क्या साहित्य इतना छोटा या राजनीति इतनी ऊँची हो गयी है।
सत्यदेव त्रिपाठी।
हम पिछले चार दिनों से रोम-रोम से पुलकित हैं कि जिस हिंदी साहित्य को पढ़-पढ़ा के रोज़ी-रोटी कमायी, जीवन जीया, उससे प्यार भी किया… उसे अब पहली बार विश्व स्तर पर सम्मान मिला है, उसकी नयी पहचान बनी है- साख बढ़ी है… गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को बुकर सम्मान से नवाज़ा गया है।
शुभकामना नहीं आई
चारो तरफ़ चर्चा है। ख़ुशियाँ हैं। प्रशंसाएँ हैं। अख़बारों में सम्पादकीय लिखे जा रहे… अग्रलेखों की भरमारें हो रहीं… लेखिका के खूब सारे साक्षात्कार लिये-छापे जा रहे। साहित्य से बिलकुल अपरिचित शख़्स भी आज गीतांजलि श्री को, उनके उपन्यास ‘रेत समाधि’ को नाम से व फ़ोटो देखकर चेहरे से भी जानता है। कल भले भूल जाये, पर आज तो सबकी ज़ुबान पर है। लेकिन अलस्सुबह अख़बार पढ़ते हुए सहसा याद आया कि किसी बड़े नेता, मंत्री-संत्री की बधाई या शुभकामना नहीं आई!
यह मेरी सीमा भी हो सकती है कि न देख पाया, पर मुख्य धारा में तो कहीं नज़र नहीं आया! इसी से मन में यह सवाल उठा कि क्या साहित्य इतना छोटा, इतना नामाकूल हो गया है कि उसकी सबसे बड़ी खबर भी राजनीति के हल्के में एक बुलबुले बराबर भी औक़ात नहीं रखती।
ऊंचे लगे फल को पाने को हाथ उठाये कोई बौना
साहित्य इतना छोटा हो गया है या राजनीति इतनी ऊँची हो गयी है कि साहित्य उसके सामने बौना हो गया है। कवि कुलगुरु कालिदास एक उपमा भी दे गये हैं –प्रांशुलभ्ये फले लोभादुबाहुरिव वामन:’– यानी ऊंचे लगे फल को पाने के लिए हाथ उठाये कोई बौना। क्या शासन के सामने साहित्य की यही स्थिति है?
उन्होंने लिखा भी है ‘रघुवंश’ में उसी वंश के राजाओं के लिए ही- ‘क्व च सूर्यप्रभवो वंश:, क्व चाल्प विषया मति:’– कहाँ सूर्य-सा तेजस्वी वंश और कहाँ अत्यल्प मति मैं! पता नहीं यह उनकी विनम्रता थी और वे अपने समय के राजाओं के प्रति आदर व्यक्त कर रहे थे या उनके प्रति क्षोभ था और वे उन पर तंज कर रहे थे।
राजनीति व साहित्य
राजनीति व साहित्य का यह रिश्ता उभयमुखी तो रहा है। आधुनिक काल में नेहरूजी का साहित्य-प्रेम जग ज़ाहिर है। दरबान से ‘नेहरूजी व्यस्त हैं’ सुनकर जब महादेवीजी खड़े-खड़े वापस जाने लगी थीं, तो खबर लगते ही दौड़े-दौड़े नेहरूजी आये और उन्हें मनाते हुए ले गये… जैसे तेज वाक़ये के अलावा भी बहुतेरे प्रसंग हैं। तो वहीं नेहरूजी के सामने जगन्नाथ पहाड़िया जैसे अदने मुख्यमंत्री उसी महादेवी के लिए हिक़ारत व्यक्त करने पर ख़ासे कुख्यात भी हुए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास साहित्य के लिए कभी इतना समय था कि ‘बच्चन-रचनावली’ के विमोचन-समारोह में वे उद्घाटन पर आयीं, पर दिन भर बैठी रह गयीं- बच्चनजी के कहने पर भी नहीं गयीं।
कितना गिनाएँ… दुतरफ़ा उदाहरण बहुत हैं। यह रिश्ता जितना सहज-शालीन होना चाहिए, कभी रहा नहीं। यह सब कुछ साहित्यकार की औक़ात ही नहीं, शासकवर्ग से उसके सम्बंधों पर भी निर्भर करता है- बल्कि यही निर्णायक होता है।
दोनो की बावत अपने अल्प ज्ञान व अत्यल्प पहुँच के बल मैं इतना तो जानता हूँ कि आज की सत्ता इतनी दम्भी व आत्मकेंद्रित नहीं कि ऐसी सहज व पहली-इकली उपलब्धि के इस्तक़बाल में कंजूसी करे। बल्कि इतनी उदार, व्यावहरिक व संवेदनशील है कि बिना देर लगाये ऐसा करे। फिर भी ऐसा हुआ, जो चिंतनीय है। सोचनीय यह भी है कि व्यवस्था में शीर्ष पदासीनों के मातहत कर्मचारियों को भी याद ना आया कि औपचारिकता का तक़ाज़ा ही पूरा हो जाये।
उस्लू-ए-सियासत पर हँसी आयी बहुत
जहां तक गीतांजलिजी की बात है, वे ऐसे विनिमयी रिश्ते से कोसों दूर हैं। अपने मन व विचार के अनुसार लिखती हैं। ऐसा कहने का आधार भी उनका लेखन व उससे मेरी मामूली सी वाकफ़ियत है। जब सक्रिय था, तो ‘माई’, ‘हमारा शहर उस बरस’, ‘तिरोहित’ व ‘ख़ाली जगह’ पढ़ा था। ‘रेत समाधि’ मंगाया है, अभी पढ़ न सका। ‘माई’ बहुत अच्छा लगा था। ‘हमारा शहर…’ अच्छा लगा, पर आकार के अनुपात में कम अच्छा। इन दोनो पर लिखा नहीं। लेकिन बाक़ी दोनो पर ‘वर्तमान साहित्य’ में लिखा भी- ‘तिरोहित’ में डूबा-बहा व उतराया भी- लेकिन ‘ख़ाली जगह’ तो साहित्य में मुझे रिक्त स्थान ही लगा था। न मुझे जनाना था कि लिखा, न उन्हें इसका पता लगा होगा। यह एक पाठक व रचनाकर का निछद्दम रिश्ता है- नामचीन बिलकुल नहीं, पर नितांत अनाम भी नहीं।
और रिश्ते के इसी अहसास व साहित्यमात्र से प्रेम की जानिब से जब आज यह ख़्याल आया, तो ‘उस्लू-ए-सियासत पर हँसी आयी बहुत’। और ‘मस्लहत का जज़्ब ऐसा था कि चुप रहना पड़ा’ के बदले चुप न रहा गया । वह हँसी किंचित क्षोभ व आक्रोश में बदली, तो ये पंक्तियाँ निकल आयीं। आज के युग में जीवन व समाज के सारे क्षेत्रों में भयंकर अवमूल्यन हुआ है। तमाम सांस्कृतिक विरासतें भौतिकता की बलि चढ़ गयी हैं, पर इतना भी सब कुछ सूख नहीं गया है कि अपनी प्रमुख भाषा की बावत ऐसे बड़े और पहले अवसर पर भी देश के किसी कर्णधार का ध्यान ही न जाये।
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)