बिरहा-गायन

सत्यदेव त्रिपाठी।

तीन नामी बिरहियों (बिरहा गाने वालों) को सामने से सुनने का मौक़ा मिला मुझे – हीरा, बुल्लू और बलेसर (बालेश्वर)। तीनो यादव। और जैसे आल्हा नट जाति की धरोहर रही, बिरहा अहीर (यादव) जाति की थाती है। लेकिन आधुनिक युग जिस तरह की विविधता का हामी है कि एकाधिकार के रूप में बनियों के रोजगार -‘केराना’ का धंधा- ब्राह्मण का लड़का भी करता है। उसी तरह आज बिरहा गाने वालों में दस प्रतिशत तो अन्य जाति के लोग भी हैं ही।

निराबानी गाथाएँ

लोकगाथा का यह बिरहा ही एक ऐसा रूप है, जो उतरप्रदेश के पूर्वी व बिहार के पश्चिमी भाग की ख़ास उपज है– पूर्वांचल का विशुद्ध लोकरूप। और सबसे नया लोकरूप भी है – १९वीं शताब्दी के पहले इसके गायन के उल्लेख नहीं मिलते। इतना नया है, इसलिए दस्तावेज उपलब्ध है कि बिरहा के पुरस्कर्त्ता बिहारी यादव (1837) हैं। बिहारी नाम से भले ध्वनित होता हो कि वे बिहार के होंगे, लेकिन थे वे ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश) के।

और इसी तरह बिरहा में मुख्य शब्द है- बिरह, तो मान्यता रही और होनी चाहिए कि यह बिरह पर आधारित गायन-रूप है, लेकिन बिलकुल ऐसा ही है नहीं। जितने मैंने सुने, उसमें बिरह की कोई ख़ास प्रधानता रही नहीं। इसमें गद्य बहुत कम होता है- गीतेतर कथन-संवादों के रूप में, वरना गीतों के दौरान तो बस, इतना ही कि कौन कह रहा है, किससे कह रहा है, कैसे कह रहा है… आदि के उल्लेख भर बातचीत की तरह होते हैं। आल्हा व बिरहा के आधार पर कहना हो, तो व्यवस्था दी जा सकती है कि लोकगाथा पद्य में ही होती हैं। लेकिन जादूगर काका वाली गाथाओँ के कारण ऐसी व्यवस्था पूर्ण न कही जा सकेगी, क्योंकि गाथा की प्रकृति के अनुसार वही सबसे निराबानी गाथाएँ हैं।

समकालीन प्रासंगिकता

यह भी आधुनिक युग में जनमने का ही फल है कि जगनिक के आल्हखंड… आदि की तरह के कोई आधार या स्रोत ग्रंथ नहीं पढ़ने-सुनने में आये। लेकिन इसी का सहज परिणाम यह भी हुआ कि यह विधा समकालीन जीवन से सीधे इस तरह जुड़ गयी कि अपने समय में होने वाली बड़ी घटनाओं पर बिरहियों ने बिरहे गाये। इसके चलते समकालीन प्रासंगिकता से इसकी जवलंतता तो बढ़ी, लेकिन कालातीतता एकदम कम हो गयी। इसके कारण उभयमुखी रहे। एक तो आम जीवन की अधिकांश घटनाएँ क्लासिक नहीं होतीं कि युग-युग तक गायी-सुनायी जायें और दूसरे, आम घटनाएँ होती ही रहती हैं, इसलिए पुराना-नया हर लेखक नित नये वृत्तांतों को लाने का महत्वाकांक्षी होता गया। अपने स्कूली दिनो में दीना-बुझारथ नाम का डाकू-युग्म सरनाम हुआ था, जिन पर बिरहा भी मैंने सुना था और जानी-पहचानी घटना को सुनकर पुलकित हुआ था- उसके रेशे-रेशे की सचाई पर चर्चाएँ होती थीं। लेकिन अब तो दहेज-हत्या की कोई घटना अख़बार में आयी कि हफ़्ते भर में उस पर बिरहा तैयार। और अगले महीने ऐसे ही कोई और घटना…। इन सबसे इनका हाल रोज़ के अखबारों जैसा न सही तिमाहीं-छमाहीं पत्रिकाओं जैसा तो हो ही गया है कि साल-छह महीने बाद रद्दी काग़ज़ों के हवाले। इस प्रक्रिया में हीरा-बुल्लू-बलेसर जैसों तक तो फिर भी ठीक रहा- बिरहों की उम्र 25-30  साल तो रहती, लेकिन बिलकुल ताजे निरहुआ (दिनेश यादव) जैसे लोगों ने इस विधा को निहायत तुरंती घटनाओं से जोड़कर व सतही लेखन से ग्रस्त करके तथा ऐसे लेखन की आपसी होड़ा-होड़ी मचा के इनके असमय अवसान (अकाल मृत्यु) की तक़दीर लिख दी है।

विषयों की तरह ही बिरहा की प्रस्तुति में प्रयुक्त शैलियाँ व छ्न्द भी अनगिन चलते हैं… सब प्रकार के गीत रूप, काव्यरूप का ख़ज़ाना बन जाता है बिरहा-गायन। कब गीत होगा, कब क़व्वाली हो जाएगा, कब सोहर-कजरी, कब दोहा पिहक़ उठेगा, कब रोला फूट पड़ेगा… याने किसी विधा-रूप से गुरेज़ नहीं। बीच-बीच में लम्बे गद्य भी। ये बिरहे सुनकर क़यास होता है कि ये शायद लिखित होते ही नहीं- आशु वाला मामला बनता है। यह वैविध्य भी इसकी रोचकता का अच्छा सबब बनता है।

‘लोकगाथा’ : कुछ कागद-लेखी कुछ आँखन-देखी 6

मनभावन बंधन

अब हीरा-बुल्लू के समय के आधार पर प्रस्तुति के कुछ विधानो-तरीक़ों की बात भी सोदाहरण कर लें। पद्मश्री से सम्मानित हीरालाल यादव के आधार पर- धोती पर लम्बे कुर्ते की इतनी निश्चित धज तो न आल्हा-गायकों में रही, न जादूगर काकादि में ही। योगियों का गेरुआ तो योगी जाति का ब्रांड ही रहा। उस धोती-कुर्त्ते पर टोपी या फिर गमछा या दोनों। योगी-गीत व आल्हा बैठ के गाये जाते, लेकिन बिरहा तो खड़े ही रखता है। ढोलक-सारंगी के बदले हाथ में करताल- कर-ताल (हाथ की ताली नहीं)। दोनो सिरों पर नुकीले व बीच चिपटे लोहे के दो-दो टुकड़ों को दोनों हाथ की गदोली पे रखके उँगलियों व अंगूठे से दोनों तरफ़ से इस अदा से हिलाये-चलाये जाते कि भिन्न-भिन्न क़िस्म की अनगिन आवाज़ें- याने वाद्य-संगीत की विविध ध्वनियाँ-धुनें व ताल… गीत को सहारते, पुष्ट करते, भावों को खोलते, संगीतबद्ध करते… यानी अद्भुत चमत्कार करते। पता नहीं तुलसी के बालक राम ‘कबहूँ करताल बजाइ के नाचत’ में यही करताल बजाके नाचते थे या तब कुछ और होता था! लेकिन ये बिरहिया तो एक जगह खड़े होकर भी पाँवों की थिरकनों और देह की बहुविध लोचों-गतियों से जो समाँ बांधते कि दर्शक-श्रोता उस मसृण-मनभावन बंधन से छूटना चाहे ही न, छूट पाये भी न।

लोकगाथा की यह चर्चा ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ वाला मामला है। फिर तुलसी बाबा की शरण जाऊँ, तो लोकगीतों की बावत वही कहूँगा, जो उन्होंने अपने राम के लिए कहा है- “इन्हके ‘रूप’ अनेक-अनूपा, हम यहँ कहल स्वमति अनुरूपा।” (समाप्त)

(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)