रिया सिन्हा।
नौ महीने बीत जाने के बाद भी तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने को लेकर जूझ रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री को बदले जाने को लेकर लगाए जा रहे कयास और इसी साल मार्च महीने में कंधार में कार्यवाहक प्रधानमंत्री , मावलवी हेबतुल्लाह अकुंदज़ादा द्वारा आयोजित तीन दिवसीय बैठक को अफ़ग़ानिस्तान की मौज़ूदा परिस्थितियों के मद्देनज़र किसी आश्चर्य के रूप में नहीं देखा जा सकता है। हालांकि इस्लामिक अमीरात के प्रवक्ता ज़बीलुल्लाह मुज़ाहिद ने इन अटकलों को ग़लत कहकर फौरन ही ख़ारिज़ कर दिया,इसके बावज़ूद कई लोगों का मानना है कि तालिबान प्रशासकों में तेज़ी से विभाजन हुआ है।
बेहद ज़रूरी अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने की क़ीमत पर भी तालिबान नेतृत्व ने अफ़ग़ान समाज के दूसरे समूहों तक अपनी पहुंच बनाने के बदले आंतरिक एकता को स्थापित करने को प्राथमिकता दी है। बढ़ती आंतरिक कलह और उभरते बाहरी ख़तरों के साथ, तालिबान के लिए अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करना आसान नहीं होगा। अगर तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण बनाए रखने में नाकाम होता है तो कई गुटों और विपक्षी समूहों के बीच हिंसक झड़प हो सकती है, क्योंकि वो ऐसी परिस्थिति का फायदा उठाने की कोशिश करेंगे जो आख़िरकार सबसे ख़राब मानवीय और आर्थिक संकट का सामना कर रहे अफ़ग़ान नागरिकों के लिए नासूर बन जाएगा।
आंतरिक सत्ता संघर्ष
तालिबान अपने अस्तित्व की शुरुआत से ही गुटबाज़ी का सामना करता रहा है, जबकि साल 2015 की उथल पुथल की घटना इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है। इसके संस्थापक की मृत्यु का खुलासा होने के बाद 2013 में मुल्ला उमर और बाद में उनके उत्तराधिकारी मुल्ला अख़्तर मंसूर, तालिबान आंदोलन से जुड़े लोगों में गहरी निराशा घर कर गई थी। यह नए विवाद और आंतरिक कलह के माहौल को पैदा करने लगा था लेकिन कमज़ोर संगठनात्मक ढांचे और अफ़ग़ान सुरक्षा बलों से लड़ने वाले इसके लड़ाकों के पास अधिक स्वायतत्ता होने के साथ तेज़ी से इनके सदस्यों के बीच बढ़ती विभाजन की लकीर के बावज़ूद यह संगठन एकजुट रहा।
तालिबान संगठन के बीच ज़्यादातर विवाद उसके राजनीतिक और सैन्य विभाग के लोगों को लेकर है। सैन्य प्रवृति वाला हक्क़ानी समूह पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी का वफ़ादार है, जो तालिबान नेतृत्व में अंदर तक अपनी पैठ रखता है। कुछ पर्यवेक्षकों को यह चिंता सताती है कि सिराज़ुद्दीन हक्क़ानी पाकिस्तानी समर्थन से तालिबान आंदोलन को नाकाम कर देगा।
अफ़ग़ानिस्तान में सरकार बनने के कुछ दिनों बाद ही तालिबान और हक्क़ानी ग्रुप के नेताओं के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष शुरू हुआ जिसका नतीजा दोनों समूहों के बीच हिंसक टकराव के रूप में सामने आया। सबसे ज़्यादा विवाद इस बात को लेकर छिड़ा कि अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता हासिल करने के लिए किसने सबसे ज़्यादा भूमिका अदा की। शरणार्थियों के लिए मंत्री ख़लील उर-रहमान हक्क़ानी के साथ हुए विवाद और कड़े शब्दों के आदान-प्रदान के बाद कई दिनों तक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ग़ायब रहे जबकि इस घटना के बाद उनके समर्थक आपस में भिड़ गए थे।
परस्पर विरोधी नीतियों को अपनाया
वैचारिक मतभेदों के कारण तालिबान ने परस्पर विरोधी नीतियों को अपनाया है। तालिबान के कट्टरपंथियों ने स्पष्ट कर दिया कि पिछले प्रशासन में जिसने भी एक दिन बिताया उसे तालिबान द्वारा संचालित नई सरकार में जगह नहीं दी जाएगी। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट कहती है कि तालिबान लड़ाकों ने पूर्व अधिकारियों और सुरक्षा कर्मियों के कई प्रांतों में टार्गेट किलिंग को अंजाम दिया है। यहां तक कि तालिबान लड़ाकों ने भी कई प्रांतों में लोगों को उनके घरों से ज़बरन निकाला। हालांकि इसके तुरंत बाद नए प्रशासन ने यह घोषणा की कि वह पूर्व सरकारी अधिकारियों और तकनीक से जुड़े पेशेवरों का स्वागत करेगा और उन्हें माफी दे दी जाएगी।
लड़कियों को छठी कक्षा तक पढ़ने की अनुमति देने के तालिबान के फैसले से संगठन के भीतर गहरे होते विभाजन साफ होते हैं। “इस्लामी क़ानून और अफ़ग़ान संस्कृति के सिद्धांतों” के अनुरूप नीतियों को लागू करने के मक़सद में, तालिबान सरकार अपने पहले की घोषणा से पीछे हटती दिखती है जिसके तहत लड़कियों को शिक्षा की अनुमति दी गई थी।
तालिबान लड़ाकों की शिकायतें
यहां तक कि युद्ध के दौरान लूट का इंतज़ार कर रहे सैनिकों में भी असंतोष पनपता जा रहा है। शासन के किसी भी रूप में अनुभव और प्रशिक्षण की कमी के कारण, ये अपनी पहचान खो रहे हैं जिनका अस्तित्व ज़्यादातर युद्ध पर निर्भर रहता था। ऐसे तालिबान लड़ाकों की शिकायतें यहीं ख़त्म नहीं होतीं, पिछले साल अक्टूबर में तालिबान के केंद्रीय नेतृत्व ने “क्लियरिंग ऑफ़ रैंक कमीशन” की स्थापना की। इसका मक़सद वैसे तालिबान लड़ाकों को संगठन से बाहर का रास्ता दिखाना था जो अपराध में शामिल रहते हैं और अफ़ग़ान नागरिकों की निजता का उल्लंघन करते हैं।
अपनी शक्ति को और मज़बूत करने के लिए तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की क़ानूनी व्यवस्था में बदलाव किए, जिसने अफ़ग़ान नागरिकों से उनकी उचित प्रक्रिया का हक़ छीन लिया है। यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान इंडिपेंडेंट बार एसोसिएशन से उसकी स्वतंत्रता छीन ली गई। अब्दुल हकीन शरई ने 23 नवंबर 2021 को एक फरमान प्रकाशित किया जिसमें कहा गया था कि वकीलों और अधिकारियों को “इस्लामिक अमीरात के प्रति ईमानदार और वफादार” होना चाहिए, वो पिछले प्रशासन के साथ काम नहीं किए हों, और “जिहाद” में उनकी भागीदारी हो। इसमें यहां तक कहा गया था कि जो लोग इन मानकों को पूरा नहीं करेंगे उन्हें बदल दिया जाएगा। ऐसे में बहुत कम गैर-तालिबान लोग ही ऐसे पदों के लिए पात्र रह पाए।
बाहरी संस्थाओं से धमकी
संगठन के भीतर चुनौतियों के अलावा, तालिबान को इस्लामिक स्टेट-खोरासन (आईएस-के) और नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट (एनआरएफ) जैसे आतंकवादी संगठनों से बाहरी ख़तरों का सामना करना पड़ता है, जो एक तालिबान विरोधी समूह है जिसमें पूर्व सरकार के नेता शामिल हैं।
इस्लामिक स्टेट-खोरासन (आईएस–के)
पिछले साल नवंबर से लगभग निष्क्रिय रहने वाले आईएस-के ने पिछले कुछ हफ़्तों में अफ़ग़ान तालिबान के शासन को कमज़ोर करने के लिए एक आक्रामक अभियान शुरू किया हुआ है। इसमें सबसे उल्लेखनीय दश्त-ए-बर्ची में हाई स्कूल में बम विस्फ़ोट था, जो मुख्य रूप से हज़ारा शिया के पास था। इस हमले में छह लोगों की मौत हो गई और बच्चों सहित कम से कम 11 लोग घायल हो गए थे।
तालिबान के पलटवार ने आईएस-के के क्षेत्र और ताक़त को कम करने में क़ामयाबी हासिल की है। अगस्त 2021 में काबुल हवाई अड्डे पर घातक हमले जैसे शहरी केंद्रों में आतंकी गतिविधियों को केंद्रित करने के लिए अफ़ग़ान तालिबान के प्रतिद्वंद्वियों को मज़बूर किया गया। कमज़ोर होने के बावज़ूद आतंकी हमलों को अंज़ाम देने के आईएस-के नेतृत्व की क़ाबिलियत तालिबान को चुनौती देने की उनकी क्षमता की ओर इशारा करता है। तालिबान की शासन करने की सीमित क्षमता, बहुपक्षीय आतंकवाद विरोधी दबावों की ग़ैर-मौज़ूदगी और बढ़ते मानवीय संकट को देखते हुए अफ़ग़ानिस्तान अब आईएस-के के उभार के लिए अनुकूल महौल प्रदान करता है।
तालिबान के नियंत्रण को अस्थिर करने के लिए आईएस-के ने तालिबान की ज़वाबी कार्रवाई को लेकर कथित सख़्त दृष्टिकोण का पर्दाफाश किया है। आईएस-के का समर्थन करने वाले स्थानीय लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई और प्रतिशोध अब आम बात है, जो स्थानीय लोगों को तालिबान से और अलग-थलग कर रहा है। इसके अलावा आईएस-के ने ज़िहादी गठबंधनों की ज़रूरत वाले स्थानीय मिलिशिया के साथ संबंध जोड़ लिए हैं और संगठन में तालिबान के हाथों सताए हुए समुदाय के लोगों की भर्ती भी की है। लश्कर-ए-झांगवी और इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान जैसे समूहों के साथ गठबंधन ने आईएस-के को विशेषज्ञता और क्षेत्रीय भौगोलिक स्थितियों से रूबरू करवाया है और भर्ती किए गए लड़ाकों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को कम किया है। संगठन के एक प्रमुख नेता अल-मुहाज़िर ने अफ़ग़ान तालिबान का विरोध करने की अपनी क्षमता को मज़बूत करते हुए, समूह को फिर से सक्रिय करने में अहम भूमिका निभाई।
आईएस-के के काबुल नेटवर्क के उप प्रमुख, अल-मुहाज़िर, पहले हक्क़ानी नेटवर्क से जुड़े तालिबान गुटों का हिस्सा थे। उनके व्यापक नेटवर्क ने संगठन में लड़ाकों की भर्ती में मदद की और उनकी शहरी युद्ध विशेषज्ञता कई इलाक़ों में उपयोगी साबित हुई क्योंकि काबुल हवाई अड्डे के हमलों का मास्टरमाइंड वही था। जब तक तालिबान पूर्व अफ़ग़ानी सेना के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक प्रभावी तंत्र विकसित नहीं करता है, तब तक हज़ारों पूर्व अफ़ग़ान सुरक्षा अधिकारी भयभीत और बिना किसी संभावना के, आईएस-के को पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत बनाने का मौक़ा देते रहेंगे।
नेशनल रेसिस्टेंस फ़्रंट (एनआरएफ़)
अमेरिकी प्रशिक्षित सशस्त्र बलों के भीतर मौज़ूद कई तालिबान विरोधी ताक़तों और गनी प्रशासन के पूर्व सदस्यों ने तालिबान विरोध के गढ़ कहे जाने वाले पंजशीर घाटी में शरण ले लिया। यहां तक कि कई दूसरे विरोधी नेता पिछले साल सीमावर्ती राज्य ताज़िकिस्तान में शरण लेने के लिए भाग गए थे।
1980 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत कब्ज़े के ख़िलाफ़ विद्रोह का गढ़ बन चुके पंजशीर घाटी पर तालिबान ने अपने ख़िलाफ़ विरोध को ख़त्म करने के लिए सितंबर 2021 में ज़बरदस्त हमला बोला। एनआरएफ के नेता अहमद मसूद ने तब आंदोलन को हुए भीषण नुकसान के बावज़ूद लड़ाई जारी रखने की कसम खाई थी। अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व उप राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह भी प्रमुख नेताओं में से एक हैं। एनआरएफ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उनके नेता अहमद मसूद बने रहें और लगभग अब मृतप्राय हो चुके अफ़ग़ान नेशनल सिक्युरिटी एंड डिफ़ेंस फोर्स के पूर्व सैनिक एनआरएफ के लड़ाकों के पदों को भरें।
आईएस-के की तरह एनआरएफ तालिबान के लिए गंभीर ख़तरा नहीं है। हालांकि उन्होंने वसंत के मौसम में फिर से हमला शुरू करने का ऐलान किया है लेकिन एनआरएफ को बाहरी शक्तियों से राजनीतिक और भौतिक समर्थन नहीं मिल पा रहा है, जो एक सफल सैन्य विद्रोही अभियान को जारी रखने के लिए ज़रूरी है। मध्य एशिया में ताज़िकिस्तान अकेला पड़ोसी देश है जो खुलकर तालिबान का विरोध करता है और अफ़ग़ानिस्तान के विपक्षी नेताओं को शरण देता है।
आख़िर जाना कहां है?
तालिबान ने सबसे लंबे समय तक चलने वाले विद्रोह को जारी रखा है और अपेक्षाकृत बतौर समूह एकजुट होकर उभरा है, जिसने कई विद्रोह को नाकाम किया है। आईएस-के के लिए बड़े पैमाने पर दलबदल, स्वतंत्रता की घोषणा करने वाले हक्क़ानी नेटवर्क, या अन्य समूहों में शामिल असंतुष्ट लड़ाकों ने चिंता पैदा कर दी है। हालांकि इसकी सामाजिक नीति तालिबान के उन पहल में शामिल होने से इनकार करती है जो आंदोलन की एकता को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
एक एकजुट प्रतिरोध आंदोलन के लिए यह ज़ल्दी है, हालांकि इसकी संभावना अभी भी बनी हुई है। तालिबान ने संगठन में हुए पहले आंतरिक विभाजन को काफी सख़्ती से दबा दिया था और एकजुट होकर उभरने में क़ामयाब रहा था। हालंकि इस बार अंतर यह है कि अफ़ग़ानिस्तान के लोग वैसे नहीं रहे हैं जो दो दशक पहले हुआ करते थे और एक समाज के रूप में प्रगति करने के लिए इन लोगों ने काफी कदम आगे बढ़ाया है। हालांकि भयानक मानवीय और आर्थिक संकट के बीच, अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने की बढ़ती ज़रूरत के साथ तालिबान को सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने में परेशानी हो सकती है क्योंकि विद्रोह छेड़ने से ज़्यादा इस वक़्त देश में बेहतर शासन प्रदान करने की ज़रूरत है।
तालिबान और आईएस-के को एक दूसरे के ख़िलाफ़ टकराते देखने के बजाए, आईएस-के का सामना करने के इच्छुक देशों को सक्रिय रूप से एक संयुक्त सुरक्षा तंत्र विकसित करना होगा और यही समय की मांग है, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान के लोग लगातार बिगड़ते सुरक्षा माहौल का सामना कर रहे हैं और आईएस-के और अफ़ग़ान तालिबान के बढ़ते विरोध के परिप्रेक्ष्य में आने वाले दिनों में अफ़ग़ानिस्तान से बड़े पैमाने पर नागरिकों के विस्थापन की आशंका बढ़ रही है।
(ओआरएफ से साभार)