चंद्रकला त्रिपाठी।
हिंदी के वरिष्ठतम, बहुआयामी और सर्वाधिक निर्विवादित साहित्यकार रामदरश मिश्र को सरस्वती सम्मान से विभूषित किया गया है। मिश्र जी से एक आत्मीय मुलाकात में मैंने पूछा था- आपके रचना संसार में पानी की बड़ी प्रबल उपस्थिति है। उन्होंने पानी के उजाड़ने और बसाने वाले जीवनानुभवों की ओर खिड़की खोल दी। सुधियां अपनी तरलता लिए चली आईं। उनका गांव नदी के किनारे था मगर नदी ऐसी कि वह बाढ़ के किनारे का गांव हुआ जैसे। यह बहुत कठिन अनुभव तो होता ही है मगर जिजीविषा के बल का भी होता है। हंसे थे वे। बोले, देखो दिल्ली रहने आया तो यहां भी पानी ने चारो तरफ से घेर लिया था। पूरी गृहस्थी बच्चे लेकर छत पर खुले में रहा। आकाश की छत के नीचे…।
रामदरश मिश्र की कविताओं में भी जल के काटते हराते बिंब हैं, बन खंडी है, हरियाई सूखी प्रकृति है। फसलें ऋतुओं को पहन कर खड़ी हैं। इसके बरक्स शहर के सांचे में फंसे जीवन की विसंगतियों से उभरती उदासी है।
अनवरत रचनाशीलता
बसंत वहां बंद कमरों में नहीं आता। हवाएं बेपरवाह बहें, ऐसी उन्मुक्तता चाहती हैं।
अनवरत रचनाशीलता के रचनाकार हैं रामदरश मिश्र। उनकी रचना यात्रा लंबी रही है। नयी कविता के नयी कहानी के दौर के बाद का दौर है यह। प्रगतिशील आंदोलन से मूल्य ग्रहण करता हुआ। मिश्र जी के युवा स्वर में प्रगीतात्मक तरलता थी। कहानियों में मनुष्य की क्षमता के प्रति विश्वास और देशज के अनुभव की प्रगाढ़ता तो थी ही। एक गीत में लिखा था उन्होंने- ‘हम पूरब से आए हैं…।’
लोक से गहरा जुड़ाव
लोक से गहरे जुड़ाव ने उनमें साहित्य की मर्मस्पर्शिता के प्रति विश्वास से भर दिया था। नयी बदलती दुनिया में मनुष्य के संघर्ष के तमाम रूप लिए उनके उपन्यास कहानियां सामने आईं। पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, सूखता तालाब, आकाश की छत, आदिम राग जैसे कितने ही उपन्यास इस ज़मीन के हुए। इनमें मौजूद यथार्थ की नवैयत धूसर जीवन के सौंदर्य से भरपूर है। कहानियां तो सौ से अधिक हैं और सब बहुत पढ़ी गई हैं। यात्रा वृत्तांत , संस्मरण, आलोचना और कविताएं सब मिलकर यह कह जाते हैं कि यह हर सांस से पल कर बसा हुआ संसार है।
मनुष्य एक पारदर्शी रचना
इन रचनाओं के साथ साथ उनकी आत्मकथा बहुमूल्य है। उसकी वस्तुनिष्ठता के क्या कहने! उसके सारे खंड ‘सहचर है समय’ में आए हैं। आज़ाद भारत की जीवन छवियों का एक जीवंत संसार इन रचनाओं में बसा हुआ है। ऐसी रचनात्मक संलग्नता बहुत बेजोड़ है। जीवन में कितने झंझावात आए। पीड़ाएं आईं। अभावों की भी अपनी दखल तो थी ही मगर दिल में कहीं एक हठी किसान बसता है। सौंदर्यचेता और जिज्ञासु है वह। सुंदरता उनके लिए भावनात्मक सरल प्रतीति है। बौद्धिक खुरपेंचों में फंसा हुआ शिल्प उन्हें छल लगता है। कभी कभी अन्यत्र दिखते उस भारी के प्रति उनका परिहास देखने सुनने लायक है। ऐसी रचना पीढ़ियों का श्रम देखा तो है उन्होंने।
उनके यहां खूब प्रत्यक्ष बोलने वाला संसार मिलता है। गूढ़ या गुह्य नहीं। मनुष्य एक पारदर्शी रचना है। उसकी तकलीफें भी गुम नहीं हैं और उसकी नालिशों में प्रकृत प्रगाढ़ता है। देह से, मन से और कार्यकलाप से वह पूरा ज़ाहिर है। पाठकों के लिए यह बहुत परिचित स्पंदित संसार भी है।
‘मैं वह जल हूं’
उनकी भाषा में जब भी जीवन को मुश्किल बना देने वाले आर्थिक राजनीतिक तंत्र की प्रवृत्तियों की आलोचना आती है, वे उनके लिए एक बहुत संवेदी चेतावनी देते दिखाई देते हैं और मनुष्य की शक्ति के बारे में बार बार कहते हैं। इससे उन्हें प्यार है।
उनकी दीर्घ कविता है- समय देवता। इस कविता का अंत पढ़िए-
वहां कहा जा रहा है कि
मैं तो वह जल हूं
जो भवर बन कर क्षण भर के लिए कहीं ठहरा भी
तो दूसरे क्षण फिर बह निकला…।
तो प्रवाह का यह जीवन ही उनका चुनाव है। इस जीवन में वंचितों के प्रति करुणा है तो शोषितों के लिए धिक्कार है भरपूर।
(लेखिका जानी मानी साहित्यकार हैं)