शिवचरण चौहान।
कहीं कहीं पलाश फूला हुआ है।  लगता है पलाश के ऊपर अंगारे झूल रहे हैं। खेत खलिहान जंगल मेड़- जहां भी पलाश का छोटा-बड़ा पेड़ खड़ा है अंगारे लिपटाए हुए हैं। फागुन में चुपचाप खड़ा था- एक एक पत्ता टपका रहा था- और जब गंजा हो गया तो लाल रक्तिम फूलों से ढक गया है। पलाश के फूल में सुगंध नहीं होती किंतु मधुरस होता है। इसी मधुरस/पराग को पीने के लिए तितलियां, भंवरे ,फुदुकी चिड़िया, मधुमक्खियां और न जाने कितने प्रकार के कीड़े फूल के आसपास मंडराते रहते हैं।

आधे अंग सुलगि रहे, आधे मानो…

तब पलाश के वृक्ष हर कहीं दिखाई पड़ते थे किंतु अब विलुप्त होते जा रहे हैं। महाकवि पदमाकर ने ” कहें पदमाकर परागन में, पौन हूँ मे/ पानन में पिक में, पलासन पगत है” छंद लिख कर पलाश की महिमा का बखान किया तो रीतिकालीन कवि सेनापति ने भी पलाश के फूलने का मनोहारी चित्रण किया है: ‘लाल लाल टेसू फूल रहे हैं बिलास संग/ स्याम रंग मानी जैसे मसि में मिलाएं हैं। तहां मधु काज आए बैठे मधुकर पुंज/ मलय पवन उपवन वन धाए हैं। सेनापति माधव महीना में पलाश तरु/ देखि देखि भाव कविता के मन आए हैं। आधे अंग सुलगि रहे, आधे मानो/ विरही मन काम कोयला परचाए हैं।’
नरेंद्र शर्मा ने भी पलाश के फूलों का बहुत सुंदर वर्णन किया: ‘चंपई चांदनी बीत गई अनुराग भरी उषा आई/ तब हरित पीत पल्लव वन में लौ की पलाश लाली छाई। पतझड़ की सूखी शाखों में लग गई आग , शोले लहके/ चिनगी सी कलियां खिली और हर शाख लाल फूल दहके।’

पहाड़ में आग

भवानी प्रसाद मिश्र ने भी सतपुड़ा के पहाड़ों पर पलाश फुले देखे थे और कहा था पहाड़ में आग लग गई है। बुद्धिनाथ मिश्र का नवगीत है: आज सजाऊं अपनी देह मैं/ ले आओ जामुन की कोंपले/ यह सारा धन तुमको सौंप दूं/ देख देख कर पलाश वन जले।

बुढ़ापे में अकेला

ब्रज, अवधी, बुन्देलखण्डी, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी लोकगीतों में पलाश के गुण गाए गए हैं। कबीर ने तो ‘खंखर भया पलाश’- कह कर पलाश की तुलना एक ऐसे सुन्दर-सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में सबको आकर्षित कर लेता है किन्तु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। बसंत और ग्रीष्म ऋतु में जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते है, उसे सभी निहारते हैं किन्तु शेष आठ महीने वह पतझड़ का शिकार होकर झाड़-झंखार की तरह रह जाता है।
अवधी भाषा का एक प्रसिद्ध लोकगीत है:
“छापक पेड़ छयूलिया कि तेहि छाँह गहवर हो/ कि ता तर हिरनी उदास कि मन अति अनमन हो।”
अवधी भाषा में पलाश को छयूल कहा जाता है। एक छयूल के वृक्ष के नीचे एक हिरनी उदास खडी है। रानी कौशिल्या, वहाँ से गुजरी तो हिरनी को उदास खड़ी देख उदासी का कारण पूछा? हिरनी बोली- ‘महारानी, मेरे हिरन को तुम्हारे सैनिकों ने मार डाला। हिरन की खाल से तुम्हारे बेटे राम, का बिछौना (मृगचर्म) बनाया गया है तथा खजड़ी व डमरू बनाए गए हैं। यदि मेरे हिरन की खाल तुम मुझे वापस दिला दो तो मैं उसे ढाक के पेड़ पर टांग कर उसे निहारते हुए अपना जीवन गुजार दूंगी। …पर रानी तो रानी- स्त्री होकर भी एक स्त्री का दुख नहीं समझ पाती।

सदियों से जन-जन में रचा बसा

Palash Tree - Uses, Benefits, Side Effects & More! - PharmEasy Blog

अनेक लोक भाषाओं में पलाश का उल्लेख मिलता है। हरछठ यानी हरतालिका तीज में तो ढाक के वृक्ष की पूजा की जाती है। यज्ञ, हवन, पूजा, पाठ व दैनिक कामों में पलाश के पत्तों, फूलों व लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि पलाश सदियों से जन-जन में रचा बसा था।

पॉलीथिन का उपयोगी विकल्प

पर्यावरण के लिए प्लास्टिक-पॉलीथीन की थैलियां नुक्सानप्रद पाई गयीं और इन पर रोक लगाई गयी है तो पलाश वृक्ष की उपयोगिता महसूस की गयी। जिसके पत्ते दोने, थैले, पत्तल, थाली, गिलास सहित न जाने कितने काम में उपयोग में आ सकते हैं। पर पिछले तीस-चालीस सालों में पलाश के नब्बे प्रतिशत वन नष्ट कर डाले गए। बिन पानी के बंजर-ऊसर तक में उग आने वाले इस पेड़ की नयी पौध तैयार नहीं हुई। यही स्थिति रही और समाज जागरूक न हुआ तो पलाश विलुप्त वृक्ष हो जाएगा। बस कहावतों में ढाक के तीन पात में रह जाएगा। और बच्चे पूछेंगे कि पलाश क्या होता है?

पुनर्जीवन देने में जुटे वैज्ञानिक

वैज्ञानिकों ने अरावली सहित अनेक स्थानों में लुप्त होते पलाश के वन पुनः विकसित करने के लिए उत्तक संवर्द्धन (टिशू कल्चर) तथा माइको प्रवर्धन का सहारा लिया है। वैज्ञानिकों को विश्वास है कि हाईटेक आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी की बदौलत वह पलाश के लाखों पौधे परखनली में उगाकर पलाश को पुनः जीवित कर देंगे। इसके लिए गोल पहाड़ी हरियाणा स्थित टाटा ऊर्जा अनुसंधान के टिशू कल्चर पायलट प्लांट तथा पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला में नए प्रयोग शुरू किए गए पर जागरुकता के अभाव में अपेक्षित परिणाम नहीं निकला।  पलाश के बन नहीं तैयार हो पाए।

पलाश तेरे कितने नाम

पलाश का वैज्ञानिक नाम ‘ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। इसे हिन्दी में ढाक, टेसू, संस्कृत में किंशुक, बहायत, रक्त पुष्पक, बंगला में पलाश, तेलगू में पलासमू, गुजराती में खांकरों, केसुडानो, तमिल में पलासु, कन्नड में मुत्तुकदण्डिका, उर्दू में पापडा, राजस्थानी में चौर, छोवरा, खोकरा तथा अंग्रेजी में फ्लेम आफ फारेस्ट के नाम से जानते हैं।
अप्रैल से मई-जून तक जब भी पलाश की काली कलियों से चटक लाल रंग के फूल खिलते हैं तो लगता है कि सारा जंगल अंगारों से दहक उठा है। संस्कृत में किंशुक नाम है पलाश का- जिसका अर्थ है शुक यानी तोते की जैसी लाल चोंच जैसा फूल- जबकि अंग्रजी नाम फ्लेम आफ फारेस्ट का अर्थ “जंगल की आग’ है।

बहुउपयोगी

पलाश, भारत का एक सुपरिचित वृक्ष है। यह मझोला 10 से 15 फुट ऊँचा पतझड़ी वृक्ष है। इसके पत्तों में एक डंठल में तीन पत्तक होते हैं। शायद इसी कारण ‘ढाक के तीन पात’- वाली कहावत लोक जीवन में मशहूर हुई। पत्तों से पत्तल, दोने, थाली, छप्पर, छानी बनाए छाए जाते हैं। पत्तों को पशुओं के चारे व सूखे पत्ते आग जलाने के काम आते हैं। शीत ऋतु में पलाश पर्णहीन होकर झाड जैसा बन जाता है। पर्णहीन वृक्ष में मार्च अप्रैल में कोयले जैसी काली कलियाँ लगती हैं और जब ये कलियाँ फूलती हैं तो लगता है की कोयला आग में जलकर लाल हो गया है। पलाश के फूल गुलाल व रंग बनाने में काम आते हैं। फूलों में लाल-नारंगी रंग के पत्रक होते हैं। पलाश के फल बकरी के कान जैसे लम्बे होते हैं, जिनमें भूरे या काले रंग के सिक्कों के आकार के बीज निकलते हैं। पलाश, मध्य तथा पश्चिमी भारत में पाया जाता है। मैदानी, पहाड़ी व तलहटी, खेतों की मेडों में यह आसानी से उग आता है। जब तक जड़ें न उखाड़ फेंकी जाएं- यह हरियाता रहता है। पर अब यह लुप्त होता जा रहा है।
पलाश में लाल व कत्थई रंग का गोंद निकलता है। इसे बंगाल किनो या बूटेआ-गम कहते है । गोंद तथा बीज औषधि दवा के काम आते हैं। गोंद में टेनीन होते हैं जो मुँह के छाले ठीक करते हैं। बीज राउंडवर्म, टेमवर्म, पेट दर्द, दाँत दर्द में काम आता है। पलाश को बीज रोटोनीना के स्थान पर भी प्रयोग किए जाते हैं। पलाश के बीज पीसकर नींबू के रस में मिलाकर दाद-खाज-खुजली पर लेप करने से मर्ज दूर कर देते हैं। पलाश की जड़ों का काढ़ा रक्तचाप में प्रभावी है। लकड़ी  इमारती काम व  अन्य कई  काम आती है। लकड़ी पानी में जल्दी सड़ती नहीं है।
पलाश को फूलों से आदि काल से रंग रोगन बनाया जाता रहा है। पलाश को फूलों को सुखाकर रख लिया जाता है। जब रंग बनाना होता है। फूल पानी में भिगो दिए जाते हैं। पलाश के पूल से ही केसरिया रंग बनता है, जो फागुन में होली खेलने में प्रयोग किया जाता है। साधू सन्यासी केसरिया रंग से ही अपने वस्त्र आज भी रंगते हैं। पलाश की जड़ें रेशेदार होती है जिन्हें कूटकर रस्सी बनाई जाती है। जड़ों से घरों में पुताई करने वाली कूंचिया भी बनती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)