‘कृष्ण आ गया है’

नरेंद्र कोहली।
देवकी चौंक कर उठ बैठीं।
वसुदेव अपनी नींद पूरी कर चुके थे, किंतु अभी लेटे ही हुए थे। उन्हें देवकी का इस प्रकार चिहुँक कर उठ बैठना कुछ विचित्र-सा लगा।
”क्या हुआ?”
”कृष्ण कहाँ गया?”
वसुदेव ने अपनी आँखें पूरी तरह विस्फारित कीं, ”कृष्ण? कृष्ण हमारे पास था ही कब?”
”वह यहीं तो था मेरे पास…।” और वे रुक गईं, ”तो मैंने स्वप्न देखा था क्या?”
”क्या देखा था?” वसुदेव ने पूछा।
”पर नहीं! वह सपना नहीं हो सकता।” देवकी ने कहा, ”वह यहीं था, मेरे पास। मेरी नासिका में अभी तक उसकी वैजयंती माला के पुष्पों की गंध है। मेरे कानों में उसकी बाँसुरी के स्वर हैं। उसने छुआ भी था मुझे!…”
”तो तुम्हारा कृष्ण वंशी बजाता है?” वसुदेव हँस पड़े, ”तुम्हें किसने बताया कि वह वंशी बजाता है? यादवों का राजकुमार वंशी बजाता है। वह ग्वाला है या चरवाहा कि वंशी बजाता है। तुमने कब देखा कि वह वैजयंती माला धारण करता है?”
”मैंने उसे देखा है।”
”सपने में ही देखा है न!” वसुदेव बोले, ”साक्षात तो तुमने उसे उसी समय देखा था, जब एक मंजूषा में लेटा कर मैं उसे नंद के घर छोड़ने गया था।”
‘सत्य कह रहे हैं आप। तभी देखा था।” देवकी ने कहा, ”किंतु मैं भी सत्य कह रही हूँ, वह सपना नहीं था। वह आया था। उसने मेरे अश्रु पोंछे। बोला, ”मत रो माँ! मैं आ गया हूँ। अब मैं तुम्‍हारे साथ ही रहूँगा।” मैंने कहा, ”पुत्र! तू यहाँ से चला जा। कंस को पता लग गया तो वह तुझे जीवित नहीं छोड़ेगा।”
”तो क्या कहा उसने?”
उसने कहा, ”मैं उसे जीवित छोडूँगा तब तो।” कैसी मधुर मुस्कान थी उसकी। मन हो रहा था कि उसका हाथ पकड़ कर यहीं बैठा लूँ उसे। किंतु विवेक कह रहा था कि उसे शीघ्र से शीघ्र विदा कर दूँ। भेज दूँ उसे यशोदा के पास, जहाँ वह आज तक सुरक्षित था।”
”तो फिर क्या किया तुमने? बैठा लिया या विदा कर दिया?”
”मैंने तो कुछ भी नहीं किया।” देवकी कुछ उद्विग्न हो उठीं, ”उसने कहा, ‘माँ! मैं जा नहीं सकता।” ”क्यों?” मैंने पूछा, ”क्या कंस ने तुम्हें भी बंदी कर यहाँ कारागार में डाल दिया है?” वह हँस कर बोला, ”नहीं माँ! चिंता मत करो, कंस तो क्या, मुझे कोई भी बंदी नहीं कर सकता।” ”तो फिर तुम जा क्यों नहीं सकते?’ ”क्यों कि जाता तो वह है, जो आता है। मैं न आता हूँ, न जाता हूँ। मैं तो सदा रहता हूँ।” ”सदा रहते हो तो दीखते क्यों नहीं?” मैंने पूछा। ”जो देखना चाहता है, उसे दीखता हूँ माँ! तुमने मुझे देख लिया न!”
वसुदेव मौन बैठे रहे।

Writer Narendra Kohli died, Kohli grew up in Jamshedpur Jharkhand - Narendra Kohli Died: साहित्यकार नरेंद्र कोहली का निधन, जमशेदपुर में पले-बढ़े थे कोहली
नरेंद्र कोहली ( 6 जनवरी 1940 – 17 अप्रैल 2021)

थोड़ी प्रतीक्षा कर देवकी ने पूछा, ”आप अब भी इसे स्वप्न मानते हैं?”
”क्या कह सकता हूँ।” वसुदेव कुछ आत्मलीन से थे। मंद स्वर में बोले, ”रात्रि वाला प्रहरी चुपके से बता गया है कि अक्रूर, कृष्ण-बलराम को वृंदावन से ले आया है। वे मथुरा में हैं। उन्होंने कल संध्या समय मथुरा में पर्याप्त उत्पात किया है। आज जाने क्या होने वाला है। कंस अवश्य ही उनके चारों ओर किसी-न-किसी व्यूह की रचना कर रहा होगा।…”
”आप अपने पुत्रों के लिए भयभीत हैं?”
वसुदेव ने जैसे अपना अवसाद झटक दिया, ”नहीं! भयभीत नहीं हूँ मैं। तनिक भी भयभीत नहीं हूँ। भय का कोई कारण नहीं है। सृष्टि ईश्‍वरीय विधान से चलती है, कंस की इच्‍छा से नहीं।”
”भय का कारण क्यों नहीं है?” देवकी ने कुछ चकित हो कर पूछा।
”कृष्ण अपनी इच्छा से मथुरा में आया है। वह अपना वध करवाने नहीं, दूसरों को त्राण देने आया है। कल नगर में दोनों भाइयों ने जितना भी उत्पात किया है, वह इसीलिए किया है कि सारी मथुरा को ज्ञात हो जाए कि कृष्ण आ गया है।…”

* * *

प्रात: सूर्योदय के साथ ही राजकर्मचारियों ने धनुर्यज्ञ-स्थल का परिशोधन किया। सैनिकों तथा आरक्षियों के शव हटाए गए, स्थल को स्वच्छ किया गया। रक्त और माँस के सारे चिह्न मिटाए गए। उसको अलंकृत करने के लिए पुन: सारा आयोजन किया गया।
कोटपाल ने आकर कंस को सूचना दी, ”महाराज! यज्ञस्थल स्वच्छ एवं परिशोधित हो गया है। उसका अलंकरण भी पूरा कर दिया गया है, किंतु धनुष तो टूट चुका है स्वामी!”
”पुराने धनुष को जोड़ा नहीं जा सकता?”
”मुझे तो ऐसा नहीं लगता स्वामी कि हमारे पास कोई ऐसा चतुर कलाकार है, जो उसे इस प्रकार जोड़ दे कि वह पहले जैसा ही कठोर हो सके।” कोटपाल ने कहा, ”कोई जोड़ भी दे तो…”
”तो क्या?”
”एक बालक भी उसे तोड़ देगा और वह ग्वाला कृष्ण सारा यश लूट ले जाएगा कि उसने महाराज कंस का कोदंड तोड़ दिया।”
कंस ने प्रद्योत को बुलाया, ”क्या हमारे पास धनुष-यज्ञ के लिए कोई भी ऐसा कठोर धनुष नहीं है, जिसे कृष्ण तोड़ न सके?”
”महाराज! हमारे शस्त्रागार में एक से बढ़ कर एक भारी और कठोर धनुष रखे हैं, किंतु यज्ञ के अनुकूल उनका अलंकरण नहीं हुआ है।”
”कोई बात नहीं।” कंस बोला, ”वह चाहे सुंदर दिखाई न दे, किंतु…” कंस ने उसे अपनी तर्जनी के संकेत से समझाया, ”कृष्ण उसे तोड़ न पाए।”
”वह नहीं तोड़ पाएगा महाराज! निश्चिंत रहें।” प्रद्योत ने कहा, ”किंतु इतना समय तो मुझे मिलना ही चाहिए कि उसे लीप-पोत कर यज्ञ-स्थल तक पहुँचाया जा सके।”
”तुम उसे तैयार करवाओ।” कंस बोला, ”हम मल्लयुद्ध से समारोह का आरंभ करवाते हैं। धनुष-यज्ञ की बारी बाद में आएगी। मल्लयुद्ध के लिए अखाड़े तो सज्जित हैं न?”
”हमारे कर्मचारी सूर्योदय से पूर्व ही वहाँ पहुँच गए थे। यथास्थान मंच रखवा दिए गए हैं। पुष्पमालाओं और झंडियों से सारा क्षेत्र सुसज्जित कर दिया गया है।” प्रद्योत ने कहा, ”किंतु महाराज! आपने अभी तक कृष्ण और बलराम को बंदी करने का आदेश नहीं दिया है। उन्होंने कल नगर में पर्याप्त उत्पात किया है। प्रशासन और राजसत्ता की छवि उससे कलुषित हुई है। प्रजा उसे राजा की अक्षमता मानती है।” उसने कंस की ओर देखा, ”इससे पूर्व कि वे आज भी कोई उत्पात करें, हमें उनको बंदी कर लाने के लिए सैनिक भेजने चाहिए।”
”मुझे नहीं लगता कि उन्हें बंदी कर लाने के लिए एक दो वाहिनियाँ पर्याप्त हैं।” कंस ने कहा, ”और दो उच्छृंखल छोकरों को पकड़ने के लिए, चतुरंगिणी सेना लेकर जाने से भी राजा का सम्मान नहीं बढ़ेगा, और…”
प्रद्योत ने उसकी ओर देखा। ”तुम जानते ही होंगे, नंद पूरा स्‍कंधावार बनाए, यमुना तट पर पड़ा है।” ”वह ग्‍वाला क्‍या कर लेगा।”
”मैं व्‍यर्थ ही अपने सैनिक मरवाना नहीं चाहता।”
”तो महाराज!”
”उनके लिए दूसरा प्रबंध किया है मैंने।”
”जैसी महाराज की इच्छा।” प्रद्योत ने कहा, ”किंतु एक बात कहना चाहता हूँ महाराज!”
”बोलो।”
”यह सारी भूल अक्रूर की है। जब वह उन दोनों को ले ही आया था तो उन्हें अपने साथ अपने घर ले जाना चाहिए था।” प्रद्योत ने कहा, ”अपने घर में रखता। उनको खिलाता-पिलाता। उनका सत्कार करता। तब वे इस प्रकार मथुरा के पथों-वीथियों में उत्पात करते तो न घूमते। उसने तो एक शत्रु का सा व्यवहार किया है। मथुरा लाकर उन्हें खुला छोड़ दिया कि करो उत्पात।”

कंस ने स्पष्ट सहमति प्रकट नहीं की, किंतु विरोध भी नहीं किया, ”एक बार यह धनुष-यज्ञ निबट जाए, उसके पश्चात मैं इस अक्रूर को भी समझ लूँगा। जहाँ तक मैं समझता हूँ, ये दोनों लड़के इस यज्ञ की अवधि में ही निबटा दिए जाएँगे।”
”महाराज की कामना पूरी हो।” प्रद्योत ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।

* * *

”आज के लिए क्या विचार किया है कान्हा!” नंद चिंतित थे, ”पता नहीं यशोदा क्यों हमारे साथ नहीं आई, नहीं तो मुझे तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करनी पड़ती।”
”मैया नहीं हैं तो क्या हुआ।” कृष्ण हँसे, ”बड़ी माँ तो हैं न! मैया के भाग की भी चिंता बड़ी माँ कर लेंगी।”
”चिंता तो मुझे है ही – तेरी भी और राम की भी। अपने भाग की भी, यशोदा के भाग की भी और देवकी के भाग की भी।” रोहिणी ने कहा, ”तुम लोग उन्हें भूल जाते हो, जो कारागार में बँधे बैठे हैं। हथकड़ी-बेड़ी खोल नहीं सकते, कारागार की शलाकाएँ तोड़ नहीं सकते। तुम लोगों की चिंता उन्हें नहीं है क्या? रक्त के अश्रु बहा रही होगी देवकी!”
”अरे अब तो आप भी मैया के समान बोलने लगीं बड़ी माँ! मथुरा में आते ही आपकी तेजस्विता को ग्रहण लग गया क्या?” कृष्ण मुस्कराए, ”किसी को नहीं भूला हूँ मैं। किसी को भूलता भी नहीं हूँ। उनके अश्रु भी पोंछ आया हूँ।”
”पवन बनकर गया था क्या? न किसी ने जाते देखा, न आते। न किसी ने कारागार में घुसने से रोका, न निकलने से।” रोहिणी ने कुछ प्रसन्न दीखने का प्रयत्न किया।
”इस गपोड़ी को रहने दें माँ!” बलराम बोले, ”पर आप चिंता न करें। आज हम निपटारा कर ही देंगे, इस पार अथवा उस पार।”
रोहिणी काँप उठीं, ”इस पार या उस पार का क्या अर्थ हुआ रे?”
”ओह, बड़ी माँ!” कृष्ण बोले, ”दाऊ के शब्दों पर मत जाइए। बस यह समझिए कि कंस का बेड़ा पार कर ही देंगे।”
”कान्हा!” नंद कुछ अवरुद्ध कंठ से बोले, ”मुझे न तुम्हारे अथवा बलराम के बल पर संदेह है, न तुम लोगों के कौशल पर, किंतु पुत्र! यह कंस की नगरी है। चारों ओर प्राचीर है, जिसे तुम्हारे जनक, वसुदेव कब से पार नहीं कर पाए। सैनिक चौकियाँ हैं, व्यूह हैं, चतुरंगिणी सेना है और तुम्हारे पास कोई शस्त्र भी नहीं है। यह कोई बराबरी का जोड़ तो है नहीं पुत्र! मेरा मन बहुत आशंकित है।”
”बाबा! मैं स्वयं नहीं जानता कि कंस की क्या योजना है…।”
बलराम ने कृष्ण को रोक दिया, ”क्या करना है, उसकी योजनाओं को जान कर। हमारी अपनी योजना है कि जो कोई भी शत्रु भाव से आए, उसकी ग्रीवा में एक गाँठ लगा देंगे। इस काम से न मुझे कंस रोक सकता है, न उसकी चतुरंगिणी सेना। आए हैं तो पिता जी और छोटी माँ को कारागार से छुड़ा कर ही दम लेंगे और ऐसा प्रबंध कर देंगे कि फिर उनके जीवन में कभी कारागार जाने का अवसर न आए।”
”दाऊ का कहा हम अक्षरश: पूरा करेंगे। इसमें तो आप कोई संशय करें नहीं।” कृष्ण बोले, ”अब कुछ बातें मेरी भी सुन लीजिए। मेरे मन में बहुत स्पष्ट है कि हमारा एक ही परिवार है। मैं नंद बाबा और यशोदा मैया का पुत्र कान्हा हूँ। किंतु कंस के लिए, मैं वसुदेव और देवकी का आठवाँ पुत्र हूँ। इसीलिए वह आपके और मेरे साथ एक-सा व्यवहार नहीं करेगा। वह आपको पृथक रूप से बुलाएगा। आप उसकी प्रजा के एक प्रतिनिधि के रूप में जाकर उसे भेंट उपहार देंगे। वह चाहेगा कि आपको वह अपने दर्शकों के मध्‍य सम्मान से बैठाए और मुझसे दूर कर दे। मुझ पर संकट आए तो आप वहाँ बैठे हों, जहाँ से आप मेरी सहायता न कर सकें। आपके साथ आए गोप अपने सत्कार से प्रसन्न होकर पृथक हो जाएँ और मैं और दाऊ उसकी नगरी में एकदम अकेले और असहाय हो जाएँ। यह वह कैसे करेगा, यह अभी मुझे ज्ञात नहीं है किंतु सूचनाएँ आ रहीं हैं। हमारे मित्र लोग सूचनाओं से हमारी सहायता करेंगे और कर रहे हैं। इसीलिए एक बात निश्चित है कि आप कंस के बुलावे पर उसकी प्रजा के प्रतिनिधि के रूप में जाएँ और जो उपहार इत्यादि देने हों दे दें। जहाँ वह बैठाए, वहाँ बैठें और उसके समारोह का आनंद लें।…”
”और तुम कान्हा?”
”मैं और दाऊ एक साथ रहेंगे।” कृष्ण ने कहा, ”न उसके निमंत्रण की प्रतीक्षा करेंगे, न उसके बताए हुए समय और मार्ग से जाएँगे। हमारे सारे गोपाल हमारे साथ नहीं होंगे किंतु ऐसे स्थानों पर रहेंगे, जहाँ से वे हमारी सहायता के लिए कूद सकें। विशेषकर यदि कंस के पक्ष से बड़ी संख्या में योद्धा आएँ तो हमारे मल्ल उन्हें रोके रह सकें और हम तक पहुँचने न दें।”
नंद की आँखों में अश्रु आ गए, ”पुत्र! हम तुम्हारे साथ नहीं होंगे, तो तुम्हारी सहायता कैसे करेंगे?”
”कंस हमें भ्रम में रखना चाहता है। हम उसे भ्रम में रखेंगे।” कृष्ण बोले, ”आप उसकी दृष्टि में रहेंगे, किंतु हमारी गोप सेना अदृश्य रहेगी। फिर जैसा अवसर आएगा, वैसा ही करेंगे।”
”इस समय क्या करना है?”
”आप जाने की तैयारी करें। अपने उपहारों के साथ उसके बुलावे की प्रतीक्षा करें।” कृष्ण बोले, ”गोप सेना को मैं अज्ञात स्थान पर भेज रहा हूँ, जहाँ से वह हमारी सहायता के लिए कूद पड़ेगी। मैं और दाऊ कहाँ जा रहे हैं, यह गोपनीय है।”
”मेरा मन नहीं मानता पुत्र!” नंद की आँखें अश्रुपूर्ण थीं।
”नंद महर!” रोहिणी ने पहली बार उनके वार्तालाप में हस्तक्षेप किया, ”कान्हा को वही करने दीजिए, जो वह करना चाहता है। मैं इधर वर्षों से अपने पति से दूर हूँ, किंतु मैं उन्हें भली प्रकार जानती हूँ। आज कान्हा एकदम उनके ही स्वर में बोल रहा है। इसे अपना युद्ध अपने ढंग से लड़ने दीजिए। बस बलराम उसके साथ रहे। दोनों भाई साथ होंगे तो मुझे तनिक भी चिंता नहीं होगी।”
नंद ने अपने अश्रु पोंछ लिए, ”आप कह रही हैं भाभी! तो मैं कान्हा को नहीं रोकूँगा।”
”यह हुई आप लोगों की योजना।” रोहिणी ने कहा, ”अब मैं भी जा रही हूँ, मथुरा में। मैं अकेली ही जाऊँगी।” ”आप कहाँ जाएँगी और वह भी अकेली?” ”मुझे आर्यपुत्र और देवकी के अपने घर आने से पहले घर को साफ़-सुथरा करना है। बहुत दिनों से बंद पड़ा है। उसे रहने योग्‍य तो बना लूँ।”
”वहाँ तो कोई सेवक भी नहीं होगा, तो फिर आप…?” ”उसका प्रबंध हो जाएगा, आप मेरी चिंता न करें नंद महर!”

* * *

कृष्ण और बलराम अपना मुँह-सिर लपेटे, स्वयं को पूर्णत: छिपाए और कुरूप वेश अपनाए हुए, त्रिवक्रा के घर में प्रविष्ट हुए।
त्रिवक्रा दस्यु जैसे दो लोगों को इस प्रकार अपने घर में प्रविष्ट होते देख, डर गई।
”कौन हो तुम लोग?”
”तुम्हारे शत्रु नहीं हैं।” कृष्ण ने कहा।
”पर मित्र भी नहीं लगते।” त्रिवक्रा बोली, ”मित्र होते तो इस प्रकार क्यों आते?”
”अपने मित्रों को पहचानो सखि!” कृष्ण ने मुख पर लपेटा वस्त्र हटा दिया।
”ओह तुम प्रियदर्शन!” त्रिवक्रा चकित थी, ”इस प्रकार क्यों आए?”
”ताकि कोई जान न सके कि हम तुम्हारे घर आए हैं। हमें तुम तक पहुँचने से कोई रोक न सके, किंतु जब निकलेंगे तो सब देखेंगे कि हम तुम्हारे घर से गए हैं।”
”मैं इतना ही जान पाई हूँ कृष्ण कि कंस तुम्हें किसी शस्‍त्र से नहीं, पशुओं से मरवाने की योजना बनाए बैठा है।” त्रिवक्रा ने कहा, ”मैंने बहुत हाव-भाव दिखाए, हेला का भी सहारा लिया, किंतु उसके मुख से इससे अधिक और कुछ नहीं निकलवा पाई।”
”इतना ही पर्याप्त है।” कृष्ण मुस्करा रहे थे, ”अब हमें अच्छे वस्त्र दो। चंदन और अंगराग दो। हमें महाराज कंस के धनुर्यज्ञ में जाना है। राजाओं, राजकुमारों, मंडलेश्वरों तथा राजपुरुषों की सभा में जाना है। हमारा वेश भी राजसी होना चाहिए।”
”मेरा सौभाग्य।” त्रिवक्रा अत्यधिक प्रसन्न थी, ”ऐसा सौभाग्यशाली दिन तो मेरे जीवन में आज तक आया ही नहीं। तुम मुझसे मेरे प्राण भी माँग लो, तो आज्ञापालन में एक क्षण नहीं लगाऊँगी।”

कृष्ण तथा बलराम ने स्नान किया। नए वस्त्र धारण किए। चंदन और अंगराग लगाया।
”तुम धनुर्यज्ञ देखने नहीं चलोगी?”
”तुम्हें संकटों से जूझते नहीं देख सकूँगी। प्राण निकल जाएँगे मेरे।” त्रिवक्रा ने कहा, ”मैं अपने घर पर ही तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगी।”

Dr Narendra Kohli, Obituary of a Legendary Hindi writer and novelist - AajTak
कृष्ण और बलराम निर्विघ्न यज्ञस्थल तक पहुँच गए। धनुर्यज्ञ वाला स्थल इस समय जन-शून्य जैसा ही था। कुछ थोड़े से राजकर्मचारी स्थान और धनुष का परिशोधन इत्यादि कर रहे थे। वे जानते थे कि राजा को वहाँ नहीं आना है, अत: उनमें किसी प्रकार का कोई उत्साह नहीं था। बँधे-बँधे से वहाँ बैठे समय के व्यतीत होने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
”आपके महाराज कहाँ हैं?” कृष्ण ने पूछ ही लिया।
”महाराज मल्लयुद्ध देखेंगे।” मुखिया बोला, ”जब उन गँवार गोपों ने धनुष ही तोड़ दिया तो यहाँ की शोभा ही क्या रही।”
उसने सिर उठा कर देखा। कुछ क्षण उनको निहारता रहा और फिर उसके चेहरे का वर्ण पीला पड़ गया, ”तुम वही तो नहीं हो…।”
”वही हैं।” बलराम बोले, ”और तूने हमें गँवार कहा…।”
कृष्ण आकर मुखिया के सामने खड़े हो गए, ”नहीं दाऊ! इसे क्षमा कर दो। यह एक अहंकारी राजा का मूर्ख कर्मचारी है।”
मुखिया काँप रहा था।
”डरो नहीं।” कृष्ण बोले, ”हमें बता दो कि कंस कहाँ होगा।”

मुखिया ने मल्ल-स्थल का मार्ग बता दिया और फिर भयभीत स्वर में बोला, ”वहाँ मत जाना। वहाँ मुष्टिक, चाणूर, कूट, शल और तोशल होंगे। वे तुम लोगों को जीवित नहीं छोड़ेंगे।”
”सूचना के लिए हम तुम्हारे आभारी हैं।” कृष्ण मुस्कराए, ”किंतु तुम भी सावधान रहो कि तुम्हारे राजा को यह सूचना न मिल जाए कि तुमने हमें सचेत किया है।”
मुखिया पहली बार थोड़ा मुस्कराया, ”कल से तो सारा नगर ही सचेत हो उठा है। सारी प्रजा कह रही है कि राजा यदि यज्ञ-स्‍थल पर सार्वजनिक रूप से धनुष तोड़ने वाले अपने शत्रुओं को दंडित नहीं कर सका तो वह किसी का भी क्या बिगाड़ सकता है।”
”ठीक ही तो है।” बलराम बोले, ”निर्भय होकर जिओ।”

वे मुखिया के बताए हुए मार्ग पर चल पड़े।
”त्रिवक्रा ने कहा है कि वह हमें पशुओं से मरवाना चाहता है।” बलराम ने कहा, ”और यह मुखिया कह रहा है कि वहाँ कंस के प्रधान मल्ल होंगे। कहीं इसका यह अर्थ तो नहीं कि लोग उसके मल्लों को ही पशु कहते हैं।”
”बहुत संभव है कि ऐसा ही हो और न भी हो तो क्या।” कृष्ण बोले, ”हमने भी तो अपना वृंदावन सारे असुराकार पशुओं से मुक्‍त कराया ही था। कंस के पास उनसे भयंकर पशु तो नहीं होंगे। चलो दाऊ, देखते हैं कि वे निरे पशु ही हैं अथवा नर-पशु!”

मल्ल-स्थल निकट आ गया था। दूर से ही संकेत मिल रहे थे कि वहाँ कोई महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है। जन-सूमह उस दिशा में बढ़ा जा रहा था। मार्ग के दोनों ओर राजकर्मचारी और सैनिक खड़े थे। रथों की संख्या भी कुछ अधिक ही थी।
वे दोनों अभी मुख्य द्वार से कुछ पीछे ही थे कि बलराम रुक गए, ”मुझे लगता है कि वे लोग नंद बाबा को पुकार रहे हैं।”
कृष्ण भी पूर्णत: सचेत थे। बोले, ”मैंने भी सुना है। हमें यहीं रुक जाना चाहिए। पहले देख लें कि वह बाबा को क्यों पुकार रहा है। उसके पश्चात जैसा आवश्यक होगा, वैसा ही करेंगे।”

वे एक वृक्ष की छाया में रुक गए। उन्होंने देखा कि नंद बाबा तो अभी तक अपने शकटों के निकट ही थे, किंतु उनके अनेक साथी इधर-उधर हो चुके थे। पुकारे जाने पर वे वहाँ से उठे और दही, पनीर और मक्खन के बर्तन लिए हुए दस-बारह गोप कंस के सामने पहुँचे। उन्होंने वे सारे भांड उसके सम्मुख रख, हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।
”तुम्हारा पुत्र नहीं आया?”
”कौन-सा पुत्र?” नंद ने पूछा।
”वही, जिसपर तुम सब लोगों को बहुत गर्व है – कृष्ण! कान्हा!”
”आपने ही तो घोषणा कर दी है कि वह आर्य वसुदेव का पुत्र है, तो वह मेरा पुत्र कहाँ रहा।”
”तुम तो यही कहते रहे हो न।”
”जब पहले दिन से उसका पालन-पोषण किया है, तो पिता तो उसका मैं ही हूँ, जनक चाहे आर्य वसुदेव हों।”
”तो तुम यह स्वीकार करते हो कि वह देवकी के आठवें गर्भ की संतान है?”
”मेरा मानना न मानना क्या अर्थ रखता है महाराज!” नंद ने दीन भाव से हाथ जोड़ दिए, ”आपकी आज्ञा हो जाने के पश्चात मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैं उसका जनक हूँ। महाराज की आज्ञा ही सर्वोपरि है। वही परम सत्य है। आप इस सूर्य की ओर अंगुली उठा कर कह दें कि वह चंद्रमा है, तो आपकी प्रजा का धर्म है कि वह मान जाए कि वह चंद्रमा ही है।”
”तुम मेरा उपहास कर रहे हो नंद!” कंस क्रुद्ध हो उठा।
”नहीं महाराज! मैं ऐसा दुस्साहस कैसे कर सकता हूँ।” नंद निर्भीक स्वर में बोले, ”मैं तो अपनी राजभक्ति का प्रमाण दे रहा हूँ।”
कृष्ण ने मुस्करा कर बलराम की ओर देखा। बलराम मुख खोले चकित भाव से नंद को देख रहे थे, ”अब बाबा डरते नहीं हैं एकदम।”
”तो कहाँ है कृष्ण?”
”कृष्‍ण और बलराम को तो आपके राजपुरुष आर्य अक्रूर अपने साथ अपने रथ में बैठा कर ले आए थे। उन्‍होंने देवी रोहिणी को भी उस रथ पर बैठने नहीं दिया।” नंद बोले, ”वे दोनों लड़के तो हमारे साथ आए ही नहीं। क्या वे अक्रूर के प्रासाद में अथवा आपके अतिथिगृह में नहीं हैं?”
”नहीं! वे तुम्हारे साथ तुम्हारे डेरे पर थे।”
”हाँ! हमारे साथ देवी रोहिणी थीं। संभव है वे अपनी माता से मिलने आए हों। देवि रोहिणी खीर बहुत अच्छी…।”
”अच्छा जाओ अपने स्थान पर बैठो।” कंस अपने राजपुरुषों की ओर मुड़ा, ”इसे ले जाकर वहाँ विशिष्ट जन के मध्य बैठा दो। धूर्त कहीं का।”
नंद महर को राजा, मंत्री, मंडलेश्वरों तथा राजपुरुषों से कुछ दूर विशिष्ट जन के मध्य बैठा दिया गया। कृष्ण ने दृष्टि घुमा कर देखा : उन्हें अनेक गोप मल्ल प्रजा में बैठे दिखाई दे रहे थे।
”अब चलें?” बलराम उतावले हो रहे थे।
”चलिए।”
”किधर से चलें?”
”तोरण से चलते हैं, प्रकट रूप से।” कृष्ण बोले, ”अब छुप कर क्या जाना।”

वे दोनों आगे बढ़े और मुख्य द्वार के बीचों-बीच आ पहुँचे। कृष्ण चकित थे कि अब तक न तो कंस अथवा उसके साथियों ने कृष्ण को देख कर कोई विशेष प्रतिक्रिया प्रकट की थी और न ही किसी ने उन्हें पकड़ने अथवा उनपर आक्रमण करने का प्रयत्न किया था। जनसामान्य में कुछ हलचल अवश्य थी। कदाचित यह वे लोग थे, जिन्होंने कल संध्या समय उन्हें हाट इत्यादि में देखा था।
कंस ने उनकी ओर देखा। उसका चेहरा तमतमा गया। वह अक्रूर की ओर मुड़ा, ”ये ही हैं?”
”हाँ महाराज! ये ही दोनों वसुदेव के पुत्र हैं।”
कंस ने कोटपाल की ओर देखा, ”कल सायं इन्होंने ही मथुरा में उत्पात किया था?”
”हाँ महाराज!”
कंस अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ, ”कुवलयापीड़!”
अक्रूर का मन काँप गया।
कुवलयापीड़ कंस का मदांध हाथी था। जब किसी भयंकर अपराधी को सार्वजनिक मृत्युदंड का आदेश होता था तो उसे खुले मैदान में कुवलयापीड़ अपने पैरों तले रौंदता था। उसे इस काम के लिए प्रशिक्षित किया गया था। लगता था कि वह हाथी अब एक प्रकार से हिंस्र हो चुका था। उसे लोगों को रौंद कर उनका भुरकस बनाने में आनंद आता था।
”दाऊ! त्रिवक्रा ने ठीक सूचना दी थी। यह है वह पशु, जिसको हमारी सेवा करने के लिए तैयार किया गया है।”
”इसका क्या करना है?” बलराम ने पूछा।
”करना क्या है।” कृष्ण हँसे, ”आँख मिचौनी खेलते हैं। बहुत दिनों से खेली भी नहीं है।”
”प्रद्योत!” कंस ने ऊँचे स्वर में पुकारा, ”कुवलयापीड़ को कृष्‍ण के स्‍वागत के लिए प्रस्‍तुत किया जाए।… और देखो, कुवलयापीड़ कोई उत्‍पात न करे। चारों ओर से घेर लो। आवश्‍यकता हो तो शूलों से वेध दो।”

कंस के सैनिकों ने एक वृत्त बना लिया था। उन सबों के हाथों में लंबे-लंबे शूल थे।
”दाउ! इनके हाथ तो अभी से काँप रहे हैं।” कृष्‍ण मुस्‍कराए, ”और चतुराई देखो, मामा यह नहीं बता रहा कि किसको शूलों से वेधना है। वह हमें घेर कर मारना चाहता है।” बलराम ने कुछ नहीं कहा। उनकी दृष्टि सैनिकों के दूसरे वलय पर थी। वे सैनिक धनुष-बाण से सज्जित थे।… कृष्‍ण देख रहे थे कि चाहे रंगभूमि के बाहर ही सही, किंतु एक वलय उनके अपने साथियों का भी था।

कुवलयापीड़ ने अपनी ऊपर उठी हुई सूँड में पुष्‍पों की एक लंबी माला थाम रखी थी, जैसे कृष्‍ण को माला अर्पित करने की तैयारी हो।
महावत ने कुवलयापीड़ को हाँक दिया था। कुवलयापीड़ भी अपना प्रिय खेल खेलने की व्यवस्था देख कर प्रसन्न था। वह बड़े उत्साह से आगे बढ़ रहा था।
”महाराज!” कृष्ण पुकार कर बोले, ”खेल नियम के अनुसार होना चाहिए। आदेश दें कि यदि कृष्‍ण ढंग से स्‍वागत न करवा सके तो उसे शूलों से वेध दिया जाए और कुवलयापीड़ ढंग से स्‍वागत न करे, बीच में ही भागने लगे, तो सैनिक उसे भी शूलों से वेध दें।”
कंस ने सायास अट्टहास किया, ”तुम अपना पक्ष सँभालो कृष्‍ण! कुवलयापीड़ अपना दायित्‍व अच्‍छी तरह समझता है।” कृष्ण ने कमर कसी और अपनी घुँघराली अलकें समेट लीं। वे यथासंभव कुवलयापीड़ से अधिकतम दूरी पर चले गए थे। सैनिक सावधान हो गए, कहीं कृष्‍ण उनके अवरोध से बाहर न निकल जाएँ। कुवलयापीड़ हुमक-हुमक कर उनकी ओर बढ़ रहा था। सहसा कृष्ण उसकी ओर दौड़े और उसके निकट आकर स्वयं को अद्भुत कौशल से उछाल दिया। कुवलयापीड़ उनको ढूँढ रहा था और वे उसकी पीठ पर जा पहुँचे थे।

महावत ने अकस्मात उनको अपने निकट पा, जैसे घबरा कर अपने अंकुश से उन पर प्रहार करने का प्रयत्न किया। कृष्ण ने अपने हाथ से अंकुश को थामा और पैर की ठोकर से महावत को भूमि पर फेंक दिया। महावत सावधान था, अन्यथा क्षण भर में ही वह कुवलयापीड़ के पैरों से कुचला जाता। कुवलयापीड़ भी समझ रहा था कि उसे अपने महावत को नहीं कुचलना है। पीठ पर बैठे कृष्ण ने जब अंकुश से उसे कोंचा तो उसकी समझ में आया कि उसका आखेट कहाँ है।

कुवलयापीड़ ने अपनी सूँड से कृष्ण को लपेटने का प्रयत्‍न किया, किंतु वह संभव नहीं हुआ तो उसने धक्का मार कर उन्‍हें नीचे गिरा दिया। कृष्ण उसके सामने भूमि पर थे और वह अपना पैर उठा कर उन पर रखने जा रहा था। कृष्ण सर्प की सी गति से सरक कर उसके पैरों के बीच में चले गए। वे उसके अगले और पिछले पैरों के मध्‍य थे; और उसकी सूँड वहाँ तक पहुँच नहीं पा रही थी। कुवलयापीड़ पीछे हटा और उसने अपने बड़े-बड़े नुकीले दाँतों से उनको छेद डालने के लिए जोर से भूमि पर आघात किया… किंतु कृष्ण वहाँ से हट चुके थे और कुवलयापीड़ के वे बड़े-बड़े दाँत अपनी ही शक्ति के वेग में धरती में जा धँसे। उन्हें खींच कर मिट्टी से निकालने में ही वह समझ गया था कि दाँत हिल गए थे। रंगभूमि की धरती पीट-पीट कर कठोर की गई थी। शक्तिशाली कुवलयापीड़ ने उसी धरती पर अपना सिर पटक लिया था। वह अपनी पीड़ा को सँभालने का प्रयत्न कर रहा था कि उसे आभास हुआ कि कृष्ण उसकी पूँछ से लटके ही नहीं थे, उसे उखाड़ लेने के लिए प्रयत्नशील थे।… उसके बड़े-बड़े दाँतों से रक्त बह रहा था। वह पीड़ा से कराह रहा था और अब उसकी पूँछ टूटने को हो रही थी। वह अपनी सूँड़ को अपनी पूँछ तक नहीं ले जा सकता था। कुवलयापीड़ क्रोध से पागल हो उठा।… और कृष्ण यही चाहते थे।

अब कुवलयापीड़ बिना सोचे-समझे आक्रमण कर रहा था। महावत उसकी पीठ पर था ही नहीं कि उसे संयत कर, कोई दिशा-निर्देश करता।… इस प्रकार के आक्रमण से बचने के लिए कृष्ण को केवल उस स्थान से हट जाना था, जहाँ कुवलयापीड़ आघात कर रहा था।… और सहसा कृष्ण क्षमता भर अपने पूरे वेग से भागे।

कुवलयापीड़ प्रसन्न हो गया। वह उन्‍मुक्‍त भाव से उनका पीछा कर रहा था। हाथी के भय से सैनिक वलय टूट चुके थे। किसी को हाथी के पैरों तले कुचला जाना पसंद नहीं था। जब सैनिक थे ही नहीं तो कौन किसको रोकता और कौन किसको मारता।… दौड़ते-दौड़ते सहसा कृष्ण भूमि पर गिर पड़े… देखने वालों का कलेजा मुँह को आ रहा था और बलराम को क्रोध आ रहा था।… क्या कर रहा है यह कृष्ण ! क्या आवश्यकता थी कुवलयापीड़ के आगे-आगे भागने की। वह हाथी इस समय इतना तो आहत हो चुका था कि कृष्ण किसी भी अन्य प्रकार से उसे पीड़ित कर सकता था। और कुछ नहीं तो उस पर आरूढ़ होकर उसके अंकुश से उसे मार-मार कर उसके प्राण ले सकता था। पर यह सदा अपनी ही कोई चतुराई दिखाने के प्रयत्न में रहता है। अब यह कुवलयापीड़ के मार्ग में भूमि पर पड़ा है। उठ कर न भाग सका और हाथी ने उसे कुचल दिया तो?…और बलराम को पहली बार लगा कि वे व्याकुल हो उठे हैं और इस युद्ध में हस्तक्षेप करना चाहते हैं…

कुवलयापीड़ कृष्ण के सिर पर आ पहुँचा था और कृष्ण दो बार उठने का प्रयत्न कर पुन: गिर चुके थे। स्पष्ट लग रहा था कि उनमें अब उठने की भी शक्ति नहीं रह गई थी। कुवलयापीड़ ने अपनी सूँड में लपेट कर उन्हें उठा कर जोर से भूमि पर पटकने का प्रयत्न किया किंतु कृष्ण उसकी सूँड की पकड़ से फिसल कर फिर से धरती पर आ गए थे। इस बार कुवलयापीड़ ने अपने लंबे तीखे दाँतों को उनके शरीर में भोंक देने के लिए पूरे वेग से प्रहार किया।… किंतु उसके दाँत धरती से जा टकराए। कृष्ण लोट कर एक किनारे हो चुके थे।… कुवलयापीड़ के दाँत उसकी सूँड के समान ही झूल रहे थे। कृष्ण ने स्फूर्ति से उठ कर उसका एक दाँत पकड़ कर खींच लिया। दाँत कृष्ण के हाथ में था और कुवलयापीड़ रक्त बहाता हुआ, पीड़ा से पागल होकर चिंघाड़ रहा था।

महावत अपने हाथी की रक्षा में आ गया था। उसके हाथ में खड्ग था। उसने ज़ोर से प्रहार किया। कृष्ण पीछे हट गए थे और उन्होंने कुवलयापीड़ का दाँत महावत के पेट के आर-पार पहुँचा दिया था। उसके पश्चात महावत नहीं उठा।

अब कृष्ण के हाथ में एक शस्त्र था। वे कुवलयापीड़ पर पीछे, दाएँ, बाएँ – तीन ओर से उसी के दाँत से प्रहार कर रहे थे। उसका दाँत अंकुश से भी अधिक पीड़ा देने वाला था। कुवलयापीड़ तड़प-तड़प कर उन पर झपटता था; किंतु उसमें अब वह स्फूर्ति नहीं रह गई थी और न ही उतना बल ही दिखाई दे रहा था। रक्त के फव्वारे उसके शरीर से फूट रहे थे।… और कृष्ण का बल जैसे कई गुना हो गया था।… कुछ ही क्षणों में कुवलयापीड़ धरती पर आ गिरा और कृष्ण कूद कर उसके ऊपर जा चढ़े।