हारे योद्धा मांदों में घुस गए और विजय का वरण करने वाले इतरा रहे।
शिवचरण चौहान।
आम बौरा गए हैं। शीतल सुगन्धित पवन चलने लगी है। गेहूं की बालियां गदराने लगी हैं। कोयल पागल हो गया है। रात दिन कुहुकता घूम रहा है। चुनाव का मौसम खत्म हो गया है। हारे हुए योद्धा अपनी मांदों में घुस गए हैं और विजय का वरण करने वाले इतरा रहे हैं। धूलि वंदन ही गया है। सभी होली का रंग खेल रहे हैं। इनकी होली पहले आ गई! फाल्गुन मस्ती में झूम रहा है। वहीं फाल्गुन जिसे सब फागुन कहते हैं। बसंत ऋतु का पहला महीना और भारतीय संवत्सर का अंतिम महीना। माघ पूर्णिमा के अगले दिन फागुन का आगमन हो जाता है और पूर्णिमा तक खूब धमाल मचाता है। फागुन की पूर्णिमा को होली जलाई जाती है और रस रंग बरसता है।
फागुन में चुनाव का मौसम
फागुन आते ही फाग के स्वर सुनाई देने लगते हैं। ध्रुपद, धमार गाने वाले तो अब रहे नहीं किंतु ढोलक की थाप और फाग अब भी गूंजती हैं। चैत्र ,हिंदू नव संवत्सर का पहला महीना है और बसंत ऋतु का दूसरा। फागुन ने चैत्र से पांच दिन मांग लिए हैं रंग खेलने के लिए। इसलिए चैत्र की रंग पंचमी तक फागुन के रंग बरसते रहते हैं। रंग पंचमी के बाद उत्पाती चैत्र का आगमन हो जाता है।
इस बार फागुन में चुनाव का मौसम भी आया । नेताओं ने एक दूसरे पर खूब कीचड़ उछाला। कुछ भी करना पड़े पर कुर्सी मिल जाए! यही उद्देश्य था। किसी का बुलडोजर चल गया तो किसी की साइकिल टूट गई। हाथी बैठ गया तो पंजा पिस गया। पंजाब में झाड़ू ने सभी के ऊपर झाडू फेर दी।
फागुन गांव में आने न दूंगी…
बसंत, फागुन और होली की ऐसी की तैसी…! जिनके पिया घर आ गए हैं उनकी होली तो खूब रंग बिरंगी हुई पर जिनके प्रियतम प्रदेश में बसे हैं फोन भी नहीं उठा रहे हैं उनकी होली की भी कोई सोचे।
बनारस के गीतकार चंद्रशेखर मिश्र सोचते हैं कि गांव की नायिका फागुन को गांव में आने ही नहीं देना चाहती। ना माघ को जाने देना चाहती है। वह कहती है:
होली बीतेगी जो कोरी हमारी किसी को गुलाल उड़ाने न दूंगी।
माघ को बांध रखूंगी सिवान पे फागुन गांव में आने न दूंगी।
नायिका कहती है कि परदेस गया उसका नायक/पति घर वापस नहीं आया तो वह किसी को होली ही नहीं मनाने देगी। माघ महीने को वह गांव की सीमा में बांध लेगी और फागुन गांव में नहीं आने ही नहीं देगी। अगर उसकी होली कोरी बीती तो फागुन आ ही नहीं पाएगा! चंद्रशेखर मिश्र की नायिका का इतना आत्मविश्वास देखकर अनुसुइया जैसे पतिव्रता स्त्रियां याद आ जाती हैं।
रंग गुलाल उड़ावत फागुन
पेड़ पौधों पर भी फागुन और होली का रंग चढ़ा हुआ है। तितली नाच रही हैं तो भंवरे रगुनगुना रहे हैं देखिए न- आवत नैन नचावत गावत, रंग गुलाल उड़ावत फागुन/ बागन में, घर आंगन में , गालियान में रास रचावत फागुन।। नित प्रीत प्रबंध के छंद नए लिखि, पातिन रोज पठावट फागुन/ आंखिन काजर आंजि के सांझ को बांसुरि फूंक बुलावत फागुन।।
या फिर… फागुन में गुन ऐसो लगावहि कोरी चूनर दाग हमारे। फागुन तो ऐसा रसिया है कि होली में गोरी की कोरी चुनर में भी दाग लगा देता है। लोक कहावत है- फागुन में बाबा देवर लागें।
भोजपुरी में एक लोकगीत है- रामलाल बुढ़वा करे कमाल। फागुन चढ़ल बा देहियां मा।। पिछत्तर साल के रामलाल के शरीर में फागुन का ज्वार हिलोरें मारने लगा है। जड़ चेतन नर नारी कोई भी होली के रंग से नहीं बचता… जब आईं माघ की पांचें। तब बूढ़ी डोकरियां नांचें।।
लला फिर आइयो खेलन होरी
बसंत पंचमी से ही फागुन बौराने लगता है। आम में बौर आने लगते हैं। जैसे आम के वृक्ष अपने सिर पर बौर का मौर सजा कर ब्याह करने के लिए आतुर हो गए हैं। स्वागत में भीनी भीनी सुगंध बिखेर रहे हैं… बननि में बागन में बग्रयो बग् रयो बसंत है।
तुलसीदास भी अछूते नहीं रहते… सबके हृदय मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा।।
रीति कवि पद्माकर भी तो यही गाते हैं-
फाग की भीर अभीरन में गहि गोविंद भीतर लई गई गोरी/ भाय करी मन की पद्माकर ऊपर नाय अबीर की झो री।। खोल पितांबर कंबर ते सुविधा दई मीड कपोलन रोरी/ नैन नचाय , कहयो मुसकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी।।
फागुन में भगवान शिव की महाशिवरात्रि, फुलेरा दूज, आमलका एकादशी, फाल्गुन अमावस और आखिरी दिन फाल्गुन पूर्णिमा को होली मनाई जाती है। होली जलाने के बाद धूलि वंदन यानी धुरेठी, जमघट से रंग पंचमी और रंग सप्तमी तक होली मनाई जाती है। फागुन को पांच दिन चैत्र ने अपने हिस्से से दिए हैं। चना “मटर ,अरहर और गेहूं पकने लगता है। इनकी फलियां और बालियां होली की आग में भूनी जाती हैं। चने का होला खाया जाता है। फागुन नई फसल का भी महीना है। होली रंगों का उल्लास का खुशी का, प्रेम का पर्व है। गुझियां, आलू के पापड़ घर घर बनाए जाते हैं।
सब जग होली, ब्रज में होरा…
वैसे तो बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़, अवध, भोजपुर क्षेत्र बृज सहित सारे भारत में होली मनाई जाती है किंतु ब्रज की होली की छटा तो सबसे निराली है। बरसाने की लट्ठमार होली जिन्होंने नहीं खेली वे होली का असली मजा नहीं जान पाए हैं। सब जग होली, ब्रज में होरा होता है। बृज की गोपियां गाती हैं- ‘रसिया को नारि बनाय दूंगी ,रसिया को।’ बृज की गोपियां तो श्रीकृष्ण को भी गोपी बना देती हैं।
उद्धव से गोपियां कहती हैं कि फागुन तो बीतने जा रहा है किंतु कृष्ण नहीं आए। अगले साल फागुन में कृष्ण आंएगे तो खूब रंग खेलूंगी।
वो जो घर में घुसे बैठे हैं
सेमल के जंगल लाल फूलों से लाल हो गए हैं। पलाश की काली कलियां अंगारों जैसी बनकर फूल गई हैं। शीतल मंद सुगंधित वायु संचरित हो रही है। हर तरफ मस्ती छाई हुई है। शीतल पानी और शीतल वायु तन को शीतलता प्रदान करने लगी है। हर तरफ होली के रंग के चर्चे हैं।
पर पता नहीं कुछ लोगों को क्या हो गया है! घर में घुसे बैठे हैं। जीत कर तो हर कोई होली मनाता है। हार कर भी होली मनाने का मजा ही कुछ और है। तो आइए न होली मनाइए ना… लगवाय लेव हो, लगवाय लेव रंग, बारह बरस मन ताजा रही।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)