प्रदीप सिंह।
सूफी संतों और सूफीज्म के बारे में देश में भ्रांति पूर्ण धारणा है कि ये कट्टर इस्लाम से अलग है। इसके बारे में यह छलावा है कि यह भारत की योग साधना के आसपास है। हम आप में से लाखों-करोड़ों लोग ऐसे हैं जो सनातन धर्म को मानने वाले हैं। वे सूफी संतों की मजारों पर और दरगाह पर जाते हैं। अजमेर शरीफ के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाने वाले हिंदुओं की संख्या तो मुसलमानों से कई गुना ज्यादा है- बिना यह जाने हुए कि सच्चाई क्या है, बिना यह समझे हुए कि हम कर क्या रहे हैं।
सनातन धर्म की आज जो स्थिति है वह ऐसे ही नहीं है। यह हमारे नजरअंदाज करने और कई मामलों में जानबूझकर नजरअंदाज करने से और कुछ मामलों में सर्वधर्म समभाव की धारणा की वजह से है। सर्वधर्म समभाव का यह मतलब होता है कि जो आपकी हत्या कर चुके हैं- जो आपकी पुरानी पीढ़ियों को मारने के लिए दोषी हैं- जो बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन के लिए दोषी हैं- उन सबको हम भूल जाएं और आगे की सोचें। आगे की सोच क्या है? किसी को माफ कर देना एक चीज है लेकिन अपने ऊपर हुए अत्याचार को भूल जाना नए अत्याचार के लिए खुद को तैयार करने जैसा है।
गंगा जमुनी तहजीब का पाखंड
सनातन धर्म के लोग सदियों से यही कर रहे हैं। गंगा जमुनी तहजीब को लेकर जो पाखंड है उसी तरह से सूफीज्म को लेकर एक धारणा हिंदुओं के मन में है। मुसलमानों के मन में इस बारे में कोई शक, कोई शुबह नहीं है। विभिन्न धर्मों का स्वागत करते-करते हम इतने उदार हो गए कि हमको यह समझ में ही नहीं आया कि क्या हमारे हित में हैं और कौन हमारे हित में हैं। किसने हमारी मदद की, किसने हमारा नुकसान किया- किसने हमारे साथ अत्याचार किया, बर्बरता की। यह सब हम भूल गए और इसका फायदा उठाया सूफीज्म ने। यह इस्लाम का ही एक धड़ा है। आमतौर पर यह माना जाता है कि सूफी संत बड़े नेक दिल, बड़े रहम दिल और हिंदू धर्म के बड़े करीब हैं। हिंदू धर्म का, हिंदुओं का बड़ा सम्मान करते हैं और हिंदुओं से मेलजोल बढ़ाना चाहते हैं। ये सारी धारणाएं पूरी तरह से गलत हैं। अगर इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो आपको समझ में आएगा कि हम कितने बड़े भ्रम में बरसों से जी रहे हैं। इस्लाम में सनातन धर्म को लेकर जो भाव है उस पर सूफीज्म भ्रम का एक आवरण चढ़ा कर रखता है। यह उनकी भावना को आम लोगों से छिपाने का एक आवरण है। सूफीज्म में- और इस्लाम के जो दूसरे धड़े हैं- उनमें कोई अंतर नहीं है। वे एक ही तरीके से काम करते हैं। हमारे आपके दिमाग में यह गलतफहमी है कि यह उनसे अलग है।
सूफी संतों को लेकर हिंदुओं में भ्रम
सूफीज्म की शुरुआत हिंदुस्तान में हिंदू साम्राज्य में घुसपैठ के साथ हुई। गुजरात के चालुक्य साम्राज्य में सूफी संत सबसे पहले आए। गुजरात के तटीय इलाकों से हिंदुस्तान के बाहर के जो इस्लामिक सल्तनत थे उनको यहां की खुफिया सूचना ये सूफी संत भेजते थे। उनको अपनी सूचना के आधार पर इसका इंतजार रहता था कि कब मुस्लिम सुल्तान भारत पर आक्रमण करते हैं। ये एक तरह से इस्लामी देशों के जासूस का काम करते थे। ये उन्हें सामरिक सूचनाओं से लेकर हर तरह की सूचनाएं देते थे। जैसे- आक्रमण करने पर किस तरह का विरोध हो सकता है या विरोध नहीं हो सकता है- कहां आक्रमण करने में आसानी होगी- किस तरफ से आना चाहिए- ये सारी जानकारी उपलब्ध कराई जाती थी। इनमें बहुत ऐसे थे जो मुस्लिम साम्राज्य के सुल्तान की सलाहकार मंडली में शामिल थे। वहां तक उनकी पहुंच थी। इसलिए सल्तनत के नीति निर्धारण में ये बड़ी भूमिका निभाते थे। वे सिंहासन के पीछे की ताकत बन चुके थे। इसलिए हिंदुस्तान को लेकर जो खबरें आती थी उससे उनका असर ज्यादा होता था। सूफी संतों के जरिये 14वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी के बीच में पूरे हिंदुस्तान में बड़े पैमाने पर मदरसे खोले गए- खासतौर से दक्षिण भारत में। इसके जरिये इस्लाम का प्रचार शुरू हुआ। इस्लाम के विस्तार करने का आधार बने सूफी संत। इन्हीं मदरसों से इन्होंने अपने संदेश भेजे थे- यहीं से अपनी प्रचार सामग्री का प्रसारण करते थे,-यहीं से लिखते थे। ये केंद्र उनके प्रचार का एक जरिया बन गए थे। हिंदुओं को यह गलतफहमी हो गई कि ये जो संप्रदाय है यह हिंदू आध्यात्मिकता के ज्यादा करीब है। उससे इसका जुड़ाव है। इस आवरण को बनाए रखने में सूफी संगीत ने और ज्यादा मदद की। इस्लाम में संगीत को हराम माना जाता है लेकिन सूफी संत संगीत में यकीन रखते हैं।
हिंदू-मुस्लिम विवाद की जड़ हैं मोइनुद्दीन चिश्ती
अजमेर शरीफ की दरगाह पर सालाना लाखों की संख्या में हिंदू चादर चढ़ाने जाते हैं। उनको पता नहीं है कि जिस मोइनुद्दीन चिश्ती की ये दरगाह है उन्होंने ही हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद की शुरुआत की थी। उन्हीं के समय में इसकी शुरुआत हुई। हिंदू विरोधी प्रचार में उनका सबसे बड़ा योगदान है। मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर बड़ी श्रद्धा से हिंदू चादर चढ़ाने जाते हैं बिना यह जाने हुए कि उनका अतीत क्या है, उनका इतिहास क्या है, उनका काम क्या है और वह किस बात के लिए जाने जाते हैं। दूसरों की बात तो छोड़ दीजिए, एक मुस्लिम स्कॉलर ने लिखा है कि सूफी और चिश्ती ने धर्म परिवर्तन कराने में बड़ी भूमिका निभाई। बड़े पैमाने पर पूरे देश में धर्म परिवर्तन का अभियान चलाया। धर्म परिवर्तन का जो अभियान चिश्तियों के समय शुरू हुआ वह रुका निजाम अलाउद्दीन औलिया के समय में। निजाम अलाउद्दीन औलिया ने इसे इसलिए नहीं रुकवाया कि हिंदुओं के प्रति उनका प्रेम बढ़ गया था या हिंदुओं के प्रति उनका नजरिया बदल गया था या इस्लाम को लेकर मन में कोई और सवाल आ गया था। यह किसलिए रुका- इस बारे में आप जानेंगे तो आपको आश्चर्य होगा और शायद शर्म भी आएगी। यह इसलिए रोका गया कि यह कहा गया कि जो हिंदू हैं उनमें सभ्यता नहीं है, उनमें सुघड़ता नहीं है। वे इस लायक नहीं हैं कि उनको इस्लाम में लाया जाए। उनको इस्लाम में लाने से पहले यह जरूरी है कि वे कुछ समय तक मुस्लिम मौलवियों के साथ समय गुजारें, उनके सानिध्य में रहें। उनकी संगत में रह कर सभ्यता और सुघड़ता सीखें।
हिंदुओं के प्रति घृणा
दस हजार साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति के वाहक को बताया जा रहा था कि वे सुघड़ नहीं हैं, उनकी बराबरी में बैठने के लायक नहीं हैं। एक सज्जन हुए हैं अहमद सरहीदी जिनकी बड़ी प्रशंसा होती है मुस्लिम समुदाय और हिंदू समुदाय में भी। सेक्युलर ब्रिगेड भी उनकी धर्म परायणता को लेकर उनकी बहुत प्रशंसा करती है । हिंदुओं के बारे में उनके विचार जानेंगे तो आपको आश्चर्य होगा। उन्होंने लिखा है कि शरीयत का प्रचार और प्रसार तलवार के साये में होता है। तलवार की ताकत सबसे बड़ी ताकत है और जो काफिरों का सम्मान करता है वह इस्लाम का अपमान करता है। उनकी नजर में इस्लाम को नहीं मानने वाला काफिर है। तो फिर हिंदू काफिर हैं। काफिरों का सम्मान करना, उनसे मेलजोल बढ़ाना, उनसे दोस्ती करना इस्लाम का अपमान है। ये कहा है अहमद सरहीदी ने। उन्होंने कहा है कि अगर उनको सम्मान देना पड़े तो इसलिए नहीं कि वे इनके लायक हैं बल्कि इसलिए कि उनके साथ बैठकर बातचीत हो सके।लेकिन इसके लिए उनको कुत्तों की तरह अलग रखना चाहिए। अब आप देखिए कि कितनी नफरत का भाव, कितना घृणा का भाव भरा हुआ है। सूफी संत वलीउल्ला ने अहमद शाह अब्दाली को बार-बार चिट्ठी लिखकर भारत पर आक्रमण करने को कहा। अब्दाली से उन्होंने कहा कि भारत पर आक्रमण करना आपका कर्तव्य है और भारत पर आक्रमण के जरिये ही इस्लाम का प्रभुत्व कायम किया जा सकता है।ये चिट्ठियां उस समय लिखी गई जब औरंगजेब का पराभव हो चुका था। वह मारा जा चुका था। उसके बाद मुगल सल्तनत धीरे-धीरे अपने क्षरण की ओर बढ़ रही थी। ऐसे समय में ये सूफी संत अहमद शाह अब्दाली को निमंत्रण दे रहे थे कि आओ- भारत पर आक्रमण करो- और इस्लाम का राज्य स्थापित करो।
दरगाह पर जाने से पहले पता करें सच्चाई
आप जब भी देश में कहीं भी किसी मजार पर, किसी दरगाह पर जाएं तो जरा पता कीजिए कि वह कौन है- किसकी दरगाह है- उसका अतीत क्या है- इतिहास क्या है- उन्होंने अपने जीवन में क्या किया। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप दूसरे धर्मों का अपमान कीजिए, दूसरे धर्मों को हिकारत की नजर से देखिए। सभी धर्मों का सम्मान कीजिए लेकिन अगर आप सनातन धर्म के मानने वाले हैं तो आप से ज्यादा सुघड़ और सुसंस्कृत और कोई नहीं है- यह मान कर चलिए। ये जो हिंदुओं में भाव भर दिया गया है हीनता का, कमतरी का, इसलिए आपको पहचान होनी चाहिए कि कौन दोस्त है- और कौन दुश्मन। किसने आपके साथ अच्छा किया और किसने बुरा किया। ऐसे व्यक्ति की दरगाह पर जाने का क्या मतलब है जो धर्म परिवर्तन कराने, हिंदुओं का कत्ले-आम करने, उन पर जजिया कर लगाने और उनको दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के लिए जिम्मेदार हो। जो इस देश पर आक्रमण के लिए बाहरी आक्रमणकारियों को न्योता देता हो- जो इस देश की खुफिया सूचनाएं बाहर पहुंचाता हो- उसके प्रति अगर आपके मन में श्रद्धा का भाव है तो आप समझ लीजिए कि आपमें कुछ बुनियादी कमी है।
‘द ट्रैजिक स्टोरी ऑफ पार्टीशन’
सूफियों के बारे में अगर आपको ज्यादा विस्तार से जानना है कि उनकी क्या भूमिका रही है इस देश के इतिहास में तो आपको एचवी शेषाद्री की पुस्तक “द ट्रैजिक स्टोरी ऑफ पार्टीशन” को पढ़ना चाहिए। उसमें उनके बारे में विस्तार से बताया गया है। पूरी जानकारी के बाद भी आपका मन इस बात की गवाही देता है कि उनकी दरगाह पर चादर चढ़ाना है तो यह आपकी इच्छा है। लेकिन जानकारी के बिना अंधेरे में रह कर इस तरह के आचरण से शायद आप न अपने साथ- न समाज के साथ- और न इस देश की सनातन संस्कृति के साथ- न्याय कर रहे हैं। इसलिए फिर कह रहा हूं कि किसी भी मजार या दरगाह पर जाने से पहले उसके बारे में पता जरूर करें, शायद आपका मन बदल जाए।