंने गीता प्रेस में ही अपनी सेवाएं जारी रखीं।
श्री राधेश्याम शुक्ला ने बताया कि पण्डित जानकीनाथ शर्मा हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, भाषाएं जानते थे। उनका बहुत साधारण रहन-सहन था। मई 1974 में जब ‘कल्याण’ के सम्पादक श्री चिम्मनलाल जी गोस्वामी का शरीर शान्त हो गया, तब गीता प्रेस का सम्पादकीय विभाग गीता वाटिका से शिफ्ट हो कर गीता प्रेस में आ गया। तब शर्माजी अपने घर से साइकिल चला कर आफिस आते थे। उनके घर से गीता प्रेस की दूरी लगभग पाँच किलोमीटर थी।
जानकीनाथ शर्मा अन्धे हो गए
श्री मेघ सिंह जी बताते हैं कि पण्डितजी से कई बार यह कहा गया कि आप अपने मोतियाबिन्द का आपरेशन करवा लें। परन्तु पण्डितजी का मानना था कि परम प्रभु के विधान में कोई व्यवधान नहीं डालना चाहिए। इस कारण वह धीरे-धीरे अन्धे हो गए।
श्री मेघ सिंहजी ने सन् 1992 से 2017 तक गीता प्रेस, गोरखपुर में काम किया था। वह बताते हैं कि पण्डितजी की सरलता और ज्ञान के कारण गीता प्रेस में हर कोई उनके आगे नत-मस्तक था। उनकी एक और विशेषता यह थी कि वह सदैव प्रसन्नचित्त रहते थे।
अन्धा होने के बाद भी वह गीता प्रेस में काम करते रहे
अन्धा होने के बाद भी वह गीता प्रेस आते रहे और काम करते थे। तब गीता प्रेस ने उनके घर से आने-जाने के लिए एक साइकिल रिक्शा लगवा दिया था। उन दिनों वह वहाँ पत्राचार का काम देखते थे; पाठकों के पत्र के पत्र सुनकर उनके उत्तर लिखवाते थे; और अन्य सम्पादकीय कार्य भी करते और करवाते थे।
श्री मेघ सिंहजी ने बताया कि एक बार बम्बई हाई कोर्ट के वकील प्रशान्त भगवती का फैक्स से संदेश आया कि अमुक-अमुक श्लोक किस ग्रन्थ से लिया गया है। पण्डित जानकीनाथजी शर्मा को वह श्लोक सुनाया गया और उन्होंने तुरन्त बता दिया कि वह किस ग्रन्थ से लिया गया था और उस उस ग्रन्थ में भी वह कहाँ पर लिखा हुआ है।
शर्माजी अन्तिम कुछ वर्षों में गीता प्रेस आने में असमर्थ हो गए पर वेतन मिलता रहा
पण्डित जानकीनाथ शर्मा नब्बे वर्ष से अधिक समय तक रहे। जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में वह बीमार रहते थे और उनका गीता प्रेस जाना बन्द हो गया था। फिर भी गीता प्रेस से वेतन भेजा जाता था।
श्री राधेश्याम शुक्लाजी ने बताया कि वह स्वयं पण्डितजी का वेतन उनके घर देने जाते थे। पण्डितजी उस वेतन को बहुत संकोच से लेते थे, क्योंकि उनको यह अच्छा नहीं लगता था कि उन्हें बगैर कार्य के वेतन दिया जाए। पण्डितजी चाहते थे कि उनसे कुछ काम भी लिया जाए।
7 जनवरी 2007 को शरीर शान्त हुआ
7 जनवरी 2007 को गोरखपुर में पण्डित जानकीनाथ शर्मा का शरीर शान्त हो गया। यह दुखद समाचार जब ‘कल्याण’ के सम्पादक श्री राधेश्याम खेमका को पता चला, तब उस समय वह प्रयाग में थे। श्री राधेश्याम शुक्ला ने बताया कि खेमकाजी ने उनके अन्तिम संस्कार के लिए तुरन्त मेरे ही मार्फत 19-20 हजार रुपये की व्यवस्था कराई। पण्डित जानकीनाथ शर्मा का श्राद्ध, आदि भी गीता प्रेस एक ट्रस्टी ने ही कराया था और उनके लिए काशी से पण्डितजी बुलाए गए थे।
श्री राधेश्याम शुक्लाजी ने बताया कि पण्डित जानकीनाथ शर्मा के तीन पुत्र थे। सबसे छोटा पुत्र रघुनाथ भी गीता प्रेस में ही कार्यरत था। दूसरा पुत्र गोरखपुर में एक इंटर कालेज में अध्यापक था। तीसरा पुत्र डालमिया सीमेंट फैक्ट्री में काम करता था। अब उनके तीनों पुत्र इस संसार में नहीं हैं।
पण्डित जानकीनाथजी शर्मा ने सम्पादन और अनुवाद कार्य के अतिरिक्त ‘कल्याण’ के नियमित अंकों के लिए और विशेषांको के लिए अनेक लेख लिखे। सन् 1950 में ‘कल्याण’ के हिन्दू संस्कृति अंक में पण्डितजी का लेख था ‘हिन्दू राजा के लक्षण और कर्तव्य’। यह अंक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ था। सन् 1991 में ‘कल्याण’ का विशेषांक था ‘योगतत्वांक’। उसमें सम्पादक श्री राधेश्यामजी खेमका ने लिखा: “(इस) अंक के सम्पादन में अपने सम्पादकीय विभाग के वयोवृद्ध विद्वान पण्डित जानकीनाथ शर्मा तथा कुछ अन्य सहयोगियों के अथक परिश्रम से ही यह विशेषांक प्रस्तुत हो सका है।“
वाल्मीकीय रामायण में शर्माजी का लम्बा लेख
आज हमें गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित जो वाल्मीकीय रामायण दो खण्डों में उपलब्ध है। इसके प्रथम खण्ड के प्रारम्भ में ‘नम्र निवेदन’ शीर्षक से श्रीजानकीनाथ शर्मा का इस ग्रन्थ के बारे में एक बहुत लम्बा, सारगर्भित और विद्वत्तापूर्ण लेख है। वाल्मिकीय रामायण के प्रथम संस्करण का प्रकाशन संवत् 2017 (सन् 1960-61) में हुआ।
‘कल्याण’के सभी गौरवशाली सम्पादकों के साथ काम करने का अवसर मिला
शर्माजी गीता प्रेस के उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से एक थे जिंन्हें ‘कल्याण’के सभी गौरवशाली सम्पादकों के साथ काम करने का अवसर मिला – श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार (1892-1971)अगस्त 1926 से 1971 तक अपने ब्रह्मलीन होने तक इस पत्रिका के सम्पादक रहे। इसके बाद मार्च 1971 से जून 1974 तक श्री चिम्मनलाल गोस्वामी (1900-1971)’कल्याण’के सम्पादक रहे। गोस्वामी जी का शरीर शान्त होने के बाद स्वामी रामसुखदास जी (1904-2005)‘कल्याण’ के तीसरे सम्पादक हुए। वह जून 1974 से जुलाई 1976 तक ‘कल्याण’के सम्पादक रहे। इसके बाद श्री राधेश्याम खेमका (1935-2021)ने लगभग 38 वर्षों तक(अपने जीवन के अन्त तक)इस सम्पादकीय दायित्व को निभाया।
श्रीजानकीनाथ शर्मा सन् 1942 से गीता प्रेस में कार्यरत थे।
(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)