एक छोटी सी फिल्म ने निकाल दी लेफ्ट-लिबरल बिरादरी के गढ़े मिथ्याप्रचार की हवा ।

विजय मनोहर तिवारी।
अफसोस कि जयप्रकाश चौकसे परदे के पीछे चले गए। 26 साल तक लगातार फिल्मों पर किसी अखबार के कॉलम का पेट भरना मजाक नहीं था। फिल्मों के हर पहलू पर उन्होंने बेधड़क लिखा। 2014 के बाद फिल्मों की आड़ में और ज्यादा बेधड़क लिखा। वे आज होते तो क्या लिखते? चूंकि वे आज हमारे बीच नहीं हैं इसलिए फिल्म का हर दर्शक खुद ही समीक्षक हो गया है। वह खुद अपनी बात कह रहा है और उसे किसी अखबार के कॉलम की दरकार नहीं है। मैं ‘द कश्मीर फाइल्स’ की बात कर रहा हूं, जो मैंने अब तक देखी नहीं है। मैं पांच दिन से सिर्फ देखने वालों को देख रहा हूं। गौर से सुन रहा हूं। मगर फिल्म देखने की हिम्मत अभी जुटा नहीं पाया हूं।

पवित्र अग्नि से निकला यज्ञ का धुआं

Filmmaker Vivek Agnihotri's Old Sexist Tweets Resurface after His Appointment to the ICCR

निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री यह फिल्म लेकर आए हैं। मगर विवेक रंजन के नाम के आगे न चोपड़ा लगा है, न कपूर। वे न जाैहर हैं, न रामसे। न भंसाली, न बड़जात्या। न सिप्पी, न देसाई। यह बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी का जमाना भी नहीं है। कथा-पटकथा लिखने वाले न सलीम हैं, न जावेद। डायलॉग लिखने वाले कादर खान भी नहीं हैं। कौमी एकता के तराने किसी कैफी आजमी या कैफ भोपाली ने नहीं लिखे हैं। न ही एआर रहमान ने बाजे बजाए हैं। वे सिर्फ विवेक रंजन अग्निहोत्री हैं… अग्निहोत्री। वे कोई शोमैन नहीं हैं। वे एक अग्निहोत्री हैं। उन्होंने एक आहुति दी है। अपनी कला से बस एक अग्निहोत्र ही किया है और पवित्र अग्नि से निकला यज्ञ का धुआं वायुमंडल में व्याप्त हो गया है।

बड़े सितारे वो नहीं होते जो चमकते हैं

Vivek Agnihotri Deactivates Twitter Account; Says, "All This Fatwa, Threats, Abuses..For What?"

कपिल शर्मा छाप विदूषकों की मंडली को पता चल गया है कि बड़े सितारे वे नहीं होते, जो परदे पर चमकते हैं। बड़े सितारे वे हैं, जो उन सितारों को सितारा हैसियत में लेकर आते हैं। सिनेमा के आम और अनाम दर्शक। किंग नहीं, किंग मेकर ही बड़ा होता है। सियासत हो या साहित्य या सिनेमा। नेताओं, लेखकों और अदाकारों को बड़ा बनाने वाला होता है उनका वोटर, उनका पाठक और उनका दर्शक। हां, वे जरूर इस वहम में हाे सकते हैं कि वे अपने बूते पर बड़े बने हैं। उनका ये वहम टूट गया है। चूर-चूर हो गया है। उन्हें यह भी ज्ञात हो चुका है कि फिल्म को हिट करने के लिए उनके एक घंटे की फूहड़ बकवास नहीं, ट्विटर पर दिल्ली से आई एक तस्वीर ही काफी है। यह सच्चाई की ताकत है, एक्टिंग की नहीं।
अभी तक तो भारत की सेक्युलर सियासत बुरी तरह बेपर्दा हुई थी। अब एक झटके में बॉलीवुड बेनकाब हो गया है। भारत का सबसे मालदार सिनेमा उद्योग अनगिनत धुरंधर लेखकों और रचनाकारों के होते हुए भी इतना दरिद्र रहा कि सवा सौ साल में अपने लिए एक मौलिक नाम तक नहीं खोज पाया। हॉलीवुड की भोंडी नकल में बॉलीवुड ही बना बैठा है, उसके सारे हिजाब हट गए हैं। वह एक गैंग की तरह ही सामने आ गया है। जहां हैं ऐसी बेजान और बिकाऊ कठपुतलियां, जिनकी डोर किसी और के ही हाथों में रही थी। उनके असल निर्णायक कोई और हैं। मगर इस समय सबके चेहरे उतरे हुए हैं।

सिर्फ सच की बदौलत

Amitabh Bachchan looks back at his 52 years in films: 'Still wondering how it all went by' | Entertainment News,The Indian Express

अभिनय जगत के सफलतम कारोबारी अमिताभ बच्चन किस प्रतीक्षा और किस जलसे में हैं, जिन्हें शब्दों की फिजूलखर्ची करने में माहिर मूर्ख भारतीय मीडिया ने सदी के महानायक के तमगे दिए? किस मन्नत में हैं दोयम दरजे के अदाकार शाहरुख, जिन्हें किंग खान के तख्त पर बैठा दिया गया? और खान तिकड़ी के बाकी बेहूदा चेहरे किधर सरक गए हैं। कपूर खानदान के चमकदार सितारे। सबकी चमक बीते शुक्रवार को फीकी पड़ गई है। हिंदी में बनी एक फिल्म इन सबके बिना भी दुनिया भर में करोड़ों लोगों के दिलों को छू सकती है। सिर्फ सच की बदौलत। उसे न धर्मा की जरूरत है, न कर्मा की! सब धरे रह गए हैं।

अक्षयकुमार और अजय देवगन चाहें तो बॉलीवुड का व्याकरण बदल सकते हैं। वे अपने हिस्से की दौलत और शोहरत उनकी उम्मीदों से अधिक प्राप्त कर चुके हैं। परदे की परछाइयों में उन्हें पाने को अब बहुत कुछ शेष है नहीं। मनोज मुंतशिर जैसे हिम्मतवर नौजवान उसी सच से ताकत पाते हैं, जिस पर सिनेमा में एक साजिश के तहत अब तक पूरी तरह परदा डालकर रखा गया।
प्रतिभा और कला, केवल और सदा अपने ही अभिषेक के लिए नहीं होनी चाहिए। देश को न इस नेरेशन की जरूरत है, न उस नेरेशन की। नेरेशन जो भी हो, राष्ट्र का हित दाएं-बाएं न हो। अभी तो पेंडुलम पूरा ही एक तरफ सरका हुआ है।

वो कौन थे?

Salim Khan Javed Akhtar Hurt By Amitabh Bachchan As He Rejected Their Mr India Both Decided Not To Work With Him Again | pipanews.com

सलीम-जावेद के संयुक्त सौजन्य से सिनेमाई कहानियों में जो रहीम और रहमत चचा, खान और पठान जरूरत के वक्त हीरो के मददगार के रूप में चित्रित किए गए थे वे चित्र से बाहर कश्मीर में कुछ और ही करते हुए नजर आ गए। वर्ना एक लड़की के साथ सामूहिक रेप के बाद आरे से चीरने वाले कौन थे? चावल के ड्रम में अपनी जान बचाने के लिए छिपे निहत्थे आदमी को गोलियों से किसने भून डाला था और वो कौन थे, जिन्होंने खून से सने चावल को घर की औरतों के सामने परोस दिया था? वो कौन थे, जिन्होंने इशारे में बताया था कि निहत्था आदमी छत पर कहां छुपा हुआ है? वो कौन थे, जो लाउड स्पीकरों पर खुलेआम धमका रहे थे? उनके नाम क्या हैं, जो भीड़ में तकबीर के नारे बुलंद कर रहे थे?

सबकी परतें उघड़ रही

कश्मीर कब तक जन्नत था और कब से जहन्नुम हो गया? इसे जहन्नुम बनाने में किन-किन के हाथ लगे? मान लिया कि आतंक का तो कोई मजहब नहीं होता। मगर कश्मीर के इन वहशी चेहरों में एक जैन, एक बौद्ध, एक सिख, एक पारसी, एक यहूदी या एक हिंदू बता दीजिए। सिनेमा के परदे का रहीम और रहमत, खान और पठान कश्मीर में आकर क्या से क्या नजर आया? और सियासत और साहित्य की तरह सिनेमा भी 32 साल से एक शातिर चुप्पी में पड़ा रहा। विधु विनोद चोपड़ा तो खुद एक कश्मीरी हैं, जो दो साल पहले ‘शिकारा’ में लोरी सुनाने निकले थे और पहले ही शो में गालियां खाकर लौटे थे। नेत्रहीन दिव्यांग कहीं के!

सबकी परतें उघड़ रही हैं। सबकी कलई खुल रही है। घातक सेक्युलरिज्म के दुष्प्रभाव अपनी कहानी खुद कह रहे हैं। इंडिया टुडे के कवर किन चेहरों से सजाए गए थे? कौन बड़े ठाट से प्रधानमंत्री से हाथ मिला रहा था? कौन दिल्ली में लाल कालीन सजाए बैठे थे? गंगा-जमनी माहौल कितना शायराना बना दिया गया था? एनडीटीवी की नजर में यह एक प्रोपेगंडा फिल्म है। ये सब मिलकर भारत को एक फरेब में घसीटकर ले गए। बंटवारे की भीषण और भारी कीमत चुकाने के बावजूद इस देश पर किसी को दया नहीं आई। अंतत: यह एकतरफा चाल सिर्फ उन ताकतों को ही भारी नहीं पड़ी, जिनके चेहरे से सत्तर साल बाद नकाब हटे हैं। यह देश के लिए बहुत महंगी साबित हुई। परदे पर तो एक कश्मीर का भोगा हुआ सच सामने आया है। भुक्तभोगी कश्मीरी हिंदू सुशील पंडित कितने मंचों से आगाह करते रहे हैं कि देश में ऐसे पांच सौ कश्मीर तैयार हैं। ये किया धरा किसका है?

आंसू बन बह निकला तीन दशक का दर्द

Kashmir Files: Vivek Agnihotri's film exposes India's new fault lines - BBC News

फिल्में तो बेशुमार बनती हैं। मगर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने फिल्म नहीं बनाई है। उन्हाेंने परदे में छिपे हुए कश्मीर के सच से हिजाब हटा दिया है। तीन दशक का दर्द सिनेमा हाॅल में आंसू बनकर बह निकला है। पिछली बार किस मूवी के दर्शकों को डायरेक्टर के पैरों पर गिरते हुए आपने देखा? कब बिलखती हुई किसी महिला दर्शक ने एक नए नवेले एक्टर को सीने से लगाकर बहुत आगे जाने की दुआएं दीं थीं? कब किसी टीवी चैनल को यह चुनौती देते हुए देखा था कि अगर सिनेमा हॉल में फिल्म के प्रदर्शन में अड़चन आए तो उसका मंच खुला हुआ है? मगर डरे हुए लोगों द्वारा फिल्म को रोकने की याचिका के हाईकोर्ट से खारिज होते ही पहले दिन के तीन सौ स्क्रीन तीन दिनों में 26 सौ हो गए।

हर दर्शक एक कड़क समीक्षक

आम दर्शकों की तीखी प्रतिक्रिया के ये सारेे चौंकाने वाले दृश्य परदे पर फिल्म के द एंड के बाद के हैं। हम देख रहे हैं कि हर दर्शक एक कड़क समीक्षक की भूमिका में आ गया है। तकनीक ने उसे मीडिया का मोहताज नहीं रहने दिया है। न टीवी का, न प्रिंट का। डिजीटल प्लेटफॉर्म पर वह जमकर लिख रहा है। खुलकर बोल रहा है। मीडिया सोया हुआ है। मगर सोशल मीडिया को अनिद्रा का वरदान टेक्नालॉजी ने ही दिया हुआ है। भारत का भोगा हुआ सच अब हजार दरवाजों और लाखों खिड़कियों से झांकेगा। सिनेमा से भी, साहित्य से भी और सियासत से भी। वह हम सबसे हिसाब मांगेगा। सवाल करेगा। आइना दिखाएगा। अक्ल ठिकाने लगाएगा। होश उड़ाएगा। सोचने पर मजबूर करेगा। और हमारे जवाब का इंतजार भी करेगा। अभी तो यह शुरुआत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मध्य प्रदेश राज्य सूचना आयोग में सूचना आयुक्त हैं)