डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
भारत के लगभग हर शहर में डाक्टर भीमराव रामजी आम्बेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 1956) की मूर्तियाँ लगीं हैं। परन्तु उनकी एक मूर्ति ब्रिटेन में लन्दन स्कूल ऑफ इकनोमिक्स (London School of Economics) में भी लगी है। लन्दन स्कूल ऑफ इकनोमिक्स (LSE) विश्व की प्रतिष्ठित शिक्षण एवं शोध संस्थान है। बाबासाहेब आम्बेडकर ने इसी संस्था से अपनी पहली Ph.D. की थी। उन्होंने अपनी दूसरी Ph.D. अमेरिका की Columbia University से की थी।
डाक्टर भीमराव रामजी आम्बेडकर कभी भी लन्दन स्कूल ऑफ इकनोमिक्स में प्रोफेसर नहीं रहे। वह वहाँ केवल एक छात्र थे और एक शोधार्थी थे। वहाँ उनकी मूर्ति का लगना हर भारतीय के लिए गौरव की बात है।
महाराजा बड़ौदा का योगदान
बहुत से पाठक यह जानना चाहेंगे कि आम्बेडकरजी (1891-1956) अमेरिका और ब्रिटेन कैसे पहुंचे। यह तो सभी जानते हैं कि उनका जन्म भारत में एक अछूत परिवार में हुआ था। परन्तु शैक्षिक योग्यता के मामले में उनकी प्रतिभा इतनी अधिक थी, जो कि विश्व में आसानी से ढूँढे नहीं मिलती। उन्होंने भारत और विश्व में जो ऊँचाइयाँ छुईं, उसमें महाराजा बड़ौदा (Maharaja Sayajirao Gaekwad III 1875-1939) का बहुत योगदान है। महाराजा बड़ौदा ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें सन् 1913 में स्कालरशिप दी थी ताकि वह विदेश जा कर अपनी पोस्ट ग्रैजुएट पढ़ाई कर सकें। उस समय उनकी आयु 22 वर्ष थी और वह बम्बई यूनिवर्सिटी से B.A. कर चुके थे। इस स्कालरशिप की राशि उस समय ब्रिटिश करेंसी में साढ़े ग्यारह पाउंड प्रति माह थी। यदि भारतीय मुद्रा में आज की स्थिति में इसे देखा जाए तो यह स्कालरशिप लगभग साढ़े ग्यारह सौ रुपए प्रति माह थी। यह स्कालरशिप तीन वर्ष के लिए थी। आम्बेडकरजी ने इसी स्कालरशिप के बलबूते पर जून 1915 में Columbia University में M.A. की परीक्षा पास की। M.A. में उनके शोध प्रबन्ध का विषय था: Ancient Indian Commerce।
भारत लौटना पड़ा
MA करने के बाद वह ब्रिटेन आए और वर्ष 1916 में में उन्होंने बैरिस्टर अर्थात कानून की पढ़ाई के लिए लन्दन में Gray’s Inn में दाखिला लिया और London School of Economics में भी दाखिला लिया।
सन् 1917 में उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़ कर भारत लौटना पड़ा, क्योंकि उनकी महाराजा बड़ौदा की स्कालरशिप की तीन वर्ष की अवधि समाप्त हो चुकी थी। और स्कालरशिप की शर्त के अनुसार उन्हें बड़ौदा राज्य में कार्य करना अनिवार्य था। भारत लौटने पर बड़ौदा के महाराजा ने उनको अपने राज्य में सैन्य सचिव के पद पर रखा। परन्तु वह वहाँ अधिक समय टिक न सके और उनका वहाँ का अनुभव अच्छा नहीं रहा। बाद में उन्होंने प्राइवेट ट्यूशन किए। एकाउंटेंट का भी काम किया। कोल्हापुर के महाराजा शाहूजी की सहायता से ‘मूकनायक’ शीर्षक से अखबार भी निकाला।
उन्होंने अपने आगे के जीवनकाल में कुछ और अखबार भी निकाले जिनके नाम हैं: प्रबुद्ध भारत, बहिष्कृत भारत और जनता। इन अखबारों के नाम ही इनमें छपने वाली सामग्री की ओर इशारा करते हैं।
डॉक्टरेट की दो दो डिग्रियां
सन् 1920 में आम्बेडकर ब्रिटेन लौट गए और उन्होंने अपनी बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी की। लन्दन यूनिवर्सिटी के LSE में अपनी डोक्टोरल थीसिस जमा की। थीसिस का शीर्षक था The Problem of the Rupee। वर्ष 1923 में उन्हें DSc की डिग्री एवार्ड हुई। उन दिनों LSE में Ph.D. नहीं बल्कि D.Sc. की डिग्री दी जाती थी।
बाद में सन् 1927 में अमेरिका की Columbia University ने उनकी थीसिस The Evolution of Provincial Finance in British India पर उन्हें Ph.D. की डिग्री एवार्ड की।
The Evolution of Provincial Finance in British India के पुस्तक रूप में प्रकाशित होने पर आम्बेडकर ने उसे महाराजा बड़ौदा (Maharaja Sayajirao Gaekwad III) को समर्पित किया।
यह विवरण बताता है कि आम्बेडकर के नई ऊँचाइयाँ छूने में महाराजा बड़ौदा का विशेष योगदान था और वह इस योगदान को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी करते थे।
Jennings थे नेहरू की पसंद
आज आम्बेडकर भारत के संविधान के निर्माता के तौर पर जाने जाते हैं। वास्तव में वह संविधान के ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन थे।
पंडित जवाहर लाल नेहरू का सुझाव था कि संविधान बनाने के लिए Sir Ivor Jennings की सेवाएं ली जाएं। यह सुझाव महात्मा गांधी को पसंद नहीं था और उन्होंने अंबेडकरजी का नाम सुझाया। यह बात H.V Hande की पुस्तक ‘Ambedkar and the making of the Indian constitution’ के पृष्ठ संख्या 21 पर कही गई है। यह पुस्तक वर्ष 2009 में MacMillan Publishers India Ltd. ने प्रकाशित की थी।
हमारे संविधान की खूब आलोचना की Jennings ने
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। मद्रास यूनिवर्सिटी ने Sir Ivor Jennings को भारतीय संविधान पर लेक्चर देने के लिए सन् 1951 में आमंत्रित किया था। तब उस अवसर पर Sir Ivor Jennings ने हमारे संविधान की खूब आलोचना की थी और कहा था कि यह बहुत लम्बा संविधान है और बहुत कठिन भी है। कठिन से उनका मतलब था कि इसमें आसानी से संशोधन नहीं हो सकता है।
आज हमारा संविधान 72 वर्ष की उम्र पार कर चुका है। यह दुनिया के उन आठ-दस देशों के संविधानों में से एक है जो कि इतनी अधिक उम्र के हैं। ब्रिटेन का संविधान अलिखित है। लिखित संविधानों में सबसे पुराना संविधान अमेरिका का है। भारत का संविधान विश्व का सबसे लम्बा संविधान है और पिछले 72 वर्षों में यह एक सौ से अधिक बार संशोधित हो चुका है।
यहाँ यह तथ्य भी बता देना जरूरी है कि पिछली शताब्दी में साठ के दशक के दौरान Sir Ivor Jennings की सलाह से श्रीलंका का संविधान बना। और वह संविधान सिर्फ छह साल चल सका।
(लेखक ने लगभग पन्द्रह वर्ष महाराजा सायाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा में प्रोफेसर के पद पर कार्य किया)