वास्तव में सच्चाई है क्या और क्यों यह तिलिस्म टूटना जरूरी है।
प्रदीप सिंह।
क्या नेहरू धर्मनिरपेक्ष थे?… क्या नेहरू जनतांत्रिक थे?… क्या नेहरू बोलने की आजादी के समर्थक थे?… ये तीनों ऐसे प्रश्न हैं जिन पर इतिहासकारों, लेखकों- खासकर वामपंथी इतिहासकारों ने- इस तरह का मुलम्मा चढ़ाया… और इस तरह से उन्हें पेश किया जैसे इन तीनों के चैंपियन जवाहरलाल नेहरू थे। लेकिन सच्चाई इससे बहुत अलग है जिसे कभी उजागर ही नहीं किया गया। अगर कहीं उसका जिक्र आ भी गया तो उसे कभी हाईलाइट नहीं किया गया- दबा दिया गया। आज भी यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि जो नेहरू का विरोध कर रहे हैं वे असल में एंटी डेमोक्रेटिक, सांप्रदायिक और फासिस्ट हैं। वे बोलने की आजादी में विश्वास नहीं करते हैं- लोगों के निजी अधिकारों की बात नहीं करते हैं। हाल ही में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी कहा कि कांग्रेस का पुनर्जीवित होना सिर्फ कांग्रेस के लिए ही नहीं बल्कि इस देश के लोकतंत्र के लिए, इस देश के लिए और इस देश की परंपराओं के लिए जरूरी है।
नेहरू से जुड़े तीनों प्रश्नों पर कुछ उदाहरणों के साथ मैं बताने की कोशिश करूंगा कि वास्तव में सच्चाई है क्या। पहला… जब अंतरिम प्रधानमंत्री चुना जाना था तब कांग्रेस की विभिन्न राज्य इकाइयों से प्रस्ताव मंगवाया गया। दो को छोड़कर सबने एक स्वर से सरदार पटेल के नाम का समर्थन किया। उन दो में से भी एक ने किसी का नाम नहीं भेजा और एक का प्रस्ताव देरी से आने की वजह से अवैध हो गया। लेकिन उसके बाद सब कुछ बदला गया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में गांधीजी की मौजूदगी में आचार्य जेबी कृपलानी से एक चिट्ठी ड्राफ्ट करवाई गई कि सरदार पटेल प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते हैं और वह चिट्ठी बढ़ा दी गई सरदार पटेल की ओर। उन्होंने गांधीजी की ओर देखा, उनकी ओर से कोई जवाब नहीं मिला तो चुपचाप चिट्ठी पर दस्तखत कर दिया। नेहरू वहां बैठे हुए थे, उनके मुंह से एक बार भी यह नहीं निकला कि जब सबने सर्वानुमति से सरदार पटेल को चुना है तो उन्हीं को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। उसके बाद भले ही सरदार पटेल मना कर देते और नेहरू के नाम का प्रस्ताव करते तो स्थिति दूसरी होती। लेकिन नेहरू चुप्पी साधे रहे। इंतजार करते रहे गांधीजी के हस्तक्षेप का। यह है उनके डेमोक्रेट होने का उदाहरण। अगर कोई इतना ही बड़ा डेमोक्रेट है तो उसके मुंह से कुछ तो निकलता- लेकिन कुछ नहीं निकला।
पार्टी के फैसले को नहीं मानते थे नेहरू
दूसरा उदाहरण 1950 का है। कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था, सरदार पटेल ने पुरुषोत्तम दास टंडन को उम्मीदवार बनाया था। उनके मुकाबले में नेहरू ने आचार्य कृपलानी को उतारा। आचार्य कृपलानी हार गए और पुरुषोत्तम दास टंडन जीत गए। उनकी जीत के कुछ महीने बाद ही सरदार पटेल का निधन हो गया। जैसे ही सरदार पटेल का निधन हुआ नेहरू जी ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया। पहले उन्होंने टंडन की वर्किंग कमिटी में काम करने से मना कर दिया। फिर जब माने तो धीरे-धीरे अलग-अलग फोरम से इस्तीफा देना शुरू कर दिया और आखिर में वर्किंग कमेटी से भी इस्तीफा दे दिया। पुरुषोत्तम दास टंडन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया गया। ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक बुलाकर उनके इस्तीफे को मंजूर कराया और खुद कांग्रेस अध्यक्ष बन गए। पार्टी के निर्वाचित अध्यक्ष को षड्यंत्र करके इस्तीफा देने पर मजबूर करना- ऐसे डेमोक्रेटिक थे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू। अगर उस समय टंडन जी अड़ जाते तो हो सकता है कि कांग्रेस में विभाजन की नौबत आ जाती। देश हित में टंडन जी ने यह स्वीकार करते हुए इस्तीफा दे दिया कि देश इस समय ऐसे दोराहे पर खड़ा है जब कांग्रेस का विभाजन ठीक नहीं होगा। तीसरा उदाहरण… खुद प्रधानमंत्री रहते हुए सब गोटियां बिठाकर अपनी बेटी इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवाया। ये है डेमोक्रेट होने का लक्षण।
राजेंद्र बाबू को नहीं बनाना चाहते थे राष्ट्रपति
चौथा उदाहरण… 1950 में देश के पहले राष्ट्रपति के चुनाव का है। उस समय पार्टी चाहती थी कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनें। जबकि नेहरू सी. राजगोपालाचारी उर्फ राजा जी को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। उन्होंने पार्टी की राय जाने बिना, पार्टी से संपर्क किए बिना, खुद से तय कर लिया कि राजा जी को पहला राष्ट्रपति होना चाहिए। इतना ही नहीं, उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को चिट्ठी लिखी कर उन पर दबाव डाला कि वे राजा जी के समर्थन में मैदान से हट जाएं। डॉ. राजेंद्र प्रसाद के समर्थक सरदार पटेल के पास पहुंचे और उनसे अनुरोध किया कि कुछ कीजिए। सरदार पटेल ने हंसते हुए कहा कि जब दुल्हा ही भाग गया तो बाराती कहां से चलेंगे। समर्थकों ने फिर कहा कि आप किसी तरह से स्थिति को संभाल लें नहीं तो यह ठीक नहीं होगा। तब सरदार पटेल ने कहा कि ठीक है, नेहरू को घेरकर मनवाते हैं। पार्टी की बैठक बुलाई गई जिसमें औपचारिक रूप से राजा जी के नाम का प्रस्ताव किया जाना था। बैठक में नेहरू जी सबसे पहले बोले। उन्होंने राजा जी की तारीफ की। तारीफ में सब कुछ कहा, जैसे कि विदेशों में उनकी छवि कैसी है, जो विदेशी मेहमान आते हैं वे उनके बारे में क्या कहते हैं आदि-आदि।
सरदार पटेल तो सरदार पटेल थे। उन्होंने भी तैयारी कर रखी थी। पीछे बैठे हुए जो नेता थे उन लोगों ने बोलना शुरू किया। उन्होंने कहा कि 1942 में जब गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया, उस महत्वपूर्ण मौके पर राजा जी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने जिन्ना का समर्थन किया जिसकी वजह से पाकिस्तान बनने को समर्थन मिला। ऐसे व्यक्ति को हम कैसे पहला राष्ट्रपति बना सकते हैं। मामला बिगड़ गया। धीरे-धीरे डॉ. राजेंद्र प्रसाद का समर्थन बढ़ने लगा। नेहरू जी और उनके करीबी लोगों को समझ में आ गया। अब सवाल था कि नेहरू जी की इज्जत कैसे बचाई जाए। बीच का फार्मूला निकाला गया और कहा गया कि यह फैसला जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल पर छोड़ देते हैं, दोनों मिलकर फैसला करेंगे। फैसला क्या हुआ, ये सभी जानते हैं। ये चार उदाहरण जो मैंने दिए हैं वह बताते हैं कि नेहरू जी और कुछ भी रहे हों, डेमोक्रेट तो बिल्कुल नहीं थे। इंदिरा गांधी को अध्यक्ष बनवाने का मामला छोड़ दीजिए तो बाकी तीनों में एक बात कॉमन है। वह यह कि जब तक सरदार पटेल थे तब तक नेहरू डेमोक्रेट थे। सरदार पटेल ने उन्हें डेमोक्रेट बनाए रखा और पार्टी की बात मानने पर मजबूर किया। उनके निधन के बाद उनका असली स्वरूप सामने आ गया।
मुस्लिमों तक सीमित थी नेहरू की धर्मनिरपेक्षता
अब दूसरा सवाल, क्या जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्ष थे? नेहरू जी की धर्मनिरपेक्षता सिर्फ मुस्लिमों तक ही सीमित थी। 1955 में संसद में हिंदू कोड बिल आया। इसे लेकर संसद में नेहरू जी की आलोचना आचार्य कृपलानी ने की, जो सिर्फ पांच साल पहले तक कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नेहरू जी की पसंद थे। उनके समर्थक थे जिन्होंने वर्किंग कमेटी में वह लेटर ड्राफ्ट किया था जिस पर सरदार पटेल ने दस्तखत किया था जिससे नेहरू प्रधानमंत्री बने थे। आचार्य कृपलानी ने संसद में खड़े होकर कहा कि मैं आपके ऊपर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा रहा हूं। आपने जानबूझकर एक विवाह का कानून सिर्फ हिंदुओं के लिए बनाया, मुसलमानों के लिए नहीं। मैं यह जानता हूं कि मुसलमान भी इस कानून के लिए तैयार थे लेकिन आपने तुष्टिकरण के चलते ऐसा नहीं किया। आप में हिम्मत नहीं है ऐसा करने की। एमसी छागला, देश के जाने-माने कानूनविद, मुंबई हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे, नेहरू सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे, राजदूत रहे, उन्होंने अपना संस्मरण लिखा है ‘रोजेज इन दिसंबर’। अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा है कि नेहरू ने हिंदू कोड बिल पास कराने में बड़ी हिम्मत और तत्परता दिखाई। लेकिन वैसे ही हिम्मत और तत्परता मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के मामले में नहीं दिखाई। इस डर से कि मुसलमान विरोध करेंगे, वे हिम्मत नहीं जुटा पाए। संविधान सबके लिए बराबर है। संविधान अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक देखकर लागू नहीं होता है। सब पर समान रूप से लागू होता है। ये बात एमसी छागला ने कही।
तुष्टिकरण को दिया बढ़ावा
नेहरू की जो धर्मनिरपेक्षता थी उसने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार को रोका और तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया। नेहरू की इस तुष्टिकरण नीति को आगे चलकर कांग्रेसियों ने अपना बाइबल-कुरान बना लिया और इसको बदल दिया वोट बैंक में। इसका नतीजा शाहबानो के मामले से लेकर सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसले जिस तरीके से बदले गए, उसमें दिखाई दिया। तुष्टिकरण की राजनीति कांग्रेस को, देश को- भारी पड़ी। अभी भी पड़ रही है फिर भी उसे छोड़ा नहीं है। आठ साल पहले जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, उन्होंने बयान दिया कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। देश का प्रधानमंत्री यह कैसे कह सकता है जिसने संविधान की शपथ ली है। संविधान में ऐसी कोई बात कही गई है क्या कि देश के संसाधनों पर पहला हक किसका होगा। यह नेहरू के समय बनाई गई वही मानसिकता है। इसका नतीजा यह हुआ कि इस देश का मुसलमान हमेशा के लिए हिंदूफोबिया का शिकार हो गया। उसको डरा कर रखा गया कि अगर तुम्हें सुरक्षित रहना है तो हमको वोट दो। नेहरू की जो धर्मनिरपेक्षता थी उसमें हिंदू और हिंदुत्व पर भरोसा नहीं था। उन्होंने लिखा भी है। उन्होंने हिंदू सांप्रदायिकता को मुस्लिम फंडामेंटलिज्म से ज्यादा खतरनाक माना है।
फासिस्ट स्टालिन को बताया डेमोक्रेट
एक और उदाहरण देता हूं। नेहरू की जो सोच थी वह इस देश की संस्कृति से कहीं नहीं जुड़ती थी। 1948 में कॉमन वेल्थ कॉन्फ्रेंस से लौटकर उन्होंने सरदार पटेल को चिट्ठी लिखी। उसमें लिखा कि बाहर हमारी आलोचना हो रही है कि हमने ऐसे कानून बनाए हैं कि बिना ट्रायल के डिटेंशन होता है। मजदूर यूनियनों के बारे में यह मामला था। इसके अलावा उन्होंने कहा कि इंग्लैंड में लोगों की यह धारणा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) सांप्रदायिक और फासिस्ट है। इसलिए इस समय संघ से प्रतिबंध हटाना ठीक नहीं होगा। इसका संदेश यह जाएगा कि हम सांप्रदायिक और फासिस्ट ताकतों को बढ़ावा दे रहे हैं। संघ पर प्रतिबंध लगा था फरवरी 1948 में। नेहरू की इस चिट्ठी का सरदार पटेल पर कोई असर नहीं हुआ। जुलाई 1949 में संघ से प्रतिबंध हटा दिया गया। इस प्रतिबंध के हटने में सरदार पटेल की बड़ी भूमिका थी। संघ को फासिस्ट बताने वाले नेहरू जब पहली बार सोवियत संघ की यात्रा पर गए, स्टालिन उस समय वहां के राष्ट्रपति थे। उन्होंने कहा कि वे तीर्थ यात्रा पर आए हैं। एक फासिस्ट के देश में जाकर आप कह रहे हैं कि तीर्थ यात्रा पर आए हैं। उन्होंने कहा कि स्टालिन ने युद्ध के समय जो भी किया हो, उसके अलावा उनके जितने भी प्रयास रहे हैं वे शांति के लिए रहे हैं। साइबेरिया के कंसंट्रेशन कैंप में लाखों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतारने वाले स्टालिन को डेमोक्रेट होने का, शांतिदूत होने का सर्टिफिकेट जवाहरलाल नेहरू दे रहे थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फासिस्ट बता रहे थे। यह नेहरू की सोच थी।
उनकी नजर में आरएसएस फासिस्ट हो, यह बात तो समझी जा सकती है। लेकिन स्टालिन को जो व्यक्ति फासिस्ट मानना तो दूर, एक तरह से डेमोक्रेट होने का, शांतिदूत होने का सर्टिफिकेट दे रहा है, उसके बारे में तो निश्चित रूप से सोचना चाहिए कि उसमें कुछ तो समस्या है। समस्या वही थी कि भारतीय संस्कृति, हिंदू धर्म से उनको चिढ़ थी। उसी कारण आपको उनके ये सब बयान दिखाई देते हैं। इसी को ढकने के लिए उनके इतिहासकारों ने, उनके जीवनीकारों, उनकी पार्टी और उनके समर्थक आज तक इन सब चीजों को दबाने की कोशिश कर रहे हैं। एक नेहरू भक्त आज भी खुलेआम कहते हैं कि मैं नेहरू भक्त हूं। मैं रामचंद्र गुहा की बात कर रहा हूं। वे अपने को इतिहासकार मानते हैं। एक घोषित और प्रूव्ड अधिनायकवादी को, फासिस्ट को सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ही डेमोक्रेट और शांतिदूत बता सकते हैं। ये तो हुए दो मुद्दे। तीसरा मुद्दा है कि वे बोलने की स्वतंत्रता के बड़े समर्थक थे। नेहरू के इतिहासकारों, उनके जीवनीकारों, लेखकों और समर्थकों कि बातें आप सुनें, उनके लेख और किताबें पढ़ें तो लगेगा कि हिंदुस्तान में उनसे बेहतर इस मुद्दे पर कोई हुआ ही नहीं। नेहरू से ज्यादा सहिष्णु तो कोई हुआ ही नहीं।
अभिव्यक्ति की आजादी के नहीं थे समर्थक
अब इस संबंध में पहला उदाहरण देता हूं गीतकार और शायर मजरूह सुल्तानपुरी का। उन्होंने एक कविता लिखी नेहरू पर। उस कविता में उन्होंने नेहरू को हिटलर और कॉमनवेल्थ का गुलाम बताया। इसकी सजा उनको दो साल जेल में रहकर काटनी पड़ी। नेहरू के शासनकाल में लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी। इसके बावजूद आठ बार राष्ट्रपति शासन लगा। इनमें से ज्यादातर चुनी हुई और बहुमत वाली सरकारों को बर्खास्त किया गया। इतना ही नहीं, उनको यह अवसर भी नहीं दिया गया कि वे विधानसभा में अपना बहुमत साबित कर सकें। ऐसा इसलिए क्योंकि नेहरू उनसे सहमत नहीं थे। इसलिए उन सरकारों को जाना पड़ा। चाहे 1951 में पंजाब की सरकार हो, 1958 की सीपीआई की सरकार हो, 1954 की आंध्र प्रदेश की सरकार हो- इन सबको फ्लोर टेस्ट का मौका नहीं दिया गया और बर्खास्त कर दिया गया। संविधान में पहला संशोधन ही नेहरू जी लेकर आए थे। वह भी प्रेस फ्रीडम पर अंकुश लगाने के लिए। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस बात के समर्थक थे कि प्रेस को पूरी आजादी होनी चाहिए। मगर नेहरू जी का कहना था कि मीडिया इस देश के युवाओं के मन में जहर भर रहा है। यही बात अगर आज नरेंद्र मोदी कह दें तो देखिएगा कि देश से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक कैसे हंगामा मचता है। लेकिन नेहरू तो डेमोक्रेट थे, वे तो अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे बड़े पुरोधा थे, उनको कौन कहेगा।
एक विदेशी लेखक थे स्टैंडली वोलफर्ड, उनकी किताब थी ‘9 आवर्स टू रामा’। वह किताब 1962 में प्रतिबंधित कर दी गई। दूसरी किताब एलेक्जेंडर कैंपबेल की जिस पर 1959 में पाबंदी लगा दी गई। उसमें भारत की नौकरशाही और भारत की आर्थिक नीतियों को फिक्शन की तरह, मजाक के रूप में पेश किया गया था। यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ नेहरू जी से। वह हास्य व्यंग्य था, वास्तविकता नहीं थी। उसमें किसी नौकरशाह- या मंत्री- या किसी सरकार का- नाम नहीं था। फिर भी पुस्तक पर पाबंदी लगा दी गई। पहला संविधान संशोधन क्यों आया, कैसे आया, कैसे लागू हुआ, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कैसे अंकुश लगाया गया- सरकार की आलोचना को देश विरोधी काम मानते थे नेहरू जी। इन सब उदाहरणों से पता चलता है कि वे कितने बड़े डेमोक्रेट थे, अभिव्यक्ति की आजादी के कितने बड़े समर्थक थे। ऐसे सैकड़ों किस्से आपको मिलेंगे। उन सबको दबाया गया और गलत रूप में पेश किया गया। अब जब सच्चाई बाहर आ रही है तो यह कहा जा रहा है कि सांप्रदायिक और फासिस्ट लोग एक डेमोक्रेट को उनके जाने के इतने साल बाद भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। सच्चाई की एक आदत होती है कि वह अलग-अलग तरीकों से निकल कर सामने आती रहती है। उसको आप कुछ समय के लिए दबा सकते हैं, छुपा सकते हैं- हमेशा के लिए न तो दबा सकते हैं और न छुपा सकते हैं।