प्रमोद जोशी।
पाकिस्तान में इमरान सरकार के सामने परेशानियों के पहाड़ खड़े हो गए हैं। उनके खिलाफ संसद में अविश्वास-प्रस्ताव रखा गया है। उनके विरोधी एकजुट होकर उन्हें हर कीमत पर अपदस्थ करना चाहते हैं। शायद सेना भी ने भी उनकी पीठ पर से हाथ हटा लिया है। पूरे आसार हैं कि संसद में रखे गए अविश्वास प्रस्ताव में वे हार जाएंगे। इमरान सरकार को अभी तीन साल आठ महीने हुए हैं। लगता है कि पाँच साल का पूरा कार्यकाल इसके नसीब में भी नहीं है। विडंबना है कि पाकिस्तान में किसी भी चुने हुए प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है।
इमरान खान की हार या जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण है, पाकिस्तानी व्यवस्था का भविष्य। यह केवल वहाँ की आंतरिक राजनीति का मसला नहीं है, बल्कि विदेश-नीति में भी बड़े बदलावों का संकेत मिल रहा है। इमरान जीते या हारे, कुछ बड़े बदलाव जरूर होंगे। बदलते वैश्विक-परिदृश्य में यह बदलाव बेहद महत्वपूर्ण साबित होगा।
28 को अविश्वास-प्रस्ताव पर वोटिंग
बताया जा रहा है कि 28 मार्च को अविश्वास-प्रस्ताव पर मतदान हो सकता है। इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ ने उसके एक दिन पहले 27 मार्च को इस्लामाबाद में विशाल रैली निकालने का एलान किया है। उसी रोज विरोधी ‘पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट’ की विशाल रैली भी इस्लामाबाद में प्रवेश करेगी। क्या दोनों रैलियों में आमने-सामने की भिड़ंत होगी? देश में विस्फोटक स्थिति बन रही है।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नून और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के करीब 100 सांसदों ने 8 मार्च को नेशनल असेंबली सचिवालय को अविश्वास प्रस्ताव दिया था। सांविधानिक व्यवस्था के तहत यह सत्र 22 मार्च या उससे पहले शुरू हो जाना चाहिए था, पर 22 मार्च से संसद भवन में इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का 48वाँ शिखर सम्मेलन शुरू हुआ है, इस वजह से अविश्वास-प्रस्ताव पर विचार पीछे खिसका दिया गया है।
संसद सत्र की पृष्ठभूमि में चल रही गतिविधियाँ
नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने प्रधानमंत्री इमरान-सरकार के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव पर विचार करने के लिए 25 मार्च को सदन का सत्र बुलाया है। उधर इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का 48वाँ शिखर सम्मेलन पाकिस्तान में 22 मार्च से शुरू हुआ है। इसमें भाग लेने के लिए 57 देशों के विदेशमंत्री पाकिस्तान आए हैं। यह सम्मेलन जहाँ देश और इमरान खान की प्रतिष्ठा के लिहाज से महत्वपूर्ण है, वहीं पृष्ठभूमि में चल रही गतिविधियाँ चिंता का विषय बनी हुई हैं। चीन के विदेशमंत्री वांग यी इसमें शामिल हुए हैं, जिन्हें पाकिस्तान ने विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है। सम्भवतः वे भारत भी आएंगे। इस मौके पर उनकी उपस्थिति भी महत्वपूर्ण है।
इमरान से उम्मीदों का हश्र
इमरान खान जब सत्ता में आए थे, तब देश को उनसे बड़ी उम्मीदें थीं। वे बार-बार कह रहे थे कि सत्ताधारी राजनीति ने देश को लूटा है। पर उनके आने के बाद स्थितियाँ सुधरी नहीं। सामान्य व्यक्ति के जीवन में दिक्कतें बढ़ती गई हैं। देश अराजकता का शिकार है। महंगाई आसमान पर है और नए कर्जे लेकर पुराने कर्जे चुकाए जा रहे हैं। एफएटीएफ की तलवार सिर पर लटकी हुई है। देश की विदेश-नीति भी बड़े बदलाव के रास्ते पर है। उसने चीन के साथ रिश्ते सुधारे हैं, पर अमेरिका और पश्चिमी देशों पर उसका अवलम्बन भी बना हुआ है। अफगानिस्तान में उसकी भूमिका को लेकर अमेरिका नाराज है। बार-बार अनुरोध के बावजूद जो बाइडेन ने इमरान खान से फोन पर बात नहीं की है।
अदालत का हस्तक्षेप सम्भव
सत्र को तीन दिन टालना क्या न्यायसंगत है? बहरहाल इस प्रस्ताव को सदन औपचारिक रूप से विचारार्थ-स्वीकार कर लेगा, तो तीन से सात दिन के भीतर मतदान कराया जाएगा। और टालने की कोशिश की गई, तो मामला अदालत में जाएगा। बागी सांसदों के मताधिकार को लेकर भी अदालती हस्तक्षेप सम्भव है। 342 सदस्यों वाले सदन में प्रस्ताव को पास कराने के लिए 172 वोटों की जरूरत होगी।
इमरान की पार्टी के सदन में 155 सदस्य हैं। उनकी पार्टी सरकार चलाने के लिए अभी तक छह राजनीतिक दलों के 23 सदस्यों का समर्थन ले रही थी। इनमें पाकिस्तान मुस्लिम लीग क़ायदे-ए-आज़म (पीएमएल-क्यू) और मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) प्रमुख सहयोगी दल हैं। दोनों पार्टियों ने सरकार को समर्थन देने के मामले में मौन साध रखा है। यों दोनों पार्टियाँ सरकार के ख़िलाफ़ अपना असंतोष ज़ाहिर कर चुकी हैं। उनका कहना है कि उन्हें सरकार में वाजिब हक़ और अहमियत नहीं मिली। कहा जा रहा है कि मतदान के मौके पर ये दल सरकार के खिलाफ वोट देंगे। इसकी एक वजह यह भी है कि उन्हें लगता है कि इस सरकार को अब सेना का समर्थन हासिल नहीं है। अब उनकी अपनी पार्टी के करीब दो दर्जन सदस्य बागी हो गए हैं।
फौजी प्रतिष्ठान की राजनीतिक-भूमिका
तहरीके तालिबान और बलोच उग्रवादी के संगठनों की गतिविधियाँ बढ़ रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि फौजी प्रतिष्ठान की राजनीतिक-भूमिका बदलती दिखाई पड़ रही है। इमरान खान ने जोश में आकर अपने प्रतिस्पर्धियों को कानूनी दाँव-पेच में फँसा जरूर लिया, पर अब वे खुद इसमें फँस गए हैं। पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) के अध्यक्ष और तीन बार के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के छोटे भाई शहबाज़ शरीफ ने कहा है कि फौजी प्रतिष्ठान राजनीतिक संकट में किसी का पक्ष नहीं ले रहा है।
सरकार बची रही, तब भी उसे आगे ढोना आसान नहीं होगा। पर ज्यादा बड़ा सवाल है कि यदि वह गिरी, तब क्या होगा? सवा साल के लिए क्या नई सरकार बनेगी, या चुनाव होंगे? नई सरकार की आंतरिक और विदेश-नीति से जुड़े तमाम सवाल हैं। सदन में क्या होगा और मतदान कब होगा, इसे लेकर अनिश्चय है। कुछ अनिश्चय सांविधानिक स्थिति को लेकर हैं। सत्तारूढ़ तहरीके इंसाफ पार्टी के कुछ बागी सांसद सरकार के खिलाफ वोट देना चाहते हैं। उन्हें सरकार के खिलाफ वोट देने का अधिकार है या नहीं, इसे लेकर बहस है और एक मामला सुप्रीम कोर्ट में गया है। सम्भव है कि इस बीच कुछ और मामले अदालत में जाएं।
भीतर बाहर बढ़ती नाराजगी
विरोधी दलों ने मिलकर इमरान-सरकार पर हल्ला बोला है। उधर इमरान भी आक्रामक है। उनके बयानों से सेना नाखुश है। सेना की तटस्थता को लेकर उन्होंने कहा है, इंसान पक्ष लेते हैं और ‘केवल जानवर तटस्थ होते हैं।’ लगता है कि फौजी प्रतिष्ठान इमरान से नाखुश है। अमेरिका भी इमरान के नेतृत्व से नाराज है। इमरान खान ने एक से ज्यादा बार कहा है कि हम अमेरिका के गुलाम नहीं है।
हाल में ईयू के राजदूतों ने यूक्रेन की लड़ाई में पाकिस्तान से समर्थन माँगने के लिए एक पत्र लिखा था, जिसपर इमरान ने कुछ कड़वी बातें कही हैं। यह भी कहा जा रहा है कि यूक्रेन के युद्ध के मौके पर इमरान खान को रूस की यात्रा पर नहीं जाना चाहिए था। पश्चिमी देशों की उनसे नाराजगी बढ़ गई है।
भारत के साथ रिश्ते
भारत के साथ रिश्ते भी पाकिस्तान की राजनीति में महत्वपूर्ण होते हैं। पिछले साल पाकिस्तानी सेना ने दोनों देशों के बीच व्यापार की पहल की थी, पर इमरान खान ने पहले उसे स्वीकार करके और फिर ‘यू-टर्न’ लेकर सारे मामले को गड्ड-मड्ड कर दिया। पिछले साल फरवरी में नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी रुकने के बाद से शांति बनी हुई है। हाल में भारत की एक मिसाइल दुर्घटनावश पाकिस्तान में गिरने के बावजूद तनाव नहीं बढ़ा। इससे लगता है कि सैन्य-स्तर पर बैकरूम सम्पर्क बेहतर काम कर रहा है।
(लेखक ‘डिफेंस मॉनिटर’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)