आपका अखबार ब्यूरो।
“रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है।” प्रेमचंद की मशहूर कहानी ईदगाह आपने पढ़ी होगी।
“सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पांच साल का गरीब सूरत, दुबला पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मां न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है।” आगे आपको पता ही होगा कि ईद के मेले में विभिन्न चीजों को देखकर कैसे वहां मन मसोसकर रह जाता है। आप चाहें तो पूरी कहानी इस लिंक पर पढ़ सकते हैं:
लेकिन ये 2022 है। ईद है- ईदगाह है- और हामिद भी है… लेकिन अब हामिद की स्थिति पहले जैसी नहीं रही- इसी पर आधारित एक सामयिक कविता देखिए।
ईदगाह का हामिद
शिवचरण चौहान।
पहले जैसा नहीं रहा अब
ईदगाह का हामिद।
गूगल डोंगल चला रहा अब
ईदगाह का हामिद।।
गैस उज्ज्वला, घर में आई
फ्री में गेहूं चावल।
फ्री में नमक, तेल, पानी सब
बता गया पतरावल।
खुशी खुशी अब देख रहा सब
ईदगाह का हामिद।।
दादी को पेंशन आती है
खाते में हर महिने।
नहीं उंगलियां जलें तवे में
चिमटे के क्या कहने।
कालिज में पढ़ रहा आज अब
ईदगाह का हामिद।।
अब भी लगते ईदगाह में
पहले जैसे मेले।
आते हैं अब नए खिलौने
जो मन भाए ले ले।
बैठे गूगल चला रहा अब
ईदगाह का हामिद।।
पहले जैसा नहीं रहा अब
ईदगाह का हामिद।।