कबीर के राम को जिसने समझ लिया वह राम का हो गया।
शिवचरण चौहान।
कबीर के राम लोकनायक नहीं हैं। कबीर के राम जननायक नहीं हैं। कबीर के नाम बाल्मीकि के राम नहीं हैं। कबीर के राम गुणहीन नहीं हैं- गुणातीत हैं। साकार नहीं निराकार हैं। कबीर के राम दशरथ के पुत्र भर नहीं हैं। कबीर के राम सभी के हृदय में निवास करते हैं- ‘एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में लेटा/ एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा/ सब में रमै रमावई सोई, ताकर नाम राम अस होई/ घाट घाट में राम बसत है, बिना ज्ञान नहि देइ दिखाई।’
सबके हृदय में बसे राम
कबीरदास के राम तो सबके हृदय में बसे हैं। वह न तो राजाराम हैं न दशरथ के पुत्र। उनके राम तो निराकार हैं गुणातीत हैं । कबीरदास का जन्म सन 1397 में काशी में हुआ था। उन दिनों विदेशी आक्रमणकारी भारत में कब्जा जमाए बैठे थे और हिंदू धर्म पर अत्याचार हो रहे थे। लोगों को जबरदस्ती इस्लाम धर्म अंगीकार करवाया जाता था। उन्हीं दिनों आचार्य रामानंद काशी में धर्म प्रचार कर रहे थे। रामानंद बहुत श्रेष्ठ विद्वान थे। कबीर ने उन्हें ही अपना गुरू स्वीकार किया।
कबीर की रचनाएं पढ़ने पर लगता है कि वह अद्भुत विद्वान थे। कबीर ने गहन अध्ययन, मनन और सत्संग किया था। आज से छह- साढ़े छह सौ वर्ष पहले जब कबीर का जन्म हुआ- से लेकर आज तक- कबीर जैसा विद्वान नहीं पैदा हुआ। उस समय जात पात, धर्म संप्रदाय के झगड़े आम बात थी। हिंदू मुसलमान में ऊंच-नीच के झगड़े होते रहते थे। ऐसे समय में कबीर ने सभी को सच्ची राह दिखाई।
कबीर उस समय के पहले व्यंग्यकार हैं जिन्होंने अपने व्यंग्य बाणों से किसी को भी नहीं बख्शा। ऐसी खरी खरी बातें लिखीं-सुनाईं और कहीं कि लोग विरोध तक नहीं कर पाये। न हंस पाए- न रो पाए।
ताको करो विचार
‘चार राम है जगत में तीन राम व्यवहार, चौथ राम सो सार है ताको करो विचार’- जो राम सार रूप है उस पर भी विचार करो। ‘जाति जुलाहा मति को धीर, सहज सहज गुन रमै कबीर/ भारी कहूं तो बहु डरूं हल्का कहूं तो झूंठ, मैं क्या जानू राम कू आखिन कभूं न दीख’ …कबीर कहते हैं मैंने राम को तो नहीं देखा फिर मैं कैसे कह दूं कि राम कैसा है? मैं तो मंदमति जुलाहा हूं। पढ़ा लिखा हूं नहीं तो मैं राम का गुण कहां से वर्णन कर पाऊंगा? ‘मसि कागद छूओ नहीं कलम गही नहि हाथ’ मैंने स्याही और कागज को छुआ और कलम को हाथ में नहीं पकड़ा।
‘कबीर कूता राम का मोतिया मेरा नाम, गले राम की जेवडी, जित खींचे तित जाऊ।’ …मैं तो राम का कुत्ता हूं मोती मेरा नाम है। मेरे गले में राम नाम की जंजीर पड़ी है। उधर ही चला जाता हूं जिधर वह ले जाता है। ऐसे बंधन में मौज ही मौज है।
पत्थर पूजे हरि मिले…
कबीर ने बहुत तीखे व्यंग्य किए। जाति पाति, आडंबर अंधविश्वास, मूर्ति पूजा, पाखंड का जमकर विरोध किया- ‘पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहाड़, तासे यह चकिया भली, पीस खाय संसार/ निरगुन बाह्मन न भला गुरु मुख भला चमार, देवतन से कुत्ता भला, नित उठ भूंके द्वार।’ जिस ब्राह्मण को कुछ ना आता हो उससे तो चमार भला। उन देवताओं को पूजने से क्या फायदा जो आपकी रक्षा ना करें। उससे तो कुत्ता भला जो एक रोटी खाकर आपके दरवाजे की रक्षा करता है। कहते हैं इस दोहे पर कश्मीर में बवाल हो गया था।
कबीर छह सौ साल पहले भी प्रासंगिक थे और आज भी प्रासंगिक हैं। जाति पात, धर्म आडंबर, ऊंच-नीच, हिंदू मुस्लिम विवाद, चोरी बेईमानी, छल कपट, धोखा- तब भी समाज में था और आज भी समाज में उसी तरह व्याप्त हैं। इसलिए कबीर आज भी प्रासंगिक हैं।
हमको मिला जियावन हारा
कबीर के समय तुलसीदास तो थे नहीं। कबीर के पूर्व वाल्मीकि की रामायण थी। बाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग आता है कि जब राम की लीलाएं खत्म हो गयीं तो एक दिन तपस्वी के भेष में एक युवक आया। उसने राम से अकेले में कहा आपने अपनी लीला से मुझे काल स्वरूप प्रदान किया था। अब आपका धरती का कार्यकाल पूरा हो चुका है। अब आपको नश्वर शरीर त्यागना पड़ेगा। तुलसीदास ने कहा- ‘तेहि अवसर इक तापस आवा/ तेज पुंज लघु बयस सुहावा।’ राम दुखी हुए, विचलित हुए किंतु उन्हें परमधाम वापस जाना पड़ा।
कबीर के राम अजन्मा है मरते नहीं हैं- ‘हम ना मरौं मरय संसारा, हमको मिला जियावन हारा।’ जिस राम का जन्म ही नहीं होता वह मरेगा कहां से? राम तो अजर अमर अविनाशी अजन्मा, निराकार हैं। ऐसा राम जिसको मिल जाए वह भी अजर अमर ही तो होगा।
पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को अजर अमर कर दिया है। द्विवेदी जी ने कबीर की रचनाएं खोजी हैं और उन पर अपनी व्याख्याएं दी हैं। भारत के और विदेश के अनेक विद्वानों ने कबीर के साहित्य पर शोध किए हैं और पाया है कबीर अप्रतिम कवि, समाज सुधारक और विचारक हैं। कबीर सदियों पहले जितने प्रासंगिक थे उतने आज भी हैं। कबीर के राम को जिसने समझ लिया वह राम का हो गया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)