कैसे एक परिवारवादी पार्टी का क्षरण होता है, विनाश होता है और वह नष्ट होती है।
प्रदीप सिंह।
परिवारवादी पार्टियों का क्या हश्र होता है और क्या हश्र होने वाला है, इस बात को अगर समझना है तो तेलुगू देशम पार्टी इसका सबसे ताजा और सबसे अच्छा उदाहरण है। तेलुगू देशम का गठन 40 साल पहले 1982 में हुआ था। 29 मार्च, 1982 को तेलुगू फिल्मों के सुपरस्टार एनटी रामा राव, जो ज्यादातर धार्मिक फिल्मों में धार्मिक पात्रों का रोल करते रहे उनकी एक छवि बनी हुई थी, उन्होंने इस पार्टी के नाम की घोषणा की। उस समय इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया, खासकर कांग्रेस ने जिसका आंध्र प्रदेश सहित पूरे देश में वर्चस्व था। एनटीआर ने मुद्दा बनाया तेलुगूप्राइड का, तेलुगू लोगों के आत्मसम्मान का। इसका कारण था कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रदेश का बार-बार मुख्यमंत्री बदला जाना।
हिंदुस्तान की अकेली पार्टी…
मैंने इस बारे में पहले भी लक्ष्मण के कार्टून के हवाले से बताया था।मशहूर कार्टूनिस्ट लक्ष्मण का टाइम्स ऑफ इंडिया में एक कार्टून छपा था जिसमें यह दिखाया गया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर जहाज से उतरती हैं और कांग्रेस के सारे विधायक लाइन में खड़े हैं जिसका वह मुआयना कर रही हैं। जैसे परेड का मुआयना किया जाता है उस तरह से कर रही हैं। एक जगह रूकती हैं और एक विधायक से कहती हैं “यू विल बी द नेक्स्ट सीएम ऑफ आंध्र प्रदेश (आप आंध्र प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री होंगे)”। उसके बाद उससे नाम पूछती हैं। यह खबर दूसरे दिन अखबारों में बड़ी प्रमुखता से छपी कि वो जिसको मुख्यमंत्री बनाने जा रही हैं उसका नाम भी उस समय उनको पता नहीं था। उस समय जो मुख्यमंत्री बने उनका नाम था टी इलैया। इसको लेकर कि तेलुगू लोगों का अपमान हुआ है, उनके स्वाभिमान को चोट पहुंची है,एनटी रामाराव ने पार्टी बना ली। इसके बाद जून 1982 में उन्होंने एक रथ बनवाया जिसका नाम था चैतन्य रथम, उससे पूरे प्रदेश का दौरा किया। जनवरी 1983 में हुए चुनाव में उनकी पार्टी की बंपर जीत हुई। यह हिंदुस्तान की अकेली ऐसी पार्टी है जो बिना किसी आंदोलन के, लंबे समय तक संघर्ष किए बिना, बिना लंबे समय तक संगठन बनाए, बिना इस तरह का इंतजाम किए हुए कि उसके कार्यकर्ता हों, कैडर हों, सत्ता में आ गई। वह भी सात महीने में। यह अपने आप में बहुत बड़ा उदाहरण है।
कभी चैन से सत्ता का सुख नहीं भोग पाए एनटीआर
उस आंध्र प्रदेश का बंटवारा नहीं हुआ था। 294 सदस्यीय विधानसभा में तेलुगू देशम पार्टी ने 201 सीट जीती। लेकिन एनटीआर का राजनीतिक सफर बड़ा रोलर कोस्टर रहा। वो कभी चैन से सत्ता का सुख नहीं भोग पाए या कहें कि शासन नहीं कर पाए। 1983 में चुनाव जीते और 1984 में हृदय का ऑपरेशन करवाने अमेरिका चले गए। इसी बीच उनके साथी एन भास्कर राव ने कांग्रेस से मिलकर विद्रोह कर दिया, कुछ विधायकों को तोड़कर सरकार बना ली। हालांकि, उनके पास बहुमत नहीं था लेकिन चूंकि गवर्नर उनका था, गवर्नर ने टीडीपी सरकार को बर्खास्त कर दिया। उस समय रामलाल गवर्नर थे। एनटीआर अमेरिका से लौट कर आए। खराब स्वास्थ्य के बावजूद फिर से चैतन्य रथम पर सवार हुए और पूरे प्रदेश का दौरा किया। इसके बाद बीजेपी, जनता पार्टी, लेफ्ट पार्टी, डीएमके, सब एनटीआर के समर्थन में आ गए। वह अभूतपूर्व दृश्य था जब प्लेन से, ट्रेन से और सड़क के रास्ते तेलुगू देशम के विधायक और नेता आंध्र प्रदेश से दिल्ली के लिए चले, राष्ट्रपति के सामने विधायकों की परेड करवाने के लिए। उस समय ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे। उनके सामने विधायकों की परेड हुई। पूरे देश में ऐसा माहौल बना कि मजबूरन राष्ट्रपति को आदेश देना पड़ा तेलुगू देशम की सरकार को बहाल करने का और गवर्नर रामलाल को वापस बुलाना पड़ा। शंकर दयाल शर्मा नए गवर्नर के रूप में आंध्र प्रदेश भेजे गए।
दामाद ने की बगावत
इस घटना का भारत की राजनीति पर बड़ा असर पड़ा। टीडीपी की सरकार तो बहाल हो गई लेकिन एनटीआर को लगा कि कुछ लोगों ने उनके साथ धोखा किया था, विद्रोह किया था तो 1985 में उन्होंने विधानसभा भंग कर चुनाव करवा दिया। इस बार फिर से वे चुनाव जीते। इस बार उन्होंने कुछ छोटी पार्टियों से गठबंधन किया था तो तेलुगू देशम ने 250 सीटों पर ही चुनाव लड़ा और उसमें से 202 सीटें जीतने में सफल रही। फिर से एनटीआर की सरकार बन गई।इस चुनाव से पहले 1984 में यह हुआ जब कांग्रेस की प्रचंड लहर थी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, पूरे देश में सहानुभूति लहर थी जिसमें तमाम पार्टियों का सफाया हो गया था, उस लहर में भी आंध्र प्रदेश की 42 लोकसभा सीटों में से 30 सीटें तेलुगू देशम पार्टी ने जीती। तेलुगू देशम ने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और पहली बार में ही सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन गई। इस तरह की अभूतपूर्व वृद्धि मुझे नहीं लगता है कि किसी और पार्टी का हुआ होगा। लेकिन एनटीआर के साथ फिर समस्या हो गई। उनके कई फैसले बड़े अलोकप्रिय हो गए तो 1989 में वे चुनाव हार गए लेकिन 94 में फिर जीते। 1989 से जब तक वे जीवित रहे राष्ट्रीय राजनीति में उनकी बड़ी भूमिका रही। उसके बाद उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू की राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका रही। 1994 में जब एनटीआर दोबारा जीते, इस बार विद्रोह करने की बारी आई उनके दामाद और उनके सबसे विश्वस्त चंद्रबाबू नायडू की।
अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही 39% वोट पाने वाली पार्टी
दरअसल, हुआ यह था कि 1985 में एनटीआर की पहली पत्नी का देहांत हो गया था। उसके बाद उन्होंने फिल्म अभिनेत्री लक्ष्मी पार्वती से शादी कर ली।चंद्रबाबू नायडू को लगा कि लक्ष्मी पार्वती पार्टी पर कब्जा करना चाहती हैं, इसलिए उन्होंने विद्रोह कर दिया। 190 से ज्यादा विधायकों को तोड़कर सरकार बना ली और मुख्यमंत्री बन गए। इस घटना के चार महीने बाद एनटी रामाराव की मृत्यु हो गई और चंद्रबाबू नायडू तेलुगू देशम पार्टी के सर्वे-सर्वा हो गए। उसके बाद 2004 के चुनाव से एक साल पहले कांग्रेस के राजशेखर रेड्डी ने पूरे प्रदेश का दौरा किया। गांव-गांव में जाकर फिर से कांग्रेस का संगठन खड़ा किया। रेड्डी 2004 में चुनाव जीते और 2009 में भी जीते। दस साल तक सत्ता से बाहर रहने के बाद 2014 के चुनाव में चंद्र बाबू नायडू को समझ में आ गया कि अकेले जीतना मुश्किल है तो उन्होंने बीजेपी से समझौता कर लिया। उनके इस फैसले ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया क्योंकि जब बीजेपी का साथ उनके कई साथी छोड़ रहे थे जिनमें सबसे आगे नीतीश कुमार थे, तब चंद्रबाबू नायडू बीजेपी के साथ आ गए। बीजेपी, तेलुगू देशम पार्टी और तेलुगू अभिनेता पवन कल्याण की पार्टी का गठबंधन हुआ और चंद्रबाबू नायडू फिर से सत्ता में आ गए। 2019 में नायडू फिर से बुरी तरह से हार गए। इस बार जगनमोहन रेड्डी ने हराया। हारने के बावजूद तेलुगू देशम को 39 प्रतिशत वोट मिले थे। 2019 में 39 प्रतिशत वोट पाने वाली पार्टी आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं।
चंद्रबाबू नायडू की यह कसम…
2019 के बाद ऐसा कोई चुनाव नहीं हुआ है, चाहे वह लोकसभा का उपचुनाव हो या विधानसभा का उपचुनाव हो या फिर पंचायत चुनाव हो या स्थानीय निकाय चुनाव हों, हर चुनाव में टीडीपी हारी है। सिर्फ हारी ही नहीं है, उसका बुरी तरह से सफाया हुआ है। चंद्रबाबू नायडू इस समय 72 साल के हैं। 2024 में जब विधानसभा और लोकसभा का चुनाव होगा उस समय उनकी उम्र 74 साल हो जाएगी। उनकी पार्टी का कैडर निरुत्साहित है। इसके पीछेकी वजह क्या है? इतनी जनाधार वाली पार्टी, 21 साल तक सत्ता में रहने वाली पार्टी, 40 साल पुरानी पार्टी के 21 साल सत्ता में रहने के बावजूद यह स्थिति क्यों आ गई। दरअसल, चंद्रबाबू नायडू ने कोई सेकंड रैंक लीडरशिप तैयार नहीं की। अपने बेटे को ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाना चाहा। उसका नतीजा यह हुआ कि मतदाताओं की बात तो छोड़िए, तेलुगू देशम का कैडर ही उनके बेटे को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ।इसका नतीजा यह हुआ कि आज उनके पास दूसरी पीढ़ी का कोई नेता नहीं है। विधानसभा में अपमान होने के बाद चंद्रबाबू नायडू ने यह कसम खाई थी कि विधानसभा में लौट कर वे तभी आएंगे जब वे जीतकर आएंगे और मुख्यमंत्री बनेंगे। मुझे लगता नहीं है कि अब वे मुख्यमंत्री बन पाएंगे क्योंकि उनकी पार्टी की जो स्थिति है वह ऐसी है कि पिछले चुनाव में जो 39% वोट मिला था उससे बहुत कम होने जा रहा है।
ऐसी दुर्गति के कारण
चंद्रबाबू नायडू और उनकी पार्टी भारतीय राजनीति का सबसे अच्छा उदाहरण है कि कैसे एक परिवारवादी पार्टियों का क्षरण होता है, विनाश होता है और वह नष्ट होती है। इसका सबसे बड़ा कारण यह होता है कि वह उत्तराधिकारी के रूप में अपने परिवार से बाहर देखने को तैयार नहीं होती है। जब आप अपने परिवार से बाहर देखने को तैयार नहीं होते हैं तो आप ताश के खेल जैसा ब्लाइंड खेलते हैं। आप अपने परिवार के जिस सदस्य को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं उसे लोग स्वीकार करते हैं या नहीं, उसमें नेतृत्व की क्षमता है या नहीं, यह सब देखे बिना जब आंख बंद करके सिर्फ यह देखते हैं कि मेरा बेटा है, मेरी बेटी है, मेरा दामाद है या मेरी पत्नी है, मेरा पति है, इसके आधार पर जब आप फैसला करते हैं तो वही होता है जो इस समय तेलुगू देशम पार्टी का हो रहा है। वही होता है जो कांग्रेस का हो रहा है, वही होता है जो आने वाले निकट भविष्य में आरजेडी का और समाजवादी पार्टी का होने वाला है। आरजेडी में भी सेकंड रैंक की लीडरशिप नहीं है। लालू प्रसाद यादव ने अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया है। मुलायम सिंह यादव ने अपने सक्रिय रहते ही अपने बेटे को सत्ता सौंप दी। नतीजा यह है कि बेटा दस साल में चार चुनाव हार चुका है। जब तक आपके पास सेकंड रैंक की लीडरशिप नहीं होगी, जब तक पार्टी में कई नेता न हों, अलग-अलग समाज के अलग-अलग क्षेत्र के न हों, तब तक किसी पार्टी को लंबे समय तक बनाए रखना बड़ा मुश्किल होता है। तेलुगू प्राइड के नाम पर जो पार्टी बनी, सत्ता में आई और इतने लंबे समय तक सत्ता में रही, उसका जो सर्वोच्च नेता है आज वह अपनी प्राइड, अपना आत्म-सम्मान बचाने में नाकाम है।
परिवार के आधार पर राजनीतिक विरासत
जितनी भी पार्टियां परिवार के आधार पर चल रही हैं, जहां राजनीतिक विरासत तय होती है बर्थ सर्टिफिकेट या मैरिज सर्टिफिकेट से, वहां यही नौबत आने वाली है। किसी के साथ जल्दी तो किसी के साथ देर से। परिवारवादी पार्टियों के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो मुहिम शुरू की है वह ऐसे ही नहीं शुरू की है। उनको दिखाई दे रहा है, उनको समझ में आ रहा है कि जो पार्टियां इस समय मैदान में है उनमें कांग्रेस को छोड़कर सभी क्षेत्रीय दल हैं। उनमें लीडरशिप की समस्या हैजो आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। तमिलनाडु में डीएमके इसलिए सफल हो गई क्योंकि करुणानिधि ने अपने जीवित रहते ही अपना राजनीतिक वारिस तय कर दिया था। वहां कोई कंफ्यूजन नहीं था और उसको लोगों ने स्वीकार कर लिया था। पहले तो पार्टी नेतओं और कैडर को स्वीकार करना होता है, मतदाता की बारी तो बाद में आती है। पार्टी ने अगर स्वीकार कर लिया तो फिर आप लड़ाई में आ जाते हैं। डीएमके के साथ यही हुआ, एमके स्टालिन के साथ यही हुआ। लेकिन यह कितने समय तक रहेगा यह कहना मुश्किल है। परिवारवादी पार्टियों की यह जो नीति है कि अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को दे, वह उनको रसातल की ओर ले जाती हैं। पार्टियां बनती है किसी और मुद्दे पर, सिद्धांत पर, किसी नीति पर,किसी नारे पर और आखिर में जब वह परिवार की गिरफ्त में आ जाती है, परिवार ही पार्टी बन जाता है तब फिर समस्या शुरू होती है।
अपवाद मिलना मुश्किल
इसमें कोई अपवाद मिलना मुश्किल है, सिर्फ समय का फर्क होता है। किसी एक पार्टी के मामले में समय जल्दी आ जाता है और दूसरी पार्टी के मामले में समय थोड़ा देर से आता है। वह समय देर से इसलिए आता है कि पार्टी कैडर ने अगर दूसरी पीढ़ी के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है तो वह लड़ाई में बना रहता है। जीत जाएगा इसकी गारंटी तभी होती है जब मतदाता भी स्वीकार कर लेता है। तेलुगू देशम का सबक सबके सामने है। जब तक किसी भी पार्टी के नेतृत्व के मन में यह भाव रहेगा कि परिवार के हाथ में ही पार्टी रहे, तब तक पार्टी का उभरना, उठना, खड़े होना, लड़ाई में आना बड़ा मुश्किल है। जो सीखना चाहे उनके लिए सबक सामने है। जो दूसरों के अनुभव से नहीं सीखना चाहते वे अपने अनुभव से सीखने के लिए अभिशप्त हैं।