दिनेश श्रीनेत।
‘रेत समाधि’ पर इन दिनों जिस तरह की टिप्पणियां सोशल स्पेस में घूम रही हैं, उससे यही पता लगता है कि हिंदी पट्टी का पाठक अभी भी जैसे ‘पाषाण युग’ में जी रहा है। साहित्य की आधुनिक संवेदनाओं और भाषा के प्रयोगों से अभी भी अपरिचित है।
भाषा और वाक्य विन्यास पर सवाल
एक पेज शेयर करके बहुत से लोग गीतांजलि श्री के इस उपन्यास की भाषा और वाक्य विन्यास पर प्रश्नचिह्न उठा रहे हैं। कुछ को तो इसमें प्रूफ़ तक की गलतियां नज़र आ रही हैं। इससे यह समझ में आता है कि हिंदी के ज्यादातर पाठक – इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जो साहित्य लेखन, आलोचना अथवा विमर्श के क्षेत्र में सक्रिय हैं – अभी भी भावबोध और शिल्प की समझ के स्तर पर प्रेमचंद से आगे बढ़ ही नहीं पाए हैं। जेम्स जॉयस के उपन्यास ‘यूलीसिस’ का अंतिम पैराग्राफ चार हजार शब्दों का था। होसे सारामागो अपने पात्रों के कथोपकथन के लिए आम तौर पर किसी तरह के पंक्चुएशन का प्रयोग नहीं करते। यह तो सिर्फ दो उदाहरण हैं, ऐसे तमाम प्रयोगों से विश्व साहित्य भरा पड़ा है। इतना ही नहीं ‘स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस’ का प्रयोग तो हिंदी में भी खूब देखने को मिलता है। उर्दू फिक्शन में भी भाषा और नैरेटिव के खूब प्रयोग हुए हैं। खालिद जावेद का नया उपन्यास ‘एक ख़ंजर पानी में’ बिल्कुल सपाट पैराग्राफ शैली में लिखा गया है। यानी उपन्यास के नैरेटर और पात्रों के संवाद को अलग करने की कोई युक्ति इस्तेमाल ही नहीं की गई है। मगर यह यथार्थ को देखे जाने की अलग दृष्टि देता है।
हिंदी पुस्तक बनाम अंग्रेजी अनुवाद
एक और कुतर्क चल रहा है कि “पुरस्कार तो अंगरेजी को मिला है न, हिंदी को थोडे़ न मिला है, इसमें अनुवाद की भूमिका है, लेखिका का क्या लेना-देना?” उनसे कोई पूछे कि अंगरेजी के अलावा हम जिन दूसरी भाषाओं के महान लेखकों को जानते हैं क्या हर एक को मूल भाषा में पढ़ते हैं? क्या हम कभी ये कहते हैं कि काफ़्का की ‘द ट्रॉयल’ मूल नहीं उनका अंगरेजी अनुवाद अद्भुत है, या ‘युद्ध और शांति’ रूसी भाषा में तोलस्तोय के लिखे जाने से नहीं अपने अंगरेजी अनुवादक की वजह से महान है। साहित्य का अनुवाद भाषा में मूल कंटेंट की पुनर्रचना है। वह मूल कथ्य का भाषाई प्रतिबिंब है। दुनिया के तमाम महान लेखक एक साथ 15-20 भाषाओं में छपते हैं, तो क्या वो 15-20 अलग-अलग किताबें होती हैं? जाहिर है बुकर पुरस्कार अंगरेजी अनुवाद को ही मिलेगा, जैसे ‘गीतांजलि’ के अंगरेजी अनुवाद को नोबल पुरस्कार मिला। तो सीधी सी बात यह सम्मान उसी उपन्यास के लिए है जिसे गीतांजलि श्री ने हिंदी में ‘रेत समाधि’ के नाम से लिखा है।
आत्ममुग्धता से बचे हिंदी समाज
तीसरा कुतर्क, इस पुरस्कार से खुश होने वाले दरअसल उपनिवेशवादी मानसिकता के हैं। उपनिवेश तो कब के खत्म हो चुके हैं, वे शायद खुद उपनिवेश काल में जी रहे हैं। आप 1995 से एक वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच हैं। बीते 26-27 सालों में लगभग हर क्षेत्र में सरहदें टूटी हैं, सिनेमा, फैशन, संगीत। हिंदी साहित्य ही पीछे रह गया है। न तो हिंदी पाठकों के लिए विदेशी साहित्य के अच्छे अनुवाद मौजूद हैं और न ही हिंदी में जो कुछ बेहतर लिखा जा रहा है वह दुनिया की दूसरी भाषाओं में उपलब्ध है। विश्व के श्रेष्ठ साहित्य की समझ के लिए आपको अंगरेजी का सहारा ही लेना पड़ेगा। ऐसी बाध्यता क्यों है कि आपको फ्रैंच, तुर्की, जापानी लेखकों को अंगरेजी में पढ़ना पड़ता है, ये सीधे हिंदी में क्यों नहीं अनुदित होते? हिंदी में जिस उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सालिट्यूड’ को हम आधुनिक लेखन का उदाहरण समझ पढ़ते और विमर्श करते हैं, उसका अंगरेजी अनुवाद प्रकाशित हुए भी 50 साल बीत गए।
फिर किस भाषा पर हम गर्व कर रहे हैं? उस पर जिसमें दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य तक का एक्सेस नहीं है, लिखा जाना तो अभी बाद की बात है। महात्मा गांधी के नाम पर वर्धा में बने अंतरर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में करोड़ों का बजट आता होगा, इतने सालों से अनुवाद के प्रोजेक्ट पर काम क्यों नहीं कराए गए? हमारे अनुवादकों को बेहतर पारिश्रमिक कौन दे ताकि बेहतर रचनाएं हमारी भाषा में उपलब्ध हो सकें?
बेहतर होगा कि हिंदी समाज अपनी आत्ममुग्धता से बचे। हम यह देखना-समझना शुरू करें कि दुनिया में क्या लिखा-पढ़ा जा रहा है। उसे भी छोड़ दें, भारत की विभिन्न भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है? कन्नड़, मराठी, उड़िया और बंगाली साहित्य में इन दिनों किन विषयों पर बात हो रही है? आपके पड़ोसी देशों का साहित्य कहां पहुँचा है? कुछ नहीं तो पाकिस्तान की तरफ ही झांक लें ! कुँए का मेढक बनने से बचें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। आलेख सोशल मीडिया से)